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Updated: 19 सितम्बर, 2016 04:47 PM
आर.के.सिन्हा
आर.के.सिन्हा
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लखनऊ में बकरीद पर बकरा न काटकर बकरे की आकृति का बना हुआ एक केक काटा गया. यह पहल लखनऊ के राष्ट्रीय मुस्लिम मंच की ओर से हुई. यह सब करने के पीछे इरादा ईद को इको फ्रेंडली तरीके से मनाने के लिए जागरूकता पैदा करने की थी. इको फ्रेंडली यानी ऐसी ईद जिससे हमारा पर्यावरण प्रभावित या प्रदूषित न हो. यानी सृष्टि का नुकसान न हो.

हालांकि, कुछ दक़ियानूसी प्रवृत्ति के लोग कह रहे हैं कि इको ईद का विचार इस्लाम विरोधी है. निश्चित रूप से ईद से लेकर दिवाली और होली आदि त्योहारों को बदलते वक्त को देखते हुए इको फ्रेंडली तरीके से मनाने की आवश्यकता है.

ईद पर कई स्तरों पर मांग हुई कि 'मिट्टी के बकरे' की क़ुर्बानी दी जाए. लाखों बकरों की एकसाथ कुर्बानी वास्तव में पर्यावरण के लिए खतरे की घंटी तो है ही. कुछ सोशल मीडिया के पाकिस्तानी मित्रों ने भी ईद पर पशुओं की अंधाधुंध बलियों की प्रथा का ज़ोरदार विरोध किया. यह छोटी बात नहीं है. पाकिस्तान जैसे घोर कट्टर इस्लामिक मुल्क में पशुओं की कुर्बानी के खिलाफ आख़िरकार कुछ लोग तो खड़े होने ही लगे हैं. इन मित्रों ने फेसबुक पर अपनी वॉल पर दो मासूम से दिखने वाले बकरों की तस्वीर भी लगाई. दोनों बेहद कातर भाव से एक-दूसरे को देख रहे हैं मानो कह रहे हों कि अब तो यह उनकी अंतिम मुलाकात है, इंशाअल्लाह अगले जन्म में मिलेंगें!

बहरहाल सीधी सी बात यह है कि क्या जानवरों की कुर्बानी देने से अल्लाह या ईश्वर ख़ुश होते है? ये प्रश्न सिर्फ मुसलमानों से ही नहीं है. जो हिन्दू जानवरों की बलि देते हैं, अंधविश्वास के चक्कर में पड़कर अपने ईष्ट को प्रसन्न करने के लिए, उनसे भी यही सवाल पूछा जाएगा. उनको भी यही उत्तर देना होगा कि क्या पशुओं की बलि देने से उनके भगवान प्रसन्न होंगे?

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दरअसल, बड़ी संख्या में एक्टिविस्ट जानवरों की कुर्बानी और हत्या के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं. ईद पर जानवरों की कुर्बानी पर बॉलीवुड एक्टर इरफान खान ने भी बीते रमजान माह में रोजा रखने और ईद पर कुर्बानी को लेकर कठोर टिप्पणी की थी. उन्होंने कहा था कि लोग बिना इनका मतलब और इनके पीछे का संदेश जाने चीजों को फॉलो कर रहे हैं. इरफान के मुताबिक, कुर्बानी का असली मतलब अपनी कोई प्यारी सी चीज या किसी बुरी आदत को कुर्बान करना होता है, न कि ईद से दो दिन पहले एक बकरा खरीद लो और उसकी कुर्बानी दे दो - यह तो कोई कुर्बानी नहीं हुई न ?

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 इको फ्रेंडली बकरीद में बुराई क्या है...

बेशक, अगर हम अपने खासमखास पर्वों को मनाने के तरीके में कुछ बदलाव कर दें, तो इसमें क्या बुराई है. यानी पर्व इस तरह आयोजित हों ताकि सृष्टि का संतुलन न बिगड़ पाये. ईद से कुछ दिन पहले से ही सोशल मीडिया पर ईद पर पशुओं की बलि के वीडियो वायरल होने लगे थे. उन्हें देखकर पत्थर दिल शख्स भी पसीज जाता था. और ईद के अगले दिन ही पड़ोसी बांग्लादेश से कुछ फोटो वायरल हुईं कि किस तरह से ईद पर हजारों पशुओं की कुर्बानी के कारण ढाका की सड़कें खून से लाल सुर्ख हो गईं. आतंकवादी संगठन ISIS ने तो कई तथाकथित अमरीकी जासूसों की ही बेरहमी से कुर्बानी कर दी.

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इन सबके चलते भविष्य में इको फ्रेंडली ईद मनाने के संबंध में एक सार्थक चर्चा तो शुरू हो ही गई है. बात सिर्फ इको फ्रेंडली ईद तक ही कतई सीमित नहीं है. दरअसल इको फ्रेंडली दिवाली, गणेशोत्सव और होली मनाई भी जाने लगी है. हालांकि इसे और गति देने की जरूरत है. इसलिए इको फ्रेंडली ईद क्यों नहीं मनाई जाए? मुझे यह जानकर बेहद प्रसन्नता हुई कि इस साल गणेशोत्सव के बीच में ही ईद भी आ गई. इसीलिए, जहां ईद को इको फ्रेंडली तरीके से मनाने पर बहस हुई, वहीं इको फ्रेंडली गणेश प्रतिमा की भी जमकर मांग रही.

मुझे मेरे मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के कई मित्रों ने बताया कि शुद्ध मिट्टी से बने हुए गणेशजी ऑनलाइन मंगवाए गए. इको फ्रेंडली गणेश प्रतिमाओं की ख़ासियत यह थी कि इन्हें नारियल और सुपारी से तैयार किया गया था. इन प्रतिमाओं में शुद्ध रूप से मिट्टी, गोंद और हर्बल रंगों का उपयोग किया गया. मुंबई में तो फ़िल्म अभिनेता ऋतेश देशमुख ( पूर्व मुख्यमंत्री विलास राव देशमुख के पुत्र) ने तो अपने हाथों से चाकलेट से गणपति की अतिसुन्दर प्रतिमा तैयार की जिसे विसर्जन भी अनोखे ढंग से किया, गर्म दूध से अभिषेक करके पिघले हुए गणेश रूपी चाकलेट - मिल्क को ग़रीब बच्चों को पिला दिया.

मुंबई के एक मूर्तिकार दत्तात्रेय ने तो कमाल ही कर दिया. उनकी संस्था 'ट्री (वृक्ष) गणेश' ने इस बार 4000 शुद्ध मिट्टी के गणपति प्रतिमाएं तैयार कीं जिनमें सब्ज़ी, फूल, फलों के बीज भरकर गमले के बेस (आधारशिला) पर रखा. लोगों को कहा गया कि आप विसर्जन के दिन गमले को बालकनी में रख दो और रोज़ अभिषेक करो (पानी डालो). गणपति मिट्टी में मिल जायेंगे और फूल खिल उठेंगे.

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 ट्री गणेश (साभार-इंडियापेजेस डॉट इन)

इससे भी अनोखा प्रयोग एक स्वयंसेवी संस्था 'स्प्राउट गणेश' ने किया. उनकी संस्था ने मक्का के आटे, गेंहूं के आटे, पालक के पत्ते आदि से शुद्ध शाकाहारी नूडल्स बनाये जिन्हे मिट्टी की खोखली गणेश प्रतिमा में भर दिया. इससे मिट्टी का भी सीमित उपयोग हुआ और भारी मात्रा में मूर्ति विसर्जन के बाद मछलियों को भी भोजन प्राप्त हो गया. इस संस्था ने सिर्फ़ 9 इंच की मूर्तियों का ही निर्माण किया और छोटी मूर्तियों के प्रचलन को प्रोत्साहित किया. है न कमाल?

कहने की जरूरत नहीं कि इस तरह की मूर्तियों के नदियों में विर्सजित करने से नदियां प्रदूषित नहीं होंगी। हालांकि अब भी इस दिशा में लंबा सफर तय करना है. गणेशोत्सव के बाद अब दुर्गा पूजा का समय आ जाएगा और फिर दीवाली और चित्रगुप्त पूजा और फिर छठ. अगर गणेशोत्सव पर इको फ्रेंडली गणेश की मूर्तियां बिक सकती हैं तो फिर दुर्गा पूजा के वक्त क्यों नहीं. अगर हम अपने को बदलेंगे नहीं तो फिर हमें अपनी नदियों की गंदगी और उनके प्रदूषित होने वाले किसी मसले पर बोलने का अधिकार नहीं होगा.

देश को इको फ्रेंडली पटाखे चलाने के संबंध में भी संकल्प लेना होगा. इससे हम दीवाली पर पटाखे भी जला सकेंगे और धुआं व प्रदूषण भी न होगा. पिछले साल बाजार में ऐसे पटाखे भी मिले. वातावरण प्रदूषण की समस्या को कम करने की सोच के चलते ही इस तरह के इको फ्रेंडली पटाखे बाज़ार में उतारे गए हैं. लाखों लोगों ने इन्हें खरीदा भी. फिर भी ये कम पड़ गये. इसबार शायद इसके निर्माता ज़्यादा बनायेंगें. इको फ्रेंडली पटाखों की खूबियां ये हैं कि इनको हाथ में पकड़ कर भी चलाया जा सकता है. इनसे धुंआ नहीं निकलता बल्कि रंग बिरंगे कागजों और थरमोकोल की रंग बिरंगी गोलियां फव्वारे के रूप में निकलती हैं. ये अन्य पटाखों की तुलना में सस्ते भी होते हैं और सुरक्षा के लिहाज से से भी ठीक रहते हैं.

कायदे से देखा जाए तो इको फ्रेंडली पटाखे ही चलाने चाहिए. इससे एक पंथ दो काज होंगे, पटाखों की खरीदारी पर अधिक व्यय नहीं होगा और पर्यावरण भी दूषित होने से बच जाएगा. दरअसल, वक्त गुजरने के साथ भांति-भांति के पटाखे बाजार में आते रहे. इनमें से अधिकांश पटाखे अत्यधिक धुंआ निकालते हैं. उनके धमाके की आवाज भी बहुत तेज होती है. जो सरकार द्वारा स्वीकृत मानक डेसिबल की तुलना में कई गुना ज्यादा होती है. अब बाजार में इको फ्रेंडली पटाखे उतारे गए हैं, जिनसे धुंआ नहीं निकलता है. बेहतर होगा कि सिर्फ इस तरह के पटाखे ही अब बिके.

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पटाखों का शोरगुल और प्रदूषण सभी के लिए नुकसानदायक होता है. अधिक रोशनी और शोरगुल वाले पटाखों के कारण आंखों की रोशनी तक जाती है. यही नहीं, बहरेपन के भी अनेक लोग शिकार हो जाते हैं. ऐसे में इको फ्रेंडली पटाखे ही बिकने चाहिए. सरकार को इस लिहाज से कड़े कानून लाने होंगे.

इसी क्रम में 'इको फ्रेंडली होली खेलने का भी संकल्प' लेना होगा. सुखद बात ये है कि तमाम लोग अब रासयनिक रंगों के विकल्प ढूंढने लगे हैं. होली पर पानी की जिस तरह से बर्बादी होती है उसे रोकने पर भी बहस चल रही है. एक तरफ पानी की किल्लत से देश दो-चार हो रहा है, दूसरी तरफ पानी की पर्व के नाम पर बर्बादी हो ये तो अपराध है. होली पर रंगों के प्रयोग के खिलाफ भी कई स्तरों पर आवाजें उठने लगी हैं. और इससे सुखद कुछ नहीं हो सकता कि होली पर चंदन से तिलक लगाया जाए और फूलों से होली खेली जाए.

मैं प्रतिवर्ष व्यापक स्तर पर होली मिलन आयोजित करता हूं. हज़ारों की संख्या में लोग आते हैं. संगीत और पकवान का आनन्द लेते हैं. लेकिन मेरे यहॉं गीले रंगों या रासायनिक अबीर- गुलाल का प्रतिबंध रहता है. सिर्फ़ चंदन का टीका और फूलों की होली! बेशक, सनातन संस्कृति के इस विशुद्ध भारतीय पर्व को प्राकृतिक रंगों के साथ ही खेला जाना चाहिए. प्रकृति से प्राप्त फूल-पत्तियों से बने रंग किसी भी तरह से हानि नहीं पहुंचाते.

रासयनिक रंगों को तो होली के बाद शरीर से छुड़ाने में पचासों लीटर पानी खर्च हो जाता है, जबकि रासायनिक गुलाल से खेली होली में भी 40-50 लीटर पानी औसतन एक व्यक्ति पर खर्च ही होता है. वहीं अगर कुदरती रंगों का इस्तेमाल करें, तो सामान्य तौर पर नहाने में जो 15-20 लीटर पानी एक बार में खर्च होता है, वही खर्च होगा.

इस तरह सीधे हम पानी की बचत कर जल संरक्षण में सहयोग देंगे. कायदे से होली खेलने के लिये आवश्यकतानुसार पानी की एक निश्चित मात्रा तय कर लेनी चाहिए. होली पर कम से कम पानी का उपयोग हो. होली पर सूखे रंगों का अधिकाधिक प्रयोग हो, किसी भी स्थिति में गुब्बारों में पानी भरकर होली न खेली जाए. जब होली खेलना पूरा हो जाये तभी नहाने जायें, बार-बार नहाने अथवा हाथ-मुँह धोने से पानी का अपव्यय होता है. इन उपाय़ों को करके भी जल की बर्बादी रोकी जा सकती है. बक़रीद में तो क़ुर्बानी से बहे हुए ख़ून को धोकर सफ़ाई करने में होली से भी ज़्यादा पानी बर्बाद हो जाता है.

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बहरहाल, ईद को इको फ्रेंडली बनाने के संबंध में सोचने को लेकर सकारात्मक तरीके से विचार करने की जरूरत तो सभी महसूस कर ही रहे हैं. अगर देश के संविधान में बार-बार संशोधन हो सकता है तो हम अपने पर्वों के मनाने के तरीके में कुछ बदलाव करने के संबंध में क्यों नहीं सोच सकते? ख़ुशियाँ जरूर मनाएँ पर प्रकृति को दु:खी करके कदापि नहीं.

लेखक

आर.के.सिन्हा आर.के.सिन्हा @rksinha.official

लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं.

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