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Updated: 01 सितम्बर, 2018 06:37 PM
रमेश सर्राफ धमोरा
रमेश सर्राफ धमोरा
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राजस्थान में एक दरगाह ऐसी भी है जहां श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर मेला लगता है. झुंझुनू जिले के नरहड़ कस्बे में स्थित पवित्र हाजीब शक्करबार शाह की दरगाह, जो कौमी एकता की जीवंत मिसाल है. इस दरगाह की सबसे बड़ी विशेषता है कि यहां सभी धर्मों के लोगों को अपनी-अपनी धार्मिक पद्धति से पूजा अर्चना करने का अधिकार है. कौमी एकता के प्रतीक के रुप मे ही यहां प्राचीन काल से श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर विशाल मेला लगता है. जिसमें देश के विभिन्न हिस्सों से हिन्दुओं के साथ मुसलमान भी पूरी श्रद्धा से शामिल होते हैं.

जन्माष्टमी पर यहां भरने वाले तीन दिवसीय मेले में राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, पंजाब, मध्यप्रदेश, दिल्ली, आंध्रप्रदेश व महाराष्ट्र के लाखों जायरीन शरीक होते हैं. इस मेले में हिंदू धर्मावलंबी भी बड़ी तादाद में शिरकत कर अकीदत के फूल भेंट करते हैं. जायरीन यहां हजरत हाजिब की मजार पर चादर, कपड़े, नारियल, मिठाइयां और नकद रुपए भी भेंट करते हैं.

hajib shakarbar dargahइस दरगाह पर श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर विशाल मेला लगता है

जन्माष्टमी पर नरहड़ में भरने वाला ऐतिहासिक मेला और अष्टमी की रात होने वाला रतजगा सूफी संत हजरत शकरबार शाह की इस दरगाह को देशभर में कौमी एकता की अनूठी मिसाल का अद्भुत आस्था केंद्र बनाता है. जहां हर धर्म-मजहब के लोग हर प्रकार के भेदभाव को भुलाकर बाबा की बारगाह में सजदा करते हैं. दरगाह के खादिम एवं इंतजामिया कमेटी करीब सात सौ वर्षों से अधिक समय से चली आ रही इस अनूठी परम्परा को सालाना उर्स की तरह ही आज भी पूरी शिद्दत से पीढ़ी दर पीढ़ी निभाते चले आ रहे हैं.

भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की छठ से शुरू होने वाले इस तीन दिवसीय धार्मिक आयोजन में दूर-दराज से नरहड़ आने वाले हिंदू जात्री दरगाह में नवविवाहितों के गठजोड़े की जात एवं बच्चों के जड़ूले उतारते हैं. दरगाह के सबसे पुराने खादिम हाजी अजीज खान पठान बताते हैं कि यह कहना तो मुश्किल है कि नरहड़ में जन्माष्टमी मेले की परम्परा कब और कैसे शुरू हुई? लेकिन इतना जरूर है कि देश विभाजन और उसके बाद मजहब के नाम पर भले ही हालात बने-बिगड़े हों पर नरहड़ ने सदैव हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की मिसाल ही पेश की है. वे बताते हैं कि जन्माष्टमी पर जिस तरह मंदिरों में रात्रि जागरण होते हैं ठीक उसी प्रकार अष्टमी को पूरी रात दरगाह परिसर में चिड़ावा के प्रख्यात दूलजी राणा परिवार के कलाकार ख्याल (श्रीकृष्ण चरित्र नृत्य नाटिकाओं) की प्रस्तुति देकर रतजगा कर पुरानी परम्परा को आज भी जीवित रखे हुए हैं. नरहड़ का यह वार्षिक मेला अष्टमी एवं नवमी को पूरे परवान पर रहता है.

hajib shakarbar dargah कौमी एकता की अनूठी मिसाल है ये जगह

मान्यता है कि पहले यहां दरगाह की गुम्बद से शक्कर बरसती थी इसी कारण यह दरगाह शक्कर बार बाबा के नाम से भी जानी जाती है. शक्करबार शाह अजमेर के सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के समकालीन थे तथा उन्हीं की तरह सिद्ध पुरुष थे. शक्करबार शाह ने ख्वाजा साहब के 57 वर्ष बाद देह त्यागी थी. राजस्थान व हरियाणा में तो शक्करबार बाबा को लोक देवता के रुप मे पूजा जाता है. शादी, विवाह, जन्म, मरण कोई भी कार्य हो बाबा को अवश्य याद किया जाता है. इस क्षेत्र के लागों की गाय, भैंसों के बछड़ा जनने पर उसके दूध से जमे दही का प्रसाद पहले दरगाह पर चढ़ाया जाता है तभी पशु का दूध घर में इस्तेमाल होता है. हाजिब शक्करबार साहब की दरगाह के परिसर में जाल का एक विशाल पेड़ हैं जिस पर जायरीन अपनी मन्नत के धागे बांधते हैं. मन्नत पुरी होने पर गांवो में रतजगा होता है जिसमें महिलाएं बाबा के बखान के लोकगीत जकड़ी गाती हैं.

दरगाह में बने संदल की मिट्टी को खाके शिफा कहा जाता है, जिन्हें लोग श्रद्धा से अपने साथ ले जाते हैं. लोगों की मान्यता है कि इस मिट्टी को शरीर पर मलने से पागलपन दूर हो जाता है. दरगाह में ऐसे दृश्य देखे जा सकते हैं. हजरत के अस्ताने के समीप एक चांदी का दीपक हर वक्त जलता रहता है. इस चिराग का काजल बड़ा ही चमत्कारी माना जाता है. इसे लगाने से आंखो के रोग दूर होने का विश्वास है.

दरगाह के पीछे एक लम्बा चौड़ा तिबारा है जहां लोग सात दिन की चौकी भरकर वहीं रहते हैं. नरहड़ दरगाह में कोई सज्जादानसीन नही हैं. यहां के सभी खादिम अपना अपना फर्ज पूरा करते हैं. दरगाह मे बाबा के नाम पर देश-विदेश से प्रतिदिन बड़ी संख्या मे खत आते हैं जिनमें लोग अपनी-अपनी समस्याओं का जिक्र कर बाबा से मदद की अरदास करते हैं. दरगाह कमेटी के पूर्व सदर मास्टर सिराजुल हसन फारुकी बताते थे कि जिस प्रकार ख्वाजा मोइनुदीन चिश्ती को ‘सूफियों का बादशाह ‘कहा गया है. उसी प्रकार शक्करबार शाह ‘बागड़ के धणी' के नाम से प्रसिद्ध हैं.

नरहड़ गांव कभी राजपूत राजाओं की राजधानी हुआ करता था. उस समय यहां 52 बाजार थे. पठानों के जमाने में यहां के लोदी खां गर्वनर थे. राजपूतों के साथ चले युद्ध में उनकी लगातार पराजय हुई. किवदंति है कि एक बार हार से थक कर चूर हुए लोदी खां और उनकी सेना मजार के निकट विश्राम कर रही थी, तभी पीर बाबा की दिव्य वाणी हुई कि मेरी मजार तक घोड़े दौड़ाने वाले तुम कैसे विजयी हो सकते हो? यदि मजार से हटकर लड़ोगे तो तुम्हारी जीत होगी. इसके बाद लोदी खां ने फिर से आक्रमण किया, जिसमें उनकी जीत हुई. उसी समय से यहां हजरत शकरबार पीर बाबा का आस्ताना कायम है. उसी समय यहां मजार व दरगाह का निर्माण करवाया गया. जायरीन में प्रवेश करने वाले प्रत्येक जायरीन को यहां तीन दरवाजों से गुजरना पड़ता है. पहला दरवाजा बुलंद दरवाजा है, दूसरा बसंती दरवाजा और तीसरा बगली दरवाजा है. इसके बाद मजार शरीफ और मस्जिद है.

बुलंद दरवाजा 75 फिट ऊंचा और 48 फिट चौड़ा है. मजार का गुंबद चिकनी मिट्टी से बना हुआ है, जिसमें पत्थर नहीं लगाया गया है. नरहड़ के इस जोहड़ में दूसरी तरफ पीर बाबा के साथी दफन है, जिन्हें घरसों वालों की मजार के नाम से जाना जाता है.

इतना महत्तवपूर्ण स्थल होने के बावजूद भी राजस्थान वक्फ बोर्ड की उदासीनता के चलते यहां का समुचित विकास नहीं हो पाया है इस कारण यहां आने वाले जायरीनों को परेशानी उठानी पड़ती है. झुंझुनू जिला प्रशासन, राजस्थान वक्फ बोर्ड को इस प्रसिद्ध दरगाह परिसर का योजनाबद्ध तरीके से समुचित विकास करवाना चाहिये ताकि यहां आने वाले श्रृद्धालुओं को असुविधाओं का सामना नहीं करना पड़े.

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लेखक

रमेश सर्राफ धमोरा रमेश सर्राफ धमोरा @ramesh.sarraf.9

(लेखक राजस्थान सरकार से मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं। इनके लेख देश के कई समाचार पत्रों में प्रकाशित होतें रहतें हैं।)

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