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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 02 फरवरी, 2023 02:53 PM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
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नरेंद्र मोदी के सामने विपक्ष का ताकतवर चेहरा बनने के लिए राहुल गांधी की मैराथन भारत जोड़ो यात्रा पर पानी फिर चुका है. राहुल गांधी की मेहनत पर पानी भले किन्हीं और वजहों से फिरा हो या नहीं, मगर समाजवादी पार्टी के सर्वेसर्वा अखिलेश यादव और देश के 99.99 प्रतिशत बेईमान पत्रकारों के अलावा जो ईमानदार मगर बेरोजगार हो चुके पत्रकार हैं- उनके निष्कर्ष से तो यही लगता है. कोई अब शाहरुख में एक निडर, राष्ट्रवादी, प्रतिभाशाली पत्रकार की छवि देख रहा है. कोई एक प्रतिभाशाली विपक्षी नेता की सूरत भी देख रहा- एक ऐसा चेहरा जो 9 साल में हर लिहाज से बर्बाद हो चुके देश की तकदीर बदल सकता है.

पठान की कमाई किसी को क्या ही बताना. वह बिना बताए पठान की एडवांस बुकिंग शुरू होने से हफ़्तों पहले ही आने लगे थे. यहां तक कि जब ट्रेलर नहीं आया था- और जब जर्मनी में शाहरुख की पहली फिल्म के लिए इतिहास में पहली बार वहां रिकॉर्डतोड़ बुकिंग हुई थी- तभी आने लगे थे. पठान ने जर्मनी के रूप में एक बड़ा क्षेत्र बॉलीवुड के झोली में डाल दिया है. जर्मनी और भारत के बीच पठान के जरिए एक 'इंसानी कनेक्शन' तो बन चुका है. किसी का बने या ना बने- मगर शाहरुख के किए जर्मनी में अपार संभावनाएं दिख रही हैं. उनकी "जवान" को आगे स्वीडन, स्पेन और फ्रांस में भी देखा जाएगा. यह भरोसा है. बॉलीवुड फिल्मों के लिए यूरोप में स्वर्णकाल बस आने ही वाला है. आप चेक करिए कि पठान जैसी इंटरनेशनल कहानियां हैं क्या आपके पास 'दुनिया' को दिखाने के लिए.

बावजूद अगर कोई पठान के आंकड़े गिनना ही चाहता है तो वह रिलीज के बाद हर दिन के हिसाब से आंख मूंदकर 100-150 करोड़ जोड़ ले. दावा है कि वह गलत नहीं होगा. और यह बहुत खुशी की बात है कि आखिरकार निगेटिव लोगों के बायकॉट कैम्पेन की वजह से शाहरुख ने 57 साल की उम्र में करियर की सबसे बड़ी फिल्म दे ही दी और सारे रिकॉर्ड तोड़ ही डाले. उन्हें कोई नहीं चिढ़ाएगा. आखिरी लम्हों में 8 साल में सारे फ्लॉप के हिसाब बराबर कर लिए हैं उन्होंने. जबकि इससे पहले 2015 से वे हर बार कमबैक का प्रयास करते रहे, मगर दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पाया. और यहां तक कि जब वे करियर के पीक पर थे- तब भी नहीं दिखा- शाहरुख खान की तीन फिल्मों ने 200 करोड़ से ज्यादा कमाए हों. अब तीन हैं.

SRK pathaanराहुल गांधी, अखिलेश यादव और शाहरुख खान.

अडानी मामले में शाहरुख कुछ करते क्यों नहीं, अब उन्हीं में सकारात्मकता बची है  

तो जो एक प्रतिशत वाले कुछ ईमानदार पत्रकार हैं ( ईमानदार पत्रकार बहुत दुर्लभ हैं) उन्होंने पठान की कामयाबी के पीछे आने वाले तमाम अच्छे दिनों को सूंघ लिया है. उन्हें पता है कि यह पठान और उसका फ़ॉर्मूला ही है जो ठोक पीटकर मूर्खों की जमात वाले एक निगेटिव देश को पॉजिटिव बना सकता है. यह सिर्फ पठान के बूते का है. क्योंकि पठान में विचार की स्पष्टता है और यह एक फूलप्रूफ योजना भी है. संसाधन है. नैरेटिव है और राजनीतिक यारबाजियां हैं. वर्ना तो आमिर खान कितना भी बुरे कहें जाए, एक्टिंग के मामले में उनका हाथ पकड़ने वाला बॉलीवुड का कोई समकक्ष अभिनेता आसपास भी नहीं दिखता. बॉलीवुड की पॉपुलर धारा में कम से कम यह है. शाहरुख तो दूर-दूर तक नहीं दिखते. बावजूद आमिर पॉजिटिव नहीं थे. और इसलिए कि उनकी शाहरुख जैसी दुनिया ही नहीं थी. वर्ना तो पठान जिस तरह कश्मीर, हैदराबाद, कोलकाता, पश्चिम उत्तर प्रदेश, लखनऊ, जामनगर, पुरानी दिल्ली, गाजियाबाद, भिवंडी नवी मुंबई, औरंगाबाद, अहमदाबाद आदि जगहों में देखी गई- आमिर की लाल सिंह चड्ढा से कोई ऐतराज क्यों करता?

और कम से कम कश्मीर में तो नहीं किया जाना था. उस आमिर की फिल्म से ऐतराज- जिसने एक आम कश्मीरी लड़की जायरा वसीम को खोजकर सिनेमा का बड़ा चेहरा बना दियाया. बावजूद कश्मीर में आमिर-जायरा की दंगल हो या फिर सीक्रेट सुपरस्टार- पठान की तरह नहीं देखी गई जिसमें जायरा ही कहानी का हीरो हैं. दुर्भाग्य से जायरा ने मजहब में निषेध की गई सिनेमा की बेहूदगी को लेकर फिल्मों को टाटा बोल दिया और आजकल वह प्यारी लड़की पता नहीं क्या कर रही है? मगर जायरा के कश्मीर ने पठान के बेशरम रंग को बेहूदा नहीं माना. साफ़ है कि जो काम भारत सरकार नहीं कर पाई- अकेले पठान ने कर दिखाया. कश्मीर बदल गया है और निश्चित ही पठान को भी इसका बड़ा श्रेय दिया जाना चाहिए.

देश की हालत खराब है. कुछ कारोबारी भारत को लूट रहे हैं. तिरंगा के नाम पर लूट रहे हैं. भारत में जितना 0.1 प्रतिशत ईमानदार पत्रकार परेशान हैं उतना ही परेशान ईमानदार विपक्षी नेता हैं जिनकी संख्या वास्तव में 0.1 की बजाए 99.99 प्रतिशत से कुछ कम नहीं होगी. भारत को लेकर चिंताएं विदेश में भी हैं. लेकिन 'जय हिंद' बोलने वाले पठान ने सबको उम्मीद की किरण दिखाई है. ईमानदार पत्रकारों को लग रहा कि अब पठान को कुछ बड़ा करना चाहिए. एक वही हैं जो बेईमानों का भंडा फोड़ सकता है. इसी मकसद से ईमानदार पत्रकारों के बड़े महामंडलेश्वर ने पठान से अनुरोध किया है कि वह हिंडनबर्ग-अडानी मामले के लिए भारत लौटे. पठान में एक अच्छे पत्रकार की भूमिका तलाशी जा रही है और उसे अडानियों का इंटरव्यू करने और उन्हें बेनकाब करने को कहा जा रहा है. लेकिन ईमानदार पत्रकार पठान और मोदी में एक गठजोड़ भी देख रहे हैं. यह थोड़ा सा हैरान करने वाला विषय है. अब पत्रकार तो एक सवाल आगे रखकर ही जवाब देगा ना जो देना चाहता है. वर्ना तो बेमतलब वस्तुनिष्ठता पर सवाल उठाए जाएंगे. पुरस्कारों का दबाव एक अलग किस्म का सिरदर्द है.

शाहरुख खान यानी पठान- एक डार्लिंग जादूगर हैं

टॉप पांच में आने की वजह से ईमानदार पत्रकार को लगता है कि अडानी ने भारत को लूटा था. लेकिन दुनिया के टॉप 5 एक्टर्स में शाहरुख के होने पर वह सवाल नहीं करता. उसे लगता है कि शाहरुख ने तो मेहनत ही की होगी. ईमान का सवाल जो ठहरा. उन्हें फिल्मों की फीस 100 करोड़ मिलती है. बावजूद कि 2005 से पहले किसी को 100 करोड़ की फीस मिलते नहीं दिखा बॉलीवुड में किसी को. कुछ ईमानदार पत्रकार कहते हैं कि वह तो विज्ञापनों से कमाता है? अब पूछा जाए कि भैया विज्ञापन से पैसा कौन कमाता है? वह कमाता है जिसकी ब्रांड होती है. कोई ब्रांड कैसे बनता है? यह किसी सितारे के स्टारडम से तय होता है. स्टारडम कहां से हासिल होता है? जब फ़िल्में टिकट खिड़की पर पैसा कमाती हैं? फिर तो शाहरुख की बजाए यश, रामचरण, प्रभास, जूनियर एनटीआर, आमिर और सलमान खान आदि को अनिवार्य रूप से दुनिया के सबसे अमीर अभिनेताओं की लिस्ट में होना चाहिए. कुछ कह रहे कि शाहरुख का बिजनेस है. बावजूद कि क्रिकेट की फ्रेंचाइजी और प्रोडक्शन हाउस जैसे बिजनेस अभी कुछ साल पहले के हैं. और दूसरे अभिनेताओं के बिजनेस भी कुछ कम थोड़े हैं. कौन सा मैनेजमेंट है भाई?

पत्रकारों ने कुर्सी की पेटी बांधकर जिस तरह पठान को 'साइलेंट रिबेलियन' बताया- उससे यह भी साफ़ होता है कि नरेंद्र मोदी की तानाशाही से यह पठान ही निजात दिला सकता है. पठान की पिक्चर में आखिरकार बहुत देर से अखिलेश यादव की भी एंट्री हुई. मगर दुरुस्त एंट्री हुई है. इससे पहले एनसीपी, टीएमसी, कांग्रेस, शिवसेना, बीआरएस, डीएमके, आरजेडी, नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी आदि ने अपने अपने तरह से एंट्री मारी थी. जो बन पड़ा सहयोग किया. मंच दिया. "खरबूजा" इफेक्ट के लिए तमाम फैन क्लब ने प्रयास किए. छोटे-बड़े कारोबारियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपने स्तर से प्रयास किए. सामूहिक प्रयास सही दिशा में हुए और कारगर दिखा. वह सकारात्मकता दिखी जो आमिर, लाल सिंह चड्ढा के लिए नहीं कर पाए. लोगों ने खूब पैसे खर्च किए और पठान मुनाफे में है.

लेकिन अखिलेश ने पठान की सकारात्मकता में एक ऐसी उम्मीद देखी है जो ईमानदार पत्रकार सीधे-सीधे नहीं कह पा रहे हैं. अखिलेश में बिना लाग लपेट कहने की क्षमता है. और वह जरूरत पड़ने पर 'सुसु' जैसे शब्द भी इस्तेमाल कर ले जाते हैं. अखिलेश ने पठान की रिकॉर्डतोड़ सफलता के बाद ट्वीट किया- "पठान का सुपरहिट होना देश और दुनिया में सकारात्मक सोच की जीत है और भाजपाई नकारात्मक राजनीति को जनता का करारा जवाब." असल में विपक्ष ने भले बॉलीवुड की तमाम फिल्मों पर गौर ना किया हो, मगर पठान को मोदी बनाम शाहरुख के रूप में जरूर देखा. और कारोबारी आंकड़ों में उसका नतीजा बेहतर निकल कर आया. आंकड़े संदिग्ध हो सकते हैं मगर खेल अगर आंकड़ा का ही है तो आंकड़ा ही सही.

इससे तो यही साबित हो रहा कि पिछले नौ साल में मोदी राजनीति के खिलाफ विपक्ष का एकजुट प्रयास जो नहीं कर पाया वह अकेले शाहरुख ने बैठे बैठे कर दिखाया. कुर्सी की पेटी बांधकर. यहां तक कि अखिलेश भी अपने नेतृत्व में अब तक चार बड़े चुनाव बुरी तरह हार चुके हैं. तमाम निष्कर्षों से यह साफ़ है कि विपक्षी नेताओं की तुलना में शाहरुख का जनता पर ज्यादा असर है. शाहरुख ही वह चेहरा हैं- विपक्ष नौ साल में जिसका इंतज़ार कर रहा था. राहुल गांधी भले निराश हों, लेकिन यह सच्चाई है कि फिलहाल पठान जैसा चेहरा ही है जो सबको एक छतरी के नीचे ला सकते हैं. कोलकाता में ममता बनर्जी के मंच से पठान की रिलीज से पहले उन्होंने इंकलाब भी किया कि हम जैसे पॉजिटिव लोग जिंदा हैं.

विपक्ष मोदी के खिलाफ एक योग्य चेहरा खोज रहा है. ऐसे में शाहरुख उसके लिए बेहतरीन विकल्प हैं. अखिलेश को अपनी इस योजना पर काम शुरू कर देना चाहिए. उनके नाम पर शायद ही कोई ऐतराज करे. पठान ने मन बना लिया तो हिम्मत नहीं है किसी में. और यह भी कि जिस तरह उन्होंने पठान के मामले में मोदी को पटखनी दी है- मुझे लगता है कि 2024 में एक वही करिश्माई चेहरा हैं जो मोदी के अश्वमेघ को अकेले रोक सकते हैं. बेशक इसका फायदा अखिलेश को भी मिलेगा और वे योगी आदित्यनाथ को भी गोरखधाम वापस भेज सकते हैं. चाहें तो मुख्यमंत्री निवास में सैफई की माटी छींटकर, गंगाजल से घर धोने के 'अपमान' का बदला भी पूरा कर सकते हैं. भूमिपुत्र अखिलेश की नजर में सैफई और इटावा गंगाजल से कम थोड़े है. और इस बहाने राहुल गांधी और उनका काडर जो अखिलेश को भाजपा की बी टीम बता रहा है- उसका भी जवाब जनता को मिल जाएगा.

राजनीति में ऐसा हो सकता है. दक्षिण के सिनेमा ने देश को कद्दावर नेता दिए, मुख्यमंत्री दिया. बॉलीवुड भी अपने दायरे के हिसाब से पीएम देने लायक तो है ही.

"समाजवाद बबुआ इहि रस्ते आई. जय समाजवाद."

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लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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