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Updated: 04 नवम्बर, 2017 01:04 PM
मंजीत ठाकुर
मंजीत ठाकुर
  @manjit.thakur
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भाई और बहन के त्योहार के रूप में आपने हमेशा रक्षा बंधन और भैया दूज की मिसालें दी होंगी. रक्षा बंधन को सेकुलर बनाने के लिए उसका संबंध हुमायूं और कर्णावती से भी करवा दिया गया कि राखी भेजकर कर्णावती ने हुमायूं से मदद मांगी थी, लेकिन देश के बाकी हिस्सों में अल्पज्ञात भाई-बहनों के रिश्तों की गरमाहट के एक त्योहार अभी-अभी कार्तिक पूर्णिमा को मनाया गया. इसका नाम है सामा चकेबा. लोक आस्था के कुछ सबसे खूबसूरत त्योहारों में से एक है सामा चकेबा. भाई-बहन के कोमल और प्रगाढ़ रिश्ते को बेहद मासूम अभिव्यक्ति देने वाला यह लोकपर्व समृद्ध मिथिला संस्कृति की पहचान रहा है. इसकी पृष्ठभूमि में कोई पौराणिक कथा नहीं, सदियों से मौखिक परंपरा से चली आ रही एक लोककथा है और उसकी जड़ें जाकर भगवान कृष्ण से जुड़ती हैं.

कृष्ण, पुत्र, बच्चे, पौराणिक कथाएं

श्यामा या सामा कृष्ण की बेटी थीं. उनके पति थे चक्रवाक या चकेबा. साम्ब जिसे मैथिलि में सतभइयां कहा जाता है वह कृष्ण के बेटे और सामा के भाई थे. दोनों में बचपन से असीम स्नेह था. सामा प्रकृति प्रेमी थी जिसका ज्यादा वक्त पक्षियों, वृक्षों और फूल-पत्तों के बीच ही बीतता था. वह अपनी दासी डिहुली के साथ वृंदावन जाकर ऋषियों के बीच खेला करती थी. कृष्ण के एक मंत्री चुरक ने जिसे बाद में, चुगला (चुगलखोर) नाम से जाना गया, सामा के खिलाफ कृष्ण के कान भरने शुरू कर दिए.

उसने सामा पर वृन्दावन के एक तपस्वी के साथ अवैध संबंध का आरोप लगाया. कृष्ण उसकी बातों में आ गए और उन्होंने अपनी बेटी को पक्षी बन जाने का शाप दे दिया. सामा पंछी बन गई वृंदावन के वन-उपवन में रहने लगी. उसके वियोग में उसका पति चकेबा भी पंछी बन गया. उसे इस रूप में देख वहां के साधु-संत भी परिन्दे बन गए. जब सामा के भाई साम्ब को यह सब मालूम पड़ा तो उसने कृष्ण को समझाने की भरसक कोशिश की. कृष्ण नहीं माने तो वह तपस्या पर बैठ गया. अपनी कठिन तपस्या के बल पर अंततः उसने कृष्ण को मनाने में सफलता पाई. प्रसन्न होकर कृष्ण ने वचन दिया कि सामा हर साल कार्तिक के महीने में आठ दिनों के लिए उसके पास आएगी और कार्तिक की पूर्णिमा को पुनः लौट जायेगी. भाई की कोशिश से कार्तिक में सामा और चकेब का मिलन हुआ. उसी दिन के याद में आज भी सामा चकेबा का त्योहार मनाया जाता है.

जरा इस कथा के बारे में सोचिए और गौर कीजिए. आज अगर किसी भाई को पता चल जाये कि उसकी बहन के किसी पर-पुरुष से यौन संबंध है, किसी पति को यह भनक लग जाए तो क्या होगा! उस महिला के साथ क्या सुलूक करेगा समाज? मगर इस कथा के भाई और पति न सिर्फ स्त्री पर भरोसा रखते हैं, बल्कि उसे दोषमुक्त साबित करने के लिए हर तरह का कष्ट उठाते हैं. इसलिए क्या हैरत कि बहनों ने अपने ऐसे भाई के लिए त्योहार मनाना शुरू कर दिया? हर साल वे वे मिट्टी की चिड़िया बनाती हैं, गीत गाते हुए उन्हें रोज खेतों में (वृंदावन में) चराने ले जाती हैं. बहनें चुगलखोर चुगला की दाढ़ी में आग लगा देती हैं और भाइयों से कहती हैं कि मिट्टी की बनी चिड़ियों को तोड़ दें ताकि सामा, उसके पति चक्रवाक (चकेबा) और शापित ऋषि फिर से मानव रूप में आ सकें. सामा-चकेबा को आप पौराणिक त्योहार न भी मानें, फिर भी यह एक लोक-त्योहार है और लोकजीवन से जुड़ा है. इसमें लोकगीतों का इतना अद्भुत इस्तेमाल है कि आप बस गुनगुनाते रह जाएंगे. शारदा सिन्हा की आवाज़ में ‘गाम के अधिकारी’ और ‘सामा खेलै चललि’ वाले गीत काफी लोकप्रिय हैं. इनको य़ू-ट्यूब पर सुनिए और इनकी मधुरता का अंदाजा लगाइए. अक्सर इन्हें लोग गलती से छठ गीत समझ लेते हैं. इस लोकपर्व की मधुरता का सबसे सजीव वर्णन फणीश्वरनाथ रेणु ने अपने उपन्यास परती परिकथा में किया है. जिन्होंने उस प्रकरण को पढ़ा है, वे इस पर्व की मधुरता का अंदाज लगा सकते हैं.

अब इसके पीछे की दो प्रथाओं पर गौर कीजिए, पहली, मूर्तियों को महिलाएं अपने हाथों से मिट्टी से बनाती थीं और उन्हें तालाबों की बजाय खेतों में विसर्जित किया जाता है और नए धान के चूड़े का इस्तेमाल, यानी खेतिहर भारत की परंपरा और पर्यावरण (तालाबों में मूर्ति की गाद न जमा हो) इसका कितना खयाल रखता था अपना भारत!जुते हुए खेतों में मूर्तियों के विसर्जन पर एक गीत गाया जाता हैः

साम-चक साम चक अबिहS हे, अबिहS हे...जोतला खेत मे बैसिहS हे, बैसिहS हे...सब रंग पटिया ओछबिहS हे, ओछबिहS हे...ओहि पटिया पर कय-कय जना, कय-कय जना...छोटे-बड़े नवो जना, नवो जना...नवो जना के खीरे पुरी, खीरे पूरी...साम-चक साम-चक अबिहS हे, अबिहS हे...जोतला खेत मे बैसिहS हे. बैसिहS हे...ढ़ेपा फोड़ि-फोड़़ि खइहS हे, खइहS हे...शीत पी-पी रहिहS हे, आशीष भाई के दीहS हेअगिला साल फेर अबिहS हे इस गीत का अर्थ है सामा और चकेबा आप आना और जुते हुए खेतों में बैठना. आप इंद्रधनुषी चटाई बिछाना, और उसपर नौ लोग बैठें, हर किसी को खीर और पूरी खिलाया जाए. हे सामा-चकेबा जुते हुए खेत में बैठना और मिट्टी के ढेलों को तोड़ देना, ठंड के मौसम में शीत (ओस) को पी जाना और मेरे भाई को दीर्घायु का आशीष देना.

कथा और त्योहार के पीछे के लोकजीवन और परंपरा पर जरा दूसरी निगाह दीजिए, इस आठ दिनों के त्योहार में एक पर्यावरणीय संदेश भी छिपा है. इस आयोजन का एक बड़ा मकसद मिथिला क्षेत्र में आने वाले प्रवासी पक्षियों को सुरक्षा और सम्मान देना भी है.

सर्दियों की शुरुआत होते ही पोखरों के इलाके मिथिला में दुर्लभ नस्लों के परिन्दों का आना शुरू हो जाता है. इन पक्षियों को शिकारियों के हाथों से बचाने, मनुष्य और पक्षियों के बीच के रिश्ते को मजबूती देने के लिए पुरखों ने सामा और चकेवा के धार्मिक और मिथकीय प्रतीक गढ़े. आखिर, जुते हुए खेतों में तो प्रवासी पक्षी ही बैठते हैं.बहरहाल, एकल परिवारों के दौर में यह सामूहिक त्योहार भी क्षीण पड़ने लगा है. रिश्तों में बंधन कुछ वैसे ही ढीले पड़ते जा रहे हैं जैसे, पर्यावरण को लेकर हमारी चिंता और चिंतन.

लेकिन, हम लाख दकियानूसी कह लें, कुछ परंपराओं की जिलाकर रखना हमारी जड़ों को मजबूत करना ही होता है. जड़ो की तरफ लौटना हमेशा बुरा नहीं होता. सामा चकेबा और साम्ब आज भी प्रासंगिक हैं, हर तालाब के सूखते जाने के साथ.

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लेखक

मंजीत ठाकुर मंजीत ठाकुर @manjit.thakur

लेखक इंडिया टुडे मैगजीन में विशेष संवाददाता हैं

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