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Updated: 11 जुलाई, 2018 11:25 AM
शिवानन्द द्विवेदी
शिवानन्द द्विवेदी
  @shiva.sahar
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कोई भी कथानक तमाम पात्रों एवं घटनाओं की परस्पर बुनावट से पूर्ण होता हैं. किसी भी कथानक की हर घटना किसी न किसी पात्र से होकर गुजरती है अथवा कहें तो हर पात्र उस कथानक की किसी न किसी घटना से होकर गुजरता है. किसी पात्र के नजरिये से उस कथानक का मूल्यांकन ज्यादा रोचक हो सकता है बजाय कि समीक्षक के निजी नजरिये से उसे लिखा जाय! चाहें 'सिया' के नजरिये से रामायण को देखना हो या 'द्रौपदी' के नजरिये से महाभारत को, दोनों ही..मुख्यधारा के परम्परागत कथानकों द्वारा स्थापित सारी सीमाओं को तोड़ते हुए नई लकीरें खींच पाने में सक्षम हैं.

महाभारत की उम्र पांच हजार साल पुरानी बताई जाती है. इन पांच हजार सालों में एक सवाल आज भी गौण है कि द्रौपदी की महाभारत में कितनी और क्या भूमिका थी? देखा जाय तो द्रौपदी का नाम चीर हरण के संदर्भ में सबसे ज्यादा आता है. यह संदर्भ वर्तमान समाज में अबला पर हुए अत्याचार के नाते इमोशन का अतिरिक्त क्रेडिट भी हासिल कर लेता है. यही संदर्भ कृष्ण को द्रौपदी के सबसे बड़े संरक्षक के तौर पर स्थापित भी करता है. लेकिन ये वो बातें हैं जो मुख्यधारा के नजरिये से कही गयीं हैं. इसको द्रौपदी के नजरिये से जब समाज के पटल पर रखा जाता है तो द्रौपदी का वह 'विराट-व्यक्तित्व' सामने आता है, जो चर्चा से बाहर है.

चर्चित अदाकारा हेमा मालिनी एवं उनकी टीम द्वारा प्रस्तुत नाटक 'द्रौपदी' की प्रस्तुति महाभारत में द्रौपदी के तमाम अनकहे पक्षों पर प्रकाश डालती है. इस नाटक की नायिका द्रौपदी के नजरिये से महाभारत का मूल्यांकन करती है.

जिसे चाहा उसकी नही हुई द्रौपदी!

बहुत कम लोगों को पता है कि द्रौपदी का मूल नाम 'कृष्णा' था और वो 'कृष्ण' की सखी थीं. द्रौपदी यानि कृष्णा के मन में जिस पहले प्यार की कल्पना अंकुरित हुई वो प्यार कृष्ण के प्रति था. द्रौपदी के चाहने के बावजूद कृष्ण ने स्वयंवर के माध्यम से उस प्रेम को अंकुरण काल में ही समाप्त कर दिया. अर्थात, कृष्णा ने कृष्ण से प्रेम किया और कृष्ण ने कृष्णा को 'सखा' भर माना. यह द्रौपदी के रूप में कृष्णा का पहला बलिदान था. हालांकि ऐसा नही है कि स्वयंवर के दौरान द्रौपदी ने खुद को अर्जुन को समर्पित कर दिया. बल्कि अर्जुन से पहले जो योद्धा स्वयं-वर की शर्त पूरा कर सकता था वो 'कर्ण' था. लेकिन कृष्ण एवं सभा के दबाव में द्रौपदी ने न चाहकर भी कर्ण को अस्वीकृत किया.

नाटक में द्रौपदी द्वारा इस अस्वीकृति को स्व-इच्छा की बजाय सभा के दबाव में रूप में दिखाया गया है. यह द्रौपदी का दूसरा बलिदान था, या यूं कहें तो अर्जुन से पहले द्रौपदी कर्ण की होते-होते रह गयी थी. दो पुरुषों को तमाम कारणों के दबाव में न हासिल कर पाने वाली द्रौपदी के जीवन में अर्जुन तीसरे पुरुष के रूप में दाखिल हुए. लेकिन जब तक द्रौपदी उन्हें अपना बनाती, उससे पहले माता कुंती के एक भयानक भ्रम की वजह से द्रौपदी को पांच पतियों की पत्नी बनना पड़ा. यह एक स्त्री के रूप में द्रौपदी का तीसरा और सबसे भयावह बलिदान था.

यह वह समय था जब द्रौपदी को वस्तु के तौर पर विभाजित होना पड़ा था. एक स्त्री का वस्तु समझा जाना न तब कोई अनोखी बात थी और न आज कोई अनोखी बात है. इसे वर्तमान और प्राचीन समाज के बीच साम्य के तौर पर देखा जाना चाहिए. पांच पतियों की पत्नी तो थी ही, फिर अर्जुन आदि पांडव कई विवाह करते रहे और द्रौपदी उनकी नई पत्नियों का स्वागत करती रही. इसे एक स्त्री के सन्दर्भ में बलिदानी चरित्र के रूप में देखा जाय या समाजिक रूप से स्त्री के नियति के रूप में समझा जाय, इसका मूल्यांकन समाज को करना चाहिए. द्रौपदी के संदर्भ में दुनिया को इतना भर पता है कि उसे एक गलत फैसले में ज्येष्ठ पांडव धर्मराज युधिष्ठर ने जुए में दाव पर लगा दिया था. जबकि द्रौपदी के नजरिये से देखें तो वो जाने कब की दांव पर लगाई जा चुकी थी. धर्मराज ने तो सिर्फ जुए में द्रौपदी को दांव पर लगाया, लेकिन सही मायने में अगर देखें तो द्रौपदी का तो पूरा जीवन ही दांव पर लगा था.

धर्मराज एक बार हारे जबकि द्रौपदी उससे बहुत पहले से अनेक बार हारती आ रही थी. द्रौपदी की लाज भी कृष्ण ने एक बार बचाई जबकि उसे उघार तो जाने कबसे किया जा रहा था. हेमा मालिनी द्वारा प्रस्तुत नाटक में जिस द्रौपदी का चित्रण है उसे या तो एक 'बलिदानी' स्त्री के तौर पर देखा जा सकता है. अथवा वो किरदार एक 'दबाई' गयी शोषित स्त्री का चित्रण करती है. अब उस द्रौपदी को वर्तमान समाज एक असाधारण स्त्री द्वारा किया गया असाधारण कार्य मानकर उल्लेखित करता है अथवा उसे एक शोषित अबला के तौर पर स्वीकार करता है, ये समाज के अपने विवेक का विषय है. आज जब समाज में महिलाओं की सुरक्षा, उनका सम्मान एक यक्ष प्रश्न बना है तो हमे यह देखना होगा कि कहीं हर घर में एक द्रौपदी तो नहीं रह रही है.

अब यहाँ भी वही प्रश्न है कि हमारे-आपके घर में जो द्रौपदियां हैं उन्हें हम 'बलिदानी नारी' की उपाधि दे रहे हैं अथवा शोषित अबला समझकर उनको दबा रहे हैं! अत: जब तक द्रोपदी के नजरिये से जबतक महाभारत का पुनर्पाठ नही होता है तबतक महाभारत का समग्र 'द्रौपदी' पक्ष सामने नही आएगा.

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लेखक

शिवानन्द द्विवेदी शिवानन्द द्विवेदी @shiva.sahar

लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउन्डेशन में रिसर्च फेलो हैं एवं नेशनलिस्ट ऑनलाइन डॉट कॉम के संपादक हैं.

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