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Updated: 04 नवम्बर, 2016 09:48 PM
विवेक शुक्ला
विवेक शुक्ला
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मुंबई के फोर्ट इलाके में टाटा समूह के मुख्यालय में चार महीने के भीतर सायरस मिस्त्री के स्थान पर नया चेयरमेन आ जाएगा. उसे इस आइकॉनिक इमारत की पहली मंजिल के उसी कक्ष में बैठना होगा जिधर से कभी जेआरडी टाटा अपने समूह का मार्गदर्शन करते थे. तो आईटी सेक्टर से लेकर ट्रक का निर्माण करने वाले टाटा समूह का चेयरमैन किन-किन गुणों से लबरेज हो?

कहते हैं, माइक्रोसाफ्ट के संस्थापक चेयरमेन बिल गेट्स ने हैदराबाद में जन्में सत्या नाडेला को अपना सीईओ इसलिए नियुक्त किया क्योंकि उनमें इंजीनियरिंग कौशल, व्यापारिक दूरदर्शिता और विभिन्न देशों के पेशेवरों को एक साथ लाने की काबिलियत कमाल की है. जाहिर है, सायरस का उतराधिकारी उसे ही बनाया जाएगा जिसमें ये सारे गुण होंगे. मुमकिन है कि मिस्त्री में ये सारे गुण नहीं होंगे.

तब ही तो उन्हें 100 अरब डॉलर से अधिक की मार्केट कैप वाले टाटा समूह के शिखर पद से हाथ धोना पड़ा.

फिलहाल मिस्त्री की जगह रतन टाटा को चार महीने के लिये अंतरिम चेयरमैन के लिए अपने समूह को देखना होगा. इस दौरान मिस्त्री के उत्तराधिकारी की तलाश होगी. जाहिर है,मिस्त्री को इसलिए अचानक से बाहर किया गया क्योंकि वे बिल्कुल नकारा साबित हुए. वे उस समूह को नई बुलंदियों पर ले जाने के लिए दिशा देने में  नाकामयाब रहे जिसे जमशेद टाटा ने स्थापित किया था और जे.आर.डी.टाटा ने सींचा था.

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जो भी कहिए, टाटा समूह के नए बॉस को नई जान फूंकने के लिए तगड़ी मशक्कत करनी होगी. टाटा समूह की तमाम कंपनियों पर नजर डाली जाए तो आप पाएंगे कि आईटी सेक्टर की टाटा कंसलटेंसी सर्विसेज (टीसीएस) को छोड़कर  बाकी कंपनियों कतई उल्लेखनीय प्रदर्शन नहीं कर रहीं.

टाटा स्टील को सज्जन जिंदल की जेएसडब्ल्यू उत्पादन के स्तर पर पीछे छोड़ चुकी है. टाटा मोटर्स की कारों को भारत के तेज रफ्तार से बढ़ते कार बाजार में पूछने वाला भी कोई नहीं है. यही हालत ताज होटल्स का है.  आईटीसी और ओबराय के होटल्स के सामने ये कहीं तीसरे स्थान को बनाए रखने की लड़ाई लड़ रहे हैं.

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 उम्मीद पर खरे नहीं उतरे साइरस!

बड़ा सवाल ये है कि सायरस मिस्त्री को चेयरमैन पद क्यों मिला था? सच्ची बात ये है कि उनकी शिखर पद पर नियुक्ति के समय मेरिट की अनदेखी हुई. सायरस मिस्त्री शिक्षित थे. कॉरपोरेट की दुनिया का ठीक-ठाक अनुभव भी था. पर, उन्हें टाटा समूह के मुंबई स्थित हेड आफिस बाम्बे हाउस के चेयरमैन रूम में बैठने का सौभाग्य इसलिए मिला क्योंकि उऩके पिता पलनजी मिस्त्री के टाटा समूह की होल्डिंग कंपनी टाटा संस में 18.5 फीसद शेयर थे. वे सबसे बड़े शेयरहोल्डर हैं. रतन टाटा के चेयरमैन पद से मुक्त होने के बाद उनके स्थान पर टाटा टीसीएएस के पूर्व चेयरमेन एस.रामादोराई या वर्तमान प्रमुख एस.चंद्रशेखर चेयरमेन बन सकते थे. इन दोनों को इस बात का क्रेडिट जाता है कि इन्होंने टीसीएस को ना केवल भारत, बल्कि दुनिया की सबसे बड़ी आईटी कंपनियों में से एक के रूप में खड़ा किया. ये मार्केट कैप के स्तर पर देश की किसी भी कंपनी से बड़ी है.

चूके टाटा

रतन टाटा के लगभग दो दशकों के नेतृत्व से टाटा समूह को नई उर्जा और पहचान मिली. पर, अफसोस वे  नजीर बनाने से चूक गए. उनके पास मौका था कि वे दूसरों के लिए उदाहरण पेश करते. पर वे परिवारवाद से ऊपर नहीं उठ सके. सायरस मिस्त्री के पिता की हैसियत के चलते उन्होंने सायरस को टाटा समूह का चेयरमेन बनवा दिया. यानी मेरिट की अनदेखी हुई. रतन टाटा के उतराधिकारी को लेकर कयास लग रहे थे, तब रतन टाटा ने खुद कहा था उनका उत्तराधिकारी विदेशी भी हो सकता है और यहां तक कि महिला भी. पर अफसोस वे अपने इरादे को हकीकत में नहीं बदल सके. बिल गेटस ने सत्या नडेला को अपना नया सीईओ नियुक्त करके भारत के कॉरपोरेट संसार को एक बड़ा संदेश दे दिया था. संदेश साफ था कि मेरिट से बढ़कर कुछ नहीं हो सकता. बिल गेट्स ने सीईओ के ओहदे पर अपने किसी परिवार के सदस्य को नहीं नियुक्त किया. उन्हें सत्या में मेरिट दिखी, तो उन्हें सौंप दी गई इतनी अहम जिम्मेदारी. बेशक, अब कुछ भारतीय कंपनियों के शिखर पर भी विदेशी या परिवार से बाहर के पेशेवर सीईओ आने लगे हैं.

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दरअसल कॉरपोरेट इंडिया को परिवारवाद के शिकंजे से निकलना होगा. रतन टाटा के अलावा इंफोसिस के  संस्थापक चेयरमेन एन.नारायणमूर्ति भी परिवारवाद से नहीं निकल पाए थे. उनका सारा कॉरपोरेट संसार सम्मान करता रहा है. कॉरपोरेट जगत के लिए जब वे बोलते हैं तो उनकी कोई अनदेखी नहीं कर सकता. उसे ठीक से सुना जाता है. नारायणमूर्ति के कुशल नेतृत्व गुणों के चलते ही इंफोसिस आईटी सेक्टर की शिखर कंपनी बनी. वे कॉरपोरेट दुनिया के कॉन्शियन्स कीपिर के रूप में उभरे हैं. गर्वनेंस से लेकर देश के विकास के मॉडल जैसे सवालों पर उऩके पास देश के नेताओं के लिए सुझाव हैं. वे सेमिनार सर्किट के तो लंबे समय से सदस्य हैं. पर, इंफोसिस से रिटायर होने के बाद उऩका अपने पुत्र के साथ फिऱ से इंफोसिस से जुड़ने के फैसले से वे तमाम लोग कहीं न कहीं निराश जरूर हुए थे, जो उन्हें आदर्श के रूप में देखते थे. सायरस की तरह रोहन में भी कोई कमी नहीं थी. वे हारवर्ड से पीएचडी हैं. अगर वे इंफोसिस से इतर कहीं और शिखर पर जाते तो कोई दिक्कत नहीं होती. बेशक, उनका इंफोसिस में एक्जीक्यूटिव असिस्टेंट से देखते-देखते वाइस प्रेसिडेंट बनना नैतिकता के स्तर पर तो सवाल खड़े करता था. क्या अब नारायणमूर्ति को राजनीति में परिवारवाद की बीमारी पर हल्ला बोल सकेंगे?

क्या सत्या की तरह से इंदिरा नूई (पेप्सीको), अंशु जैन (ड्यूश बैंक) शांतनु नारायण (एडोब सिस्टम्स), फ्रांसिस्को डिसूजा (काग्निजेंट), अजय बंगा (मास्टर कार्ड) संजय झा( ग्लोबल फाउन्ड्रीज) वगैरह ने सपने में भी सोचा होगा कि ये सीईओ बनेंगे? बेशक नहीं. पर हमारे विपरीत अमेरिका और पश्चिम के देश मेरिट को परिवार से ज्यादा अहमियत देते हैं. इसलिए ही ये शिखर पर पहुंचे. सैकड़ों दूसरे भारतीय पेशेवरों को इसी रूप में देखने की जरूरत है. सिलिकॉन वैली हिन्दुस्तानी पेशेवरों से अटी हुई है.

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 भारतीय कंपनियों को अपनी सोच बदलने की जरूरत

बदले सोच

अगर टाटा और दूसरी भारतीय कंपनियों को विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनानी है, तो उन्हें परिवारवाद से ऊपर उठकर अहम पदों पर पेशेवरों को रखना होगा. अब जरा जापान की प्रतिष्ठित कंपनी सोनी को लीजिए. उसका मैनेजमेंट अमेरिका के स्टिंगर वेल्समेन को अपना सीईओ नियुक्त करने में न संकोच करता है, न ठिठकता है. 

दरअसल, भारत के हवाले से देखा जाए तो यहां पर हरेक कंपनी के लिए अपना सक्सेशन प्लान तैयार करना सबसे कठिन होता है. ये कहीं न कहीं भूल जाती हैं कि सक्सेशन प्लान बनाते वक्त मेरिट सर्वोपरि हो.

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पर अफसोस कम से कम भारत में यह नहीं होता. क्योंकि मेरिट पर भारी पड़ने लगता है परिवार. इसके चलते कंपनी की ग्रोथ अवरुद्ध होती है. यहीं नहीं, ग्रोथ अवरुद्ध होने से कंपनी के शेयर धारकों के हितों पर तगड़ी चोट पहुंचती हैं.

कायदे से देखा जाए तो किसी भी कंपनी या समूह को अपने सक्शेसन प्लान पर काम करते वक्त यह देखना चाहिए कि जो भविष्य में नेतृत्व करेगा उसके पास प्रशासन, फाइनेंस, कस्टमरों के हितों, सेल्ज और मार्केटिंग की कितनी समझ है.

क्या जब सायरस मिस्त्री को टाटा समूह की कमान सौंपी गई थी तो उनमें उपर्युक्त गुण देखे-पाए गए थे? शायद नहीं. पर अब शायद पुरानी भूल की पुनरावृत्ति न हो.

लेखक

विवेक शुक्ला विवेक शुक्ला @vivek.shukla.1610

लेखक एक पत्रकार हैं.

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