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Updated: 03 सितम्बर, 2016 06:06 PM
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गरीबों और असहायों की सेवा के लिए अपना पूरा जीवन लगा देने वाली मदर टेरेसा को उनकी मौत के 19 साल बाद रविवार यानी 4 सितंबर को वेटिकन सिटी के सेंट पीटर्स स्क्वॉयर्स में पोप फ्रांसिस संत घोषित करेंगे. 1979 में शांति का नोबेल पुरस्कार जीतने वाली मदर टेरेसा ने अपने जीवन के 68 साल गरीबों की सेवा में लगा दिए और इसके लिए उन्होंने कोलकाता को अपनी कर्मस्थली के लिए रूप में चुना.

लेकिन जैसा कि हमेशा से होता आया है कि हर महान व्यक्ति के साथ कुछ विवाद जुड़ते ही हैं तो मदर टेरेसा के साथ भी विवाद जुड़े हैं. उनके मिशनरीज ऑफ चैरिटी को लेकर, उनके काम करने के ढंग को लेकर अब उनको संत की उपाधि दिए जाने पर भी आलोचक ये कहकर सवाल उठा रहे हैं कि 21वीं सदी में किसी को चमत्कारों के आधार पर संत घोषित करना क्या तर्कसंगत है, क्या ये तर्क और विज्ञान के युग में ये अंधविश्वास को बढ़ावा देना नहीं है? आइए आपको बताते हैं कि मदर टेरेसा से जुड़े विवाद क्या है और कैसे मिली उन्हें संत की उपाधि.

कैसे मिली मदर टेरेसा को संत की उपाधिः

कैथोलिक चर्च द्वारा किसी को संत घोषित किए जाने के लिए जिन शर्तों का पूरा किया जाना आवश्यक हैं वे हैं, उस व्यक्ति की मौत के बाद कम से दो ऐसे चमत्कारों का होना, जिनमें कोई व्यक्ति उस मृत व्यक्ति की प्रार्थना से ठीक हो गया हो. संत की उपाधि देने की प्रक्रिया किसी व्यक्ति के मौत के पांच साल बाद ही शुरू की जा सकती है. 5 सितंबर 1997 को मदर टेरेसा का निधन हुआ था.

उनके निधन के 5 साल बाद 2002 में पोप जॉन पॉल द्वितीय ने मदर टेरेसा के पहले चमत्कार को स्वीकार किया था, जब पश्चिम बंगाल की एक आदिवासी महिला मोनिका बेसेरा ने कहा कि उसके पेट में अल्सर की बीमारी मदर टेरेसा की प्रार्थना से ठीक हो गई. इस चमत्कार को टेरेसा की आलौकिक ताकत मानकर मान्यता देते हुए चर्च ने 2003 में टेरेसा को 'धन्य (बिटिफिकेशन)' की उपाधि दे दी और उनको संत घोषित किए जाने की प्रक्रिया शुरू कर दी.

पिछले वर्ष पोप फ्रांसिस ने मदर टेरेसा के दूसरे चमत्कार को मान्यता देते हुए उनको संत घोषित किए जाने का रास्ता साफ कर दिया था. इस दूसरे चमत्कार के तहत वर्ष 2008 में मल्टिपल ब्रेन ट्यूमर्स से पीड़ित एक ब्राजीली व्यक्ति टेरेसा की आलौकिक शक्तियों से ठीक हो गया. इन दो चमत्कारों को चर्च की मान्यता मिलने के बाद अब 4 सितंबर को वेटिकन सिटी में पोप फ्रांसिस द्वारा मदर टेरेसा को संत घोषित किया जाएगा.

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मदर टेरेसा को उनकी 19वीं पुण्यतिथि से ठीक एक दिन पहले 4 सिंतबर को संत की उपाधि दी जा रही है

क्या है मदर टेरेसा से जुड़े विवादः

मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त 1910 को आधुनिक मैसेडोनिया में हुआ था. वह 18 साल की उम्र में नन बनी थीं और 1946 में अतंरात्मा की आवाज पर गरीबों की सेवा करने के काम में जुट गई. इसके बाद वह कोलकाता पहुंची और फिर अपना बाकी जीवना यहीं बिता दिया. 1950 में उन्होंने 12 अनुयायियों के साथ गरीबों और असहायों की सेवा के लिए मिशनरीज ऑफ चैरिटी की स्थापना की.

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आज मिशनरीज ऑफ चैरिटी में 5 हजार से ज्यादा कर्मचारी कार्यरत हैं और हजारों स्वयंसेवक और दुनिया के 139 देशों में स्कूल, अनाथालय, बेघरों के लिए शरणस्थली और बीमारों के लिए घर और स्वास्थ्य क्लीनिक हैं. 1979 में उन्हें शांति के लिए नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया. लेकिन गरीबों की निस्वार्थ सेवा के लिए मसीहा के तौर पहचाने जाने वाली टेरेसा के काम को लेकर विवाद भी कम नहीं है.

कोलकाता में पले-बढ़े और अब अमेरिका में रहने वाले एक डॉक्टर अरूप चटर्जी उनके सबसे बड़े आलोचकों में से रहे हैं. चटर्जी कहते हैं, ‘दुनिया के कई कपटी लोग कैथोलिक संत बन गए हैं.’ वह कहते हैं कि जो चीज मुझे सबसे ज्यादा परेशान करती है वह यह कि दुनिया ऐसे अंधविश्वासों और काले जादू के समारोह का जश्न मनाती है. अपनी किताब ‘मदर टेरेसाः द फाइनल वर्डिक्ट’ में उन्होंने मिशनरीज ऑफ चैरिटी में लोगों की देखभाल के दौरान बरती जाने वाली लापरवाहियों और अस्वस्थ माहौल का जिक्र किया है.

उन्होंने लिखा है वहां एक ही सूइयों का बार-बार इस्तेमाल होता था, पेनकिलर्स मौजूद नहीं थे और परिस्थितियां बहुत ही अनहेल्थी थीं. उनका आरोप है कि मदर टेरेसा ज्यादातर समय कोलकाता में नहीं रहती थीं और अपने निजी विमान से दुनिया भर के नेताओं से मिलती रहती थीं. कुछ ऐसे ही आरोप लेखक क्रिस्टोफर हिचेंस ने भी अपनी किताब में लगाए हैं और लिखा है, ‘मदर टेरसा एक राजनीतिक गुप्तचर, एक धार्मिक रूढ़िवादी, कट्टर उपदेशक और दुनिया भर की धर्मनिरपेक्ष ताकतों की साथी थीं.’

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आलोचक मदर टेरेसा को दी जा रही संत की उपाधि को तर्क और विज्ञान पर आस्था और अंधविश्वास की जीत बता रहे हैं

क्यों हो रही टेरेसा के संत उपाधि की आलोचनाः

मदर टेरेसा को संत घोषित किए जाने की भारत सहित दुनिया भर में कई लोग तीखी आलोचना कर रहे हैं. इस आलोचना का सबसे बड़ा आधार कैथोलिक चर्च की वह मान्यता जिसके अनुसार संत की उपाधि मृत व्यक्ति से जुड़े दो चमत्कारों के बाद दी जाती है.

लोगों का कहना है कि जब विज्ञान मंगल पर जीवन तलाश रहा हो और टेक्नोलॉजी नित नई ऊंचाइयों को छू रही हो तो ऐसे में आज भी चमत्कार जैसी बातों को मानना निश्चित तौर पर आस्था और अंधविश्वास को बढ़ावा देना ही है. साथ ही आलोचक चर्च की उस प्रक्रिया पर भी सवाल उठाते हैं जिसमें किसी बीमार व्यक्ति के ठीक होने को चमत्कार मान लिया जाता है.

इन चमत्कार के दावों पर इसलिए भी यकीन करना मुश्किल है कि इनकी कभी कोई चिकित्सीय व्याख्या नहीं की जा सकती और इन्हें चमत्कार मानने का आधार बस आस्था होती है. ऐसे में महज आस्था के आधार पर किसी बात को चमत्कार मानकर किसी को संत की उपाधि देना खुद-ब-खुद सवालों के घेरे में आ जाता है.

लेकिन मदर टेरेसा के अनुयायियों इन आलोचनाओं को यह कहकर खारिज कर देते हैं कि साबूत और तर्क दो अलग चीजें हैं. लेकिन क्या इस तर्क से टेरेसा की संत उपाधि और इस उपाधि से अंधविश्वास को बढ़ावा देने जैसे आरोपों को खारिज किया जा सकता है?

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