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Updated: 19 अक्टूबर, 2018 03:44 PM
श्रुति दीक्षित
श्रुति दीक्षित
  @shruti.dixit.31
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सबरीमला अब एक मंदिर और एक तीर्थ से बढ़कर कुछ लोगों के लिए 'एडवेंचर' की जगह बन गया है. इस जगह को अगर सामाजिक अखाड़ा कहा जाए तो ये गलत नहीं होगा. मंदिर के अंदर जाने और पूजा करने के लिए महिलाएं आगे आ रही हैं. ये एक तरह से गलत नहीं. महिलाओं को पूजा करने का अधिकार है, लेकिन क्या जिस तरह से महिला एक्टिविस्ट काम कर रही हैं उसे श्रद्धा कहा जाएगा या महज फेमिनिज्म का झंडा बुलंद करने वाला स्‍टंट?

जो महिलाएं मंदिर के अंदर जाने का प्रयत्न कर रही थीं उन्हें लौटा दिया गया और पुलिस प्रोटेक्शन के बाद भी वो मंदिर के अंदर नहीं घुस पाईं. इनमें से एक है हैदराबाद की पत्रकार कविता जक्काला और दूसरी है महिला अधिकारों की बात करने वाली रेहाना फातिमा. ये दोनों ही महिलाएं इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस के साथ मंदिर जाने की कोशिश कर रही थीं, लेकिन इन्हें जाने नहीं दिया गया.

दोनों महिलाओं ने पुलिस का जैकेट, हेलमेट और सुरक्षा के सभी गैजेट्स पहन रखे थे. पर एक बात जो पूछने वाली है वो ये कि क्या दोनों में से कोई भी श्रद्धालु था? इसका जवाब है नहीं. न तो उन्होंने किसी भी रस्म को पूरा किया जो मंदिर में जाने के लिए जरूरी है और न ही वो मंदिर के दर्शन करने के इरादे से जा रही थीं. इनमें से जर्नलिस्ट ने तो माना कि वो किसी भी तरह का रिवाज पूरा करके नहीं आई थीं. उन्हें सिर्फ कवरेज करना था. उन्हें सबरीमला से 18 कदम की दूरी पर ही रोक लिया गया और दोनों महिलाओं को वापस भेज दिया गया.

सबरीमला मंदिर, महिलाएं, समानता, सोशल मीडियासबरीमला में एंट्री लेने की कोशिश करतीं एक्टिविस्ट रेहाना फातिमाअगर रेहाना फातिमा की बात करें तो उनका और विवादों का तो गहरा नाता रहा है. इसी साल मार्च में रेहाना अपनी तस्वीरों के लिए चर्चा में आई थीं जहां वो एक प्रोफेसर के किए गए कमेंट्स का विरोध करने के लिए अपने ब्रेस्ट को तरबूज़ से ढंक कर फोटो खिंचवा रही थीं. प्रोफेसर ने कमेंट किया था कि महिलाओं को अपने तरबूज़ जैसे ब्रेस्ट ढंकने चाहिए. रेहाना ने जो तस्वीरें सोशल मीडिया पर डाली थीं उन्हें फेसबुक की तरफ से डिलीट कर दिया गया था.

2014 में रेहाना ने किस ऑफ लव कैंपेन में हिस्सा लिया था. उनके पार्टनर के साथ किए गए किस की क्लिप सोशल मीडिया पर शेयर भी की गई थी. इसके अलावा, रेहाना ने पुलिकली डांस भी किया था, जिसे हमेशा पुरुष करते हैं चीते की खाल जैसा पेंट अपने शरीर पर लगा कर. रेहाना मलयालम मनोरमा को दिए अपने इंटरव्यू में कह चुकी हैं कि वो पुरुषों द्वारा अधिगृहित हर जगह परफॉर्म करना चाहती हैं. यानी जहां भी महिलाओं का जाना मना है, वहां जाना चाहती हैं.

अब जरा उन दोनों महिलाओं के बारे में सोचिए, जिन्हें सबरीमला के अंदर जाना था. ये दोनों ही सबरीमला को एक्टिविज्म का ग्राउंड मानकर जा रही थीं. कम से कम देखने से तो यही लगता है. पुलिस का काम था प्रोटेक्शन देना और पुलिस ने प्रोटेक्शन दिया भी, लेकिन जहां तक धर्म और आस्था की बात है तो वो इसमें कहीं भी नहीं दिखी.

दोनों महिलाएं किसी न किसी कारण से वहां जाना चाह रही थीं. अभी तक भारत में हमेशा धर्म या किसी धार्मिक जगह को राजनीति या विरोध का हिस्सा बनाया गया है. क्या ये विरोध या फेमिनिज्म की अति नहीं है? धार्मिक जगहों को क्यों हमेशा अखाड़े की तरह देखा जाता है. क्या साबित करना चाहते हैं ये लोग धर्म के नाम की राजनीति करके. कुछ समय की प्रसिद्धी और चर्चा इन्हें क्या देगी? ठीक है अगर इनमें से कोई भी सिर्फ धर्म के नाम पर या फिर श्रद्धा भाव से सबरीमला के अंदर जाना चाहता तो शायद इतनी समस्या नहीं होती मुझे, लेकिन अगर हमारे मन में श्रद्धा नहीं तो इसका मतलब ये भी नहीं कि दूसरों की भावनाओं को सिर्फ इसलिए आहत किया जाए क्योंकि ये फेमिनिज्म है. ये किसी भी तरह से फेमिनिज्म नहीं है.

सबरीमला में जाने वाली महिलाएं न तो पूरे रीति-रिवाज का पालन कर रही थीं और न ही उन्होंने इस बारे में ध्यान दिया कि ये जगह इसलिए नहीं कि यहां आकर सिर्फ हाईलाइट हुआ जाए. इससे पहले कि आप ये कहें कि औरत ही औरतों की दुश्मन होती है मैं आपको बता दूं कि मैं इसके खिलाफ नहीं कि महिलाएं सबरीमला में दर्शन करने जाएं, लेकिन हर तीर्थ के कुछ नियम होते हैं कम से कम उनका पालन कीजिए. आस्था अगर दिखाई जा रही है तो फिर पूरी तरह से दिखाएं, आखिर क्यों सिर्फ सबरीमला की चढ़ाई करना ही श्रद्धा मानी जाए? ये यात्रा कई दिन की होती है और कई पड़ाव पूरे किए जाते हैं. जो इन महिलाओं ने नहीं किया. हां एक बेहद जरूरी सवाल जरूर उठाया है.

महिला एक्टिविस्ट का ये भी कहना है कि, 'ये कौन तय करेगा कि आखिर मैं श्रद्धालु हूं या नहीं, ये सिर्फ मैं बता सकती हूं. मेरे घर में तोड़फोड़ की गई. क्या मुझे आगे भी प्रोटेक्शन मिलेगी और क्या आगे जो महिला श्रद्धालु जाएंगे उन्हें मिलेगी?' ये कहना कि महिलाएं सबरीमला में प्रवेश कर सकती हैं ये सुप्रीम कोर्ट के लिए आसान होगा, लेकिन बाकी किसी के लिए असल में इस मंदिर के दर्शन करना आसान नहीं होगा. महिलाओं को जिस तरह से रोका जा रहा है वैसे तो कहा जा सकता है कि सच में अगर श्रद्धालु महिलाएं पूरे रिवाजों को निभा कर सबरीमला आती हैं तो उनका क्या होगा? उन्हें भी तो अंदर नहीं आने दिया जाएगा. उन्हें भी तो रोक दिया जाएगा. उनकी सुरक्षा का क्या होगा?

अभी मीडिया कवरेज के कारण सबरीमला में प्रोटेक्शन दिया जा रहा है, लेकिन ये आखिर कब तक होगा? जब तक पहली महिला अंदर नहीं चली जाती या जब तक सुप्रीम कोर्ट अपना ऑर्डर वापस नहीं ले लेता. इसको लेकर अब राजनीति भी शुरू हो गई है.

ये मामला अब धर्म से आगे बढ़कर कुछ और ही हो गया है. मामला अब बन गया है राजनीति का भी. अगर हमारी सरकार होती तो हम मामले को दूसरी तरह से हैंडल करते. ये कहना है आर चेनित्थला का जो कह रहे हैं कि सबरीमला कोई टूरिस्ट स्पॉट नहीं है.

यकीनन सबरीमला कोई टूरिस्ट स्पॉट नहीं है और न ही मैं वहां मौजूद नियमों का समर्थन कर रही हूं, लेकिन अगर देखा जाए तो सबरीमला कोई ऐसा ग्राउंड भी नहीं है जहां पर धरना दिया जाए या उसको लेकर राजनीति हो. सबरीमला विवाद में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा था कि महिला श्रद्धालुओं को भी हक है मंदिर जाकर पूजा करने का, लेकिन अगर कोई श्रद्धालु है ही नहीं तो क्यों फिर वहां मौजूद लोगों की धार्मिक आस्था को ठेस पहुंचाई जाए? कुछ भी हो, लेकिन न तो महिलाओं को मंदिर जाने से रोकना सही है और न ही आस्था के नाम पर फेमिनिज्म फैलाना. अगर बात धर्म की हो रही है तो वैसे भी भारत में बहुत सोच समझकर काम किया जाता है ऐसे में श्रद्धालुओं की सुरक्षा ज्यादा जरूरी है न कि महज फेमिनिज्म का दिखावा करना. उम्मीद है कि आने वाले दिनों में ये धार्मिक विवाद जल्द खत्म हो जाएगा.

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लेखक

श्रुति दीक्षित श्रुति दीक्षित @shruti.dixit.31

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं.

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