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Updated: 23 जुलाई, 2016 07:22 PM
प्रीति 'अज्ञात'
प्रीति 'अज्ञात'
  @preetiagyaatj
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"दूसरों के प्रति वैसा ही व्यवहार करो जैसा आप अपने प्रति चाहते हैं." यह एक आदर्शवादी वक्तव्य है, जिसका आज के समाज में कोई मूल्य नहीं रहा. कम-से-कम भारतीय राजनीति के सर्वाधिक छीछालेदर वाले युग में तो ऐसे कथन हास्यास्पद ही प्रतीत होते हैं. जिस गोलाकार गुंबद के भीतर बैठकर, एक बेहतर समाज की नींव गढ़ी जाने जाने की बात होनी चाहिए वहां स्वयं को ही अच्छा स्थापित कर पाना दूभर हो रहा है. समाज का क्या होगा, खुदा जाने! आई मीन, सारे ही गॉड जानें. देखी स्मार्टनेस, हमने अपनी सेकुलरिज्म तुरंत साबित कर दी न!

कोई सो रहा है, कोई वीडियो बना रहा, कोई चीख-चीखकर अपनी बात की सत्यता सिद्ध करने में जुटा हुआ, किसी ने काग़ज के परखच्चे उड़ा सबके सामने जहाज वाले जादू-करतब दिखाए, तो कोई कुर्सियां उठा अपने शक्ति प्रदर्शन में जुटा हुआ, कहीं किसी कोने में जोरों की जूतमपैजार चल रही तो कोई हाथ पर हाथ धरे 'चुपचाप आसन' में मुस्किया रहा. ये किसी प्लेग्रुप क्लास का विहंगम दृश्य नहीं, 'Welcome to the golden era of indian politics!'

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 'Welcome to the golden era of indian politics!'

आप धक्का दो, वो मुक्का देंगे! आप मारने की धमकी दो, वो बन्दूक तान देंगे! आप गाली देकर अपनी सभ्यता के विशिष्ट शब्दकोष का घिनौना सैंपल दिखाएं, वो आपके पूरे खानदान को ही गालियों से गाड़ देंगे. गाली के बदले गाली, अपमान का महाअपमान, सारी मर्यादाओं को ताक पर रख एक-दूसरे पर घृणित कटाक्ष, उपहास, पलटवार.....कमोबेश हर राजनीतिक दल इन्हीं गुणों से लैस है.

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हम जैसे निठल्ले, नाकारा, बुड़बक तो बस टूथपेस्ट को ही दबाते-पिचकाते खुश होते आये हैं पर कही, सुनी, लिखी हर बात को तोड़मरोड़, मरहूम नींबू-सा निचोड़, आख़िरी दम तक, उसका कितना और कितनी दुष्टताई से इस्तेमाल किया जा सकता है; ये आप इन सभी वर्गों के (सॉरी, यहां कोई आरक्षण नहीं है) आदरणीय गुरुजनों और गुरुआइनों से सीखिये. दिक्कत बस ये चुनने में होगी कि 'सीन ऑफ द ईयर' के खिताब से किसे सम्मानित किया जाए.

हाथ जोड़कर मांगी गई माफ़ी से अच्छे-अच्छों के दिल भी पसीज जाते हैं, पर काहे? हम काहे मांगें? इस बात का अहं, दो मिनट में सुलझ जाने वाले किस्से को अंतर्राष्ट्रीय खबर बनाकर ही चैन पाता है. राष्ट्र सत्य और असत्य के ख़ेमे में बँट जाता है और फिर उखाड़े गए किस्सों का एक अंतहीन दौर प्रारम्भ हो जाता है. एक्चुअली में ये समाप्त नहीं होता, बस अगले मिलते-जुलते किस्से के आते ही ये चमचमाता सूरज नई लुढकती राई से बने नए पहाड़ की पीठ के पीछे दुबक ठहाके लगाने लगता है. ठीक वैसे ही जैसे कोई शैतान बच्चा, अपनी ताबड़तोड़ पिटाई के बाद टीचर को उम्मीद भरी नजरों से देखे कि वो बाकी बच्चों पर भी ऐसी ही कृपादृष्टि का सावन कब बरसायेगीं.

मुझे तो राजनीति और क्रिकेट में जबरदस्त समानता लगती है. दोनों की ही टीमें तय होने तक सब संभावित सदस्यों को धुकधुकी-सी लगी रहती है, हाय अल्ला.. हम छूट न जाएं. दोनों में ही कोच बदल सकते हैं और हर बार उनसे बनाके रखने में कठिन परिश्रम करना पड़ता है. पहली ही गलती से बाहर हो जाने का अंदेशा भी दोनों में ही है. अपनी जमीन पर दोनों अच्छा परफॉर्मेंस देते है. पैसा भी दोनों में टनाटन है. एक में मिलता है और दूसरे में बना लेते हैं. ही ही ही और दोनों में ही छक्का लगाने के चक्कर में आउट भी हो जाते हैं. दोनों में नेम और फेम है पर दोनों ही क़िस्मत के गेम हैं.

उपरोक्त गुणधर्मों के आधार पर ही, भयानक चिंतन करते हुए और अपनी इतनी शानदार टाइप प्रतिभा के होते हुए भी हमने इन दोनों क्षेत्रों में अपना पाँच नंबर वाला 'सेनोरिटा क़दम' नहीं रखा. इसका दुःख हमें सदियों तक सालता रहेगा. ख़ैर, हम तो फुटेली क़िस्मत लेकर ही पैदा हुए. चार और शून्य के आगे पहुँच गई ज़िंदगी में सिर्फ़ एक बार बेईमान लक ने साथ दिया, वो भी कुछ इस तरह कि न ही बताऊँ तो अच्छा! पर बताकर तो रहूंगी....

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सन् 1999-2000 की बात है, जब हम विज्ञापनों की मायावी दुनिया में मुग्ध रहा करते थे. उन्हीं दिनों, एक बार, कसम से पहली ही बार, पेप्सी के ढक्कन के नीचे ईनाम का नाम छिपा था. ओह्ह्ह, कितनी उम्मीदों से उसे दो रुपये के नए वाले सिक्के से इतने प्यार से हौले-हौले घिसा था. मन बल्लियों उछल रहा था, खरीदने के सामान की पूरी सूची आँखों में भरत नाट्यम की सारी मुद्रायें लिए बावली हुई जा रही थी कि अचानक ढक्कन पर ईनाम उभर आया. उफ़्फ़ हम स्वयं पर और अपने लालच पर इस कदर शर्मसार कभी न हुए थे. जानना चाहेंगे, क्या मिला था? कैसे कहें आपसे कि वो मुई हरी, छरहरी खुश्बूदार, एंटीसेप्टिक क्रीम 'बोरोलीन' थी. तब से आज तक ज़ख्मों पर लगाए जा रहे हैं. घाव भरता नहीं कि ज़ालिम दुनिया फिर से नमक छिड़क देती है. रोना आ रहा है अब तो, वो भी बुक्का फाड़ के वाला!

इश्श....आपकी बातों के चक्कर में राजनीति का नया मंतर बताना तो भूल ही गए. ई लो भैया, समझ लो, है तो वोई बात; बस जरा दिल्ली शहर में घाघरे-सी घूम गई है - "दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करो, जैसा वो आपके साथ करते आ रहे हैं."

नारायण-नारायण!

लेखक

प्रीति 'अज्ञात' प्रीति 'अज्ञात' @preetiagyaatj

लेखिका समसामयिक विषयों पर टिप्‍पणी करती हैं. उनकी दो किताबें 'मध्यांतर' और 'दोपहर की धूप में' प्रकाशित हो चुकी हैं.

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