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पाकीजाः दुपट्टे की वर्षगांठ

    • शिवकेश मिश्र
    • Updated: 17 जुलाई, 2017 09:45 PM
  • 17 जुलाई, 2017 09:45 PM
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16 जुलाई 1956 को मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे इस मुजरे को फिल्मकार कमाल अमरोही ने कैमरे में उतारा था. पाकीजा रिलीज हुई 1972 में लेकिन अमरोही के सीने पर वह दशकों से नाच रही थी.

'इन्हीं लोगों ने...इन्हीं लोगों ने...इन्हीं लोगों ने ले लीन्हा दुपट्टा मेरा...हां जी हां दुपट्टा मोरा'. 61 साल पहले, 16 जुलाई 1956 को मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे इस मुजरे को फिल्मकार कमाल अमरोही ने कैमरे में उतारा था. पाकीजा रिलीज हुई 1972 में लेकिन अमरोही के सीने पर वह दशकों से नाच रही थी. अभी हाल ही अमरोही के बेटे ताजदार अमरोही ने एक इंटरव्यू में बताया है कि कमाल पिन्न्चर्स के पास इस फिल्म की जो रीलें हैं, उसमें इस गाने वाली रील के नीचे 16 जुलाई 1956 की तारीख पड़ी है.

इन्हीं लोगों ने..गाने को 61 साल पूरे हुए

स्लीपिंग पिल्स की आदी हो चुकीं, उस जमाने की अप्रतिम अदाकारा, अपनी पत्नी को वे सालों बाद फिर से शूटिंग के लिए राजी कर पाए. पाकीजा अपने निर्माण के दौरान ही मशहूर हो चुकी थी. कमाल साहब खुद इस पहलू से अच्छी तरह वाकिफ थे. उसी दौर में फिल्मी दुनिया को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा भी था कि फिल्म की लोकेशंस की तलाश के लिए उनके सफर पर मजाक बनना शुरू हो गया है और लोग कहते हैं कि इस फिल्म का नाम हिंदुस्तान की सैर होना चाहिए. इसी मोड़ पर वे इस बात का भी जिक्र करते हैं कि किस तरह वे पाकीजा का नाम लहू पुकारेगा रखने की सोचने लगे थे.

''मैं पाकीजा का पहला गाना (जाहिर है इन्हीं लोगों ने) रिकॉर्ड कर रहा था. चार्ली नामक एक आदमी जो अंक शास्त्र का माहिर समझा जाता था, कहने लगा- कमाल साहब यह प्रोग्राम कैंसल कर दीजिए. एक नितांत धार्मिक वृत्ति के उनके भाई ने भी पाकीजा के बारे में सुना तो बोले कि परेशानियों को बुलाने से बेहतर है, इसका नाम बदल लो. इन सभी लोगों का अनुमान था कि यह फिल्म बहुत मुश्किल में फंसेगी, किसी की जान भी जा सकती है. लेकिन अगर बन गई तो इतिहास कायम करेगी. कमाल साहब ने सबकी बातें सुनीं लेकिन की अपने ही मन की. नाम नहीं...

'इन्हीं लोगों ने...इन्हीं लोगों ने...इन्हीं लोगों ने ले लीन्हा दुपट्टा मेरा...हां जी हां दुपट्टा मोरा'. 61 साल पहले, 16 जुलाई 1956 को मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे इस मुजरे को फिल्मकार कमाल अमरोही ने कैमरे में उतारा था. पाकीजा रिलीज हुई 1972 में लेकिन अमरोही के सीने पर वह दशकों से नाच रही थी. अभी हाल ही अमरोही के बेटे ताजदार अमरोही ने एक इंटरव्यू में बताया है कि कमाल पिन्न्चर्स के पास इस फिल्म की जो रीलें हैं, उसमें इस गाने वाली रील के नीचे 16 जुलाई 1956 की तारीख पड़ी है.

इन्हीं लोगों ने..गाने को 61 साल पूरे हुए

स्लीपिंग पिल्स की आदी हो चुकीं, उस जमाने की अप्रतिम अदाकारा, अपनी पत्नी को वे सालों बाद फिर से शूटिंग के लिए राजी कर पाए. पाकीजा अपने निर्माण के दौरान ही मशहूर हो चुकी थी. कमाल साहब खुद इस पहलू से अच्छी तरह वाकिफ थे. उसी दौर में फिल्मी दुनिया को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा भी था कि फिल्म की लोकेशंस की तलाश के लिए उनके सफर पर मजाक बनना शुरू हो गया है और लोग कहते हैं कि इस फिल्म का नाम हिंदुस्तान की सैर होना चाहिए. इसी मोड़ पर वे इस बात का भी जिक्र करते हैं कि किस तरह वे पाकीजा का नाम लहू पुकारेगा रखने की सोचने लगे थे.

''मैं पाकीजा का पहला गाना (जाहिर है इन्हीं लोगों ने) रिकॉर्ड कर रहा था. चार्ली नामक एक आदमी जो अंक शास्त्र का माहिर समझा जाता था, कहने लगा- कमाल साहब यह प्रोग्राम कैंसल कर दीजिए. एक नितांत धार्मिक वृत्ति के उनके भाई ने भी पाकीजा के बारे में सुना तो बोले कि परेशानियों को बुलाने से बेहतर है, इसका नाम बदल लो. इन सभी लोगों का अनुमान था कि यह फिल्म बहुत मुश्किल में फंसेगी, किसी की जान भी जा सकती है. लेकिन अगर बन गई तो इतिहास कायम करेगी. कमाल साहब ने सबकी बातें सुनीं लेकिन की अपने ही मन की. नाम नहीं बदला.

इन्हें ज़मीन पर न रखिएगा...

पाकीजा के सामने किस-किस तरह की मुश्किलात आईं, उनकी दास्तानें सुनाते वक्त कमाल साहब शिवपुरी का वह किस्सा बताना नहीं भूलते थे. लोकेशंस की तलाश के ही सिलसिले में टीम के साथ वे दो कारों में कोटा से दिल्ली की तरफ जा रहे थे. मीना कुमारी उनकी ही कार में थीं. शिवपुरी जिले से गुजरते वक्त दोनों ही गाडियों का पेट्रोल खत्म होने को आ गया. आधी रात, ऊपर से वह खूंखार डाकुओं का जमाना. बताया गया कि सुबह यहां से एक बस गुजरती है, उसी से पेट्रोल मिल सकेगा. तय हुआ कि लोग अपनी कारों के शीशे बंद कर गाड़ी में ही रात बिताएं. अचानक कुछ लोगों ने आकर गाड़ी को घेर लिया और बोले कि चलिए, थानेदार ने बुलाया है. सबके होश फाख्ता. उन्हें एक हवेली में ले जाया गया. सिल्क की कमीज और पाजामा पहने बाहर आए एक शख्स ने परिचय और मकसद पूछा. शूटिंग सुनकर पहले उसने समझा कि यह टीम शिकार करने आई है. कमाल साहब ने जब अपना पूरा परिचय दिया तो उसने फटाक से पूछा कि उन्होंने कौन-सी फिल्म बनाई है? 'महल'. जवाब में यह सुनकर वह बोला कि फिर तो आप बस कमाल हैं. उसने चार दफा महल देखी थी.

कमाल अमरोही के साथ मीना कुमारी

फिर क्या था. हवा का रुख ही बदल गया. खूब खातिर-सत्कार हुआ टीम का. सुबह पेट्रोल का भी इंतजाम कराया उसने. लेकिन क्लाइमैक्स अभी बाकी था. कमाल साहब आगे बताते हैं, विदाई के वक्त ''उस नौजवान ने अपनी जेब से एक लंबा-सा चाकू निकालकर मीना को दिया. डरी हुई मीना चाकू देखकर और भी डर गई. लेकिन उस जवान के कहा, 'इस चाकू की नोक से मेरी कलाई पर बेस्ट विशेज टु अमृत लिखो और नीचे अपना नाम मीना कुमारी लिखो. बड़ी मुश्किल से मीना ने अमृत की अभिलाषा पूरी की और अपने हस्ताक्षर किए. जब हम वहां से रुखसत होने लगे तो उसने बताया कि वह हमें पुलिस का आदमी समझा था. यह अमृत लाल और कोई नहीं, उस जमाने का एक कुख्यात डाकू था.

डाकू भी थे मीना कुमारी के फैन

उस इंटरव्यू में कमाल साहब शूटिंग में सालों के अंतराल के चलते पहले और बाद की मीना कुमारी में फर्क दिखने के अंदेशों को भी साफ करते हैं. वे कहते हैं, ''फिल्म में आपको दो नहीं एक ही मीना कुमारी नजर आएगी. लोग ही नहीं, मीना कुमारी का खुद का ख्याल है कि दूसरी मीना पहले से कहीं ज्यादा हसीन है.

खैर, आज रेडियो और टीवी चैनलों पर गुलाम मोहम्मद के कमाल के संगीत और लता की तराशी आवाज में 'इन्हीं लोगों ने...फिर हवा में गूंजेगा. मुमकिन है, दो कब्रों में थोड़ी हलचल हो और चंदन (मीना कुमारी कमाल अमरोही को इसी नाम से बुलाती थीं) की रूह कुछ यूं कहें: 'देखा मंजू (मीना को दिया उनका नाम), मैंने कहा था ना!...

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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