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Updated: 08 फरवरी, 2019 10:25 PM
हिमांशु सिंह
हिमांशु सिंह
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निरहू भइया गांव-जवार के अरहर और गन्ना मूलक कर्मप्रधान प्रेम के विशेषज्ञ थे. कुख्यात थे. कहते थे, 'बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा?' जिन्दगी का अच्छा खासा समय इस स्किल को डेवेलप करने में लगाया था. 100 मीटर दूर से जाती हुई लड़की को पहचान जाते थे. एकदम देसी कैसानोवा थे. लेकिन एक बार बात थाना-पुलिस तक पहुंच गयी थी तो घरवालों ने उनको दिल्ली भेज दिया. मुझसे चार साल बड़े हैं, तो गांव की परंपरा के अनुरूप मिलने पर ज्ञान देने पर आमादा रहते हैं. आमादा हों भी क्यों न? जिन्दगी की पहली 'मस्तराम' मुझे उन्होंने ही पढ़वाई थी, "कि जे ल्ल्यो लल्ला, जे है असिल ज्ञान... सारी दुनिया यही मा है."

बासठ तक की गिनती गिनना भी मुझे उन्होंने ही सिखाया था. तो कायदे में  ऐसे गुरुतुल्य बड़े भाई की चेलाही मुझे निर्विरोध स्वीकार कर लेनी चाहिये थी. पर अब चूंकि चार किताबें पढ़कर मेरा दिमाग खराब हो गया है, तो मैं अब कभी-कभी उनकी बात काटने लगा हूं. वो तिलमिला उठते हैं. पर इस बड़े शहर में जहां बिना लाभ एक आदमी दूसरे की शकल देखना पसंद नहीं करता, मैं उनका इकलौता नि:शुल्क चरणस्पर्शक हूं. तो वो मन ही मन खीझकर रह जाते हैं.

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खैर, उम्र का बत्तीसवां बसंत देख रहे हैं वो, और शहर में उनकी 'स्किल' काम नहीं आ रही. कल भावुक होकर बोले, " गांव ही ठीक था अपना, इशारों-इशारों में बात बन जाती थी. सभी को पता था कि बियाह तो बाप ही तय करेंगे. कांसेप्ट क्लियर था- 'न इसके न उसके लिये दिये खिसके.' लेकिन इहां लड़की लोग के अलग ही नखरे हैं. फूल चाहिये ई सब को. सुन रहो हो ननकऊ. सोचो चार लोग क्या कहेंगे? और ये जो मूंछ-दाढ़ी मुंड़ाने का फैसन चल गया है. साला गज़ब डेरिंग चाहिये मूंछ-दाढ़ी मुंड़ाकर बीच बाजार टहलने में भी. खैर, जानते हो मुन्ना, कल हम सोचे कि साला दे ही देते हैं फूल भी कौनो को. अब देबी मां को खुस करना है तो फूल-पत्ती तो चढ़ाना ही पड़ेगा न? खुश हो गईं तो क्या पता अशिर्बाद दे ही दें."

भइया ये कहते हुए ठहाका मार कर हंसे और खैनी थूकने बाहर चले गये. लौट कर आये तो फिर बोले, "इज्जत देंगे, तभी न इज्जत मिलेगी!" और फिर खिस्स से हंस दिये वो. पर अब मेरी उनसे संवाद की इच्छा मर गयी थी. मैंने सीधा पूछा," त भइया कुछ बात बनी?" और सवाल सुनते ही उनकी मूछें जो दस बजकर दस मिनट बजा रहीं थीं, सीधा सात-पच्चीस बजाने लगीं.

बोले, "कहां यार! हम तो रुम से सुबह-सुबह ही निकल गये थे. मटका सिल्क की कमीज, कोबरा का सेंट, सफेदकी जीन्स, और सफेदका जूता भी पहिने थे. गुलाब भी हनुमान मंदिर पर चढ़ाकर कमीज की जेब में रख लिये थे. साला सहजादा सलीम बन कर दिन भर घूम डाले, कोई हमसे गुलाब नहीं ली. जगहंसाई हुई सो अलग. ये कहते-कहते उनका गला भर आया. लगा अभी रो देंगे. उनकी दशा कुछ-कुछ किसी कंगाल ऐय्याश या दार्शनिक सिपाही जैसी हो गयी थी.

मैंने मन ही मन सोचा, अब इनको उचित सलाह देकर इनकी गुरूदक्षिणा चुकाने का सही समय आ चुका है. मैंने कहा, "अब रोज़ डे जा चुका है. प्रपोज़ डे अगला पड़ाव है. और बात दरअसल बात करने से बनती है. फूल लेकर टहलना आउटडेटेड काम है. कन्या से बात करो, दो-चार दिन चाय-पानी करो साथ में, और फिर किसी दिन मौका देखकर एक घुटना मोड़कर आगे बैठ जाना है और लभ यू बोल देना है." हिदायत भी दी कि ये अन्तिम हरकत अकेले में करें.

निरहू भाई को देखकर लगा जैसे डूबते को तिनके का सहारा मिल गया हो. फिर से लगा अभी रो देंगे. खैर जाते-जाते मुझे ननकऊ की जगह हिमांशु भाई बोला. छाती चौड़ा हो गया हमारा. उम्मीद थी आज सफलता उनके चूम लेगी, पर आकर उन्होंने जो बताया, मेरी रूह कांप गयी. कांपती जुबान से कहने लगे बजरंग दल वाले मिल गये थे. इसके आगे वो कुछ नहीं कह पाये, फफककर रोने लगे. मैं भी शून्य में देखने लगा.

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हिमांशु सिंह हिमांशु सिंह @100000682426551

लेखक समसामयिक मुद्दों पर लिखते हैं

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