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Updated: 10 जुलाई, 2021 02:54 PM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
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बॉलीवुड के निर्माताओं को अब स्पोर्ट्स ड्रामा खूब लुभाते हैं. फिक्शनल और बायोपिक के रूप में लगातार फ़िल्में आ रही हैं. कारोबारी लिहाज से ज्यादातर फ़िल्में सफल भी हो रही हैं. इस कड़ी में मास्टरपीस भाग मिल्खा भाग के बाद फरहान अख्तर और राकेश ओम प्रकाश मेहरा की जोड़ी तूफ़ान लेकर आ रही हैं- एक बॉक्सर की कहानी. 16 जुलाई को अमेजन प्राइम पर इसे रिलीज किया जाएगा. तूफ़ान से पहले भी एक पर एक कई स्पोर्ट्स मूवीज आ चुकी हैं. फिलहाल स्पोर्ट्स ड्रामा में निर्माताओं की रुचि अनायाश नहीं है. पिछले दो दशकों में ये सिलसिला खूब फल फूल रहा है.

छिटपुट ही सही बॉलीवुड ने कई फिल्मों में स्पोर्ट्स सीक्वेंस लेकर फ़िल्में बनाई. कुछ का तो मुख्य विषय ही खेल था. लेकिन ये कभी कभार था. कोई सिलसिला नहीं दिखता था. दिलीप कुमार स्टारर नया दौर (1957) से लेकर आमिर खान की अव्वल नंबर (1990) तक खेल फिल्मों का हिस्सा बनते रहे हैं. मगर शुरू शुरू में जो फ़िल्में प्योर स्पोर्ट्स ड्रामा के नाम पर बनाई गई विषय भटकाव की वजह से फ्लॉप साबित हुईं. बॉलीवुड ने खेलों के विषय पर 1983 के बाद गंभीरता दिखाई थी. दरअसल, भारत ने क्रिकेट का विश्वकप जीता और देश एक अलग ही खुमार में डूब गया. खासकर युवा. निर्माताओं को खेल आधारित कहानियों में पैसा दिखने लगा था. मगर उसे कैश कराने का सही तरीका या फ़ॉर्मूला नहीं पता था.

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1984 में मिथुन चक्रवर्ती स्टारर बॉक्सर, इसी साल आई कुमार गौरव और रति अग्निहोत्री की ऑल राउंडर विश्वकप के बाद बने माहौल को भुनाने की कोशिश थी. दुर्भाग्य से दोनों फ़िल्में बुरी तरह फ्लॉप हो गई. क्योंकि ये ना तो स्पोर्ट्स ड्रामा बन पाई और ना ही रोमांस एक्शन मूवी. रोमांटिक और एक्शन फिल्मों को बनाने की आदि इंडस्ट्री ने नए ट्रेंड को भुनाने की कोशिश कई बार की मगर अलग विषय को लेकर दर्शकों की जरूरत का आंकलन ठीक से नहीं कर पाए. अगर मैं गलत नहीं हूं तो इन दोनों फिल्मों के बाद छह साल तक किसी निर्माता ने स्पोर्ट्स फिल्म बनाने का जोखिम मोल नहीं लिया. हालांकि विश्वकप जीत के बाद इतने सालों में देश में खेलों के प्रति खासकर क्रिकेट- एक अलग तरह का ज्वार सामने खड़ा हो चुका था. बड़ा जनसमूह खेलों को पसंद करने लगा था. खेल में हमारे नए-नए सितारे पैदा हो रहे थे. 90 के दशक तक क्रिकेट से इतर पीटी उषा, धनराज पिल्लै, लिएंडर पेस और विश्वनाथन आनंद जैसे खिलाडियों ने खूब शोहरत बटोर ली थी.

खेल और खिलाड़ियों के प्रति उठे इसी ज्वार के भ्रम में छह साल बाद देव आनंद ने नए-नए आए आमिर खान को लेकर अव्वल नंबर बनाई. क्रिकेट के साथ रोमांस और एक्शन के कॉकटेल में फिल्म औसत साबित हुई. वही गलती दिखी जो बॉक्सर और ऑल राउंडर में की गई थी. जिन्होंने बॉक्सर-अव्वल नंबर के साथ जो जीता वही सिकंदर, लगान या चक दे इंडिया या देखी है वो आसानी से विषय के चुनाव और उसमें मसालेबाजी के साइड इफेक्ट को समझ सकते हैं. स्पोर्ट्स मूवीज को लेकर बॉलीवुड के निर्माताओं की चूक को पहली दफा जो जीता वही सिकंदर के निर्माताओं ने भांप लिया.

1992 में आई स्पोर्ट्स मास्टरपीस 'जो जीता वही सिकंदर' को कायदे से बॉलीवुड की पहली प्योर स्पोर्ट्स ड्रामा करार दे सकते हैं. हालांकि यहां भी अमीरी-गरीबी, रोमांस, रीवेंज और एक्शन का तड़का है मगर फिल्म की आत्मा कहीं भी इसके बोझ तले दबती नजर नहीं आती. फिल्म की कहानी का मूल विषय इंटर कॉलेज साइकिलिंग चैम्पियनशिप है. आमिर खान ने मुख्य भूमिका निभाई थी. युवाओं के बीच ये फिल्म जबरदस्त हिट हुई. ये दूसरी बात है कि स्पोर्ट्स को लेकर ये फिल्म भी कोई फ़ॉर्मूला सेट करने में नाकाम रही. निर्माताओं की अनदेखी की वजह से जबरदस्त कामयाबी के बावजूद जो जीता वही सिकंदर बॉलीवुड में स्पोर्ट्स ड्रामा का प्रस्थान बिंदु नहीं बन पाया.

श्रेय जाता है लगान (2001), इकबाल (2005) और चक दे इंडिया (2007) को जिसने बॉलीवुड की सोच ही बदल दी और एक ट्रेंड सेट किया. आशुतोष गोवारिकर कहानी लेकर टहलते रहे. कोई निर्माता पैसा लगाने को तैयार नहीं था. आमिर को कहानी पसंद थी पर बजट की वजह से ना नुकर कर रहे थे. आखिर में खुद प्रोड्यूसर बनकर उन्होंने कमान हाथ में ली और बॉलीवुड को लगान के रूप में बेहद कामयाब एक स्पोर्ट्स क्लासिक मिली. नसीरुद्दीन शाह और श्रेयस तलपड़े की इकबाल ने भी भरोसा जिंदा रखा. और शाहरुख खान की चक दे इंडिया की बेशुमार कामयाबी ने निर्माताओं की आँखें चुंधिया दी.

चक दे इंडिया के बाद तो एक सिलसिला ही चल पड़ा. चैन खुली की मैन खुली (2007), इरफान खान की पान सिंह तोमर (2010), अक्षय कुमार की पटियाला हाउस (2011), फरहान की भाग मिल्खा भाग (2013), काई पो चे (2013) और प्रियंका चोपड़ा की मैरीकॉम (2014) आदि ने मनोरंजन और कमाई का भरोसा बनाए रखा. एक नया दर्शक वर्ग तैयार हो चुका था जिसे स्पोर्ट्स मूवीज की कहानियां पसंद आ रही थीं. फिर आई सुशांत सिंह राजपूत की कहानी एमएस धोनी द अनटोल्ड स्टोरी (2016) ने बॉलीवुड में खेल के विषय को सबसे अहम बना दिया. सुल्तान, दंगल, साला खडूस (2016), मुक्काबाज (2017), कबड्डी (2018), सूरमा (2018), गोल्ड (2018), जीत लो मैराथन (2018), छिछोरे (2019) जैसी दर्जनों फ़िल्में इस कड़ी का हिस्सा हैं. ये सिलसिला ठहरा नहीं है. लगातार जारी है. अब बॉलीवुड के पास फिक्शनल और बायोपिक स्पोर्ट्स ड्रामा का फ़ॉर्मूला है. दर्शकों की नब्ज पता चल गई है.

क्यों स्पोर्ट्स ड्रामा का चलन बढ़ा?

दरअसल, साल 2000 के बाद फिल्मों का कंटेंट ही बदलता नजर आता है. फिल्मों का कंटेंट इसलिए बदला क्योंकि पारंपरिक दर्शकों के साथ युवा दर्शक का एक नया वर्ग तैयार हुआ. ना सिर्फ नया दर्शक वर्ग आया बल्कि इन्हीं के बीच से फिल्म मेकर, राइटर और दूसरे क्रिएटिव लोग भी आए. साल 2000 के बाद बॉलीवुड में बहुत सारे प्रयोग दिखते हैं. रोमांटिक और एक्शन देखने के आदि दर्शकों के लिए स्पोर्ट्स एक नया विषय था. और इत्तेफाक से विषय पर लगातार अच्छी कहानियां आती गईं. स्पोर्ट्स की फिक्शनल और बायोपिक कहानियों ने हजारों हजार लोगों को प्रेरित किया. पिछले 20 साल में आई ज्यादातर फ़िल्में कमाल की हैं. बॉक्स ऑफिस पर हाथोंहाथ लिए जाने की वजह से निर्माताओं का भरोसा बढ़ा और ज्यादा संख्या में फ़िल्में बनने लगीं.

असल में देखें तो कायदे से ये फैमिली फ़िल्में भी हैं. तमाम माता-पिता अपने बच्चों को इन्हें दिखाने ले गए. हकीकत में परिवार और बच्चों के साथ फिल्म देखने की इसी यूएसपी ने स्पोर्ट्स मूवीज का ट्रेंड तैयार किया. ये ट्रेंड बना रहेगा क्योंकि कई स्पोर्ट्स फ़िल्में अभी कतार में हैं.

 

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लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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