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पद्मावती के बाद सेक्सी दुर्गा और न्यूड: आखिर विवाद की वजह क्या है ?

    • मनीष जैसल
    • Updated: 29 नवम्बर, 2017 11:38 AM
  • 29 नवम्बर, 2017 11:38 AM
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गंभीर विषयों पर फिल्म निर्माण के बाद विरोध कोई नई बात नहीं है. पद्मावती पर लोगों का विरोध हम देख चुके हैं, अब हमें फिल्म सेक्सी दुर्गा और न्यूड पर हो रहे विरोध पर भी गौर करना चाहिए और जानना चाहिए कि आखिर ये विरोध हो क्यों रहा है.

भारत का सबसे बड़ा फिल्म फेस्टिवल गोवा में संपन्न हुआ. देश और दुनिया की बेहतरीन फिल्मों का एक जगह एकत्र होना और दर्शकों तक इसे सुलभता से पहुंचाना एक बड़ा और सराहनीय काम है. देश में फिल्मों के प्रचार-प्रसार और नयी प्रौद्योगिकी को जानने समझने के लिए यह फेस्टिवल अहम है. इस फेस्टिवल के शुरुआत में मलयालम फिल्म को लेकर बवाल तब हुआ जब फिल्म फेस्टिवल की ज्यूरी ने दो फिल्मों के प्रदर्शन पर रोक लगा दी थी. पहला मामला मलयाली निर्देशक सनल शशीधरन की फिल्म सेक्सी दुर्गा को लेकर था. ज्यूरी ने फिल्म के नाम से लेकर उसके कंटेन्ट तक में आपत्ति जताई थी.

फिल्म के बाद बढ़ते विवाद कोई नई बात नहीं है

ऐसा नहीं है कि पूरे ज्यूरी बोर्ड ने फिल्म को लेकर विरोध किया. फिल्म के समर्थन में रहे ज्यूरी सदस्य फिल्मकार सुजॉय घोष, दो सदस्य- स्क्रिप्ट राइटर अपूर्व असरानी और फिल्मकार ज्ञान कोरिया ने तो अपना इस्तीफा भी दे दिया. यह कलात्मकता को निशाने पर रखने वाली सत्ता के लिहाज से बड़ा कदम था. शशीधरन ने फिल्म पर लगे प्रतिबंध को केरल हाई कोर्ट में चुनौती दी. कोर्ट ने एक बार फिर फ़िल्मकार के पक्ष में फैसला सुनाते हुए किसी भी फिल्म पर लगने वाले प्रतिबंध को गलत ठहराया. फिल्म 28 नवंबर को गोवा फिल्म फेस्टिवल में दिखाई गयी. लेकिन इसके पीछे की कहानी को अगर हम देखें तो पाते है कि इस तरह के विवादों से फ़िल्मकार कई बार अपनी रचनात्मकता से समझौता कर लेते हैं.

खुद शशीधरन ने माना कि उन्होंने अपनी फिल्म 'सेक्सी दुर्गा' को मामी फिल्म फेस्टिवल के दौरान ही बदल कर 'एस दुर्गा' कर लिया था. उन्होंने ऐसा इसलिए भी किया ताकि वह किसी प्रकार के विवादों में न फंसे. उनका मुख्य उद्देश्य अपनी फिल्म के जरिये अपने संदेश को दर्शकों तक पहुंचाना था. इस कड़ी में कोर्ट ने अपनी सकारात्मक भूमिका निभाते हुए...

भारत का सबसे बड़ा फिल्म फेस्टिवल गोवा में संपन्न हुआ. देश और दुनिया की बेहतरीन फिल्मों का एक जगह एकत्र होना और दर्शकों तक इसे सुलभता से पहुंचाना एक बड़ा और सराहनीय काम है. देश में फिल्मों के प्रचार-प्रसार और नयी प्रौद्योगिकी को जानने समझने के लिए यह फेस्टिवल अहम है. इस फेस्टिवल के शुरुआत में मलयालम फिल्म को लेकर बवाल तब हुआ जब फिल्म फेस्टिवल की ज्यूरी ने दो फिल्मों के प्रदर्शन पर रोक लगा दी थी. पहला मामला मलयाली निर्देशक सनल शशीधरन की फिल्म सेक्सी दुर्गा को लेकर था. ज्यूरी ने फिल्म के नाम से लेकर उसके कंटेन्ट तक में आपत्ति जताई थी.

फिल्म के बाद बढ़ते विवाद कोई नई बात नहीं है

ऐसा नहीं है कि पूरे ज्यूरी बोर्ड ने फिल्म को लेकर विरोध किया. फिल्म के समर्थन में रहे ज्यूरी सदस्य फिल्मकार सुजॉय घोष, दो सदस्य- स्क्रिप्ट राइटर अपूर्व असरानी और फिल्मकार ज्ञान कोरिया ने तो अपना इस्तीफा भी दे दिया. यह कलात्मकता को निशाने पर रखने वाली सत्ता के लिहाज से बड़ा कदम था. शशीधरन ने फिल्म पर लगे प्रतिबंध को केरल हाई कोर्ट में चुनौती दी. कोर्ट ने एक बार फिर फ़िल्मकार के पक्ष में फैसला सुनाते हुए किसी भी फिल्म पर लगने वाले प्रतिबंध को गलत ठहराया. फिल्म 28 नवंबर को गोवा फिल्म फेस्टिवल में दिखाई गयी. लेकिन इसके पीछे की कहानी को अगर हम देखें तो पाते है कि इस तरह के विवादों से फ़िल्मकार कई बार अपनी रचनात्मकता से समझौता कर लेते हैं.

खुद शशीधरन ने माना कि उन्होंने अपनी फिल्म 'सेक्सी दुर्गा' को मामी फिल्म फेस्टिवल के दौरान ही बदल कर 'एस दुर्गा' कर लिया था. उन्होंने ऐसा इसलिए भी किया ताकि वह किसी प्रकार के विवादों में न फंसे. उनका मुख्य उद्देश्य अपनी फिल्म के जरिये अपने संदेश को दर्शकों तक पहुंचाना था. इस कड़ी में कोर्ट ने अपनी सकारात्मक भूमिका निभाते हुए अभिव्यक्ति की आज़ादी का संरक्षण किया है. बक़ौल शशीधरन मेरी फिल्म में कुछ भी विवादित नहीं था, मैं दुर्गा माता को सेक्सी नहीं कह रहा हूं, वह मंदिर में सुरक्षित हैं.

इन दिनों फिल्म sexy दुर्गा को लेकर भी खूब आलोचना हो रही है

कोर्ट के फैसले के बाद शशीधरन ने ट्वीट किया कि 'मैं बहुत खुश हूं. यह सिनेमा की जीत है. मैं प्राय: जीत का उत्सव नहीं मनाता हूं. लेकिन, इस मामले में मैं इससे दूर नहीं रह सकता. यह सिनेमा की जीत है. यह हमारे लोकतंत्र की जीत है. यह जूरी में मौजूद उन लोगों की जीत है जिन्होंने बलिदान दिया. चीयर्स इंडिया. हम पूरे मामले में देखें  तो सूचना और प्रसारण मंत्रालय की भूमिका संदिग्ध मानी जाएगी. क्योंकि फिल्म फेस्टिवल के ज्यूरी के होते हुए  मंत्रालय का दवाब अपने आप में बड़ी कहानी पेश करता है. मंत्रालय ने इसके पीछे यह तर्क दिया था कि, 'इससे कानून-व्यवस्था प्रभावित हो सकती है क्योंकि यह धार्मिक भावनाओं को आहत करती है.

कोर्ट के आदेश के बाद, फिल्म देख रहे दर्शकों कि भावनाओं के आहात होने न होने का कोई पैरामीटर होता तो आगे होने वाले विवादों में कमी आ सकती थी. सेंसर बोर्ड के विवादों में भी यही समानता हमें देखने को मिलती है. कई बार फिल्में मंत्रालय के दवाब में प्रतिबंधित की जाती रही हैं. बोर्ड अध्यक्ष रहे पहलाज निहलानी अपने कार्यकाल के दौरान इस तरह घटित हुई घटनाओं को स्वीकार कर चुके हैं.

यहां एक और फिल्म के विवाद का जिक्र करना जरूरी है वो है मराठी फिल्म न्यूड. राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता रवि जाधव की फिल्म न्यूड मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में काम करने वाली एक मॉडल की कहानी है. जो संघर्ष के दौर में न्यूड फोटोशूट कराने लगती है. 48वें गोवा फिल्म फेस्टिवल के 13 सदस्यीय निर्णायक मण्डल ने इसे भी इंडियन पैनोरमा खंड के लिए, इसका चयन किया था.

विवादों की लिस्ट में फिल्म न्यूड भी अपना नाम जोड़ चुकी है

शायद आपको जानकार आश्चर्य हो कि इस फिल्म को ज्यूरी ने फेस्टिवल की पहली फिल्म के तौर पर दिखाने का आश्वासन भी दिया था. लेकिन मंत्रालय के दवाब के कारण इस पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया था. हालांकि आयोजकों ने विवाद को बढ़ते देख तर्क दिया कि यह फिल्म अधूरी थी इसीलिए इसे यहां दिखाया नहीं जा रहा. फिल्म को लेकर कोई फैसला होता कि, फिल्म अपने कंटेन्ट को लेकर ही विवादों में आ गयी. फिल्म पर आरोप है कि वह हिंदी की जानी मानी लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ की ही शॉर्ट स्टोरी 'कालिंदी' की कहानी से चुराई गयी है.

सीधे तौर पर कहा जा सकता है प्रतिबंध की राजनीति खेलती सत्ता भले ही कितना फ़िल्मकारों को डरा धमका कर उनकी अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने के जतन करें लेकिन संविधान से मिलें मौलिक अधिकार का संरक्षण हर बार कोर्ट ने किया. विवाद कितना भी गहरा क्यों न रहा हो कोर्ट ने भीड़ की चाल में चाल नहीं मिलाई. लेकिन यह भी सच है कि देश में कोर्ट केस की अधिकता और न्यायालयों की कमी के चलते ऐसे ही न्याय व्यवस्था कि गति धीमी है ऐसे में रोज नए विवाद को खड़ा कर न्यायालय की शरण लेना भी उचित नहीं है. सत्तासीन रूढ़िवादी लोगों की आपसी समझ-बूझ से भी ऐसे विवादों से बचा जा सकता है. बाद बाकि कोर्ट और संविधान तो है ही.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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