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Updated: 06 मार्च, 2023 02:25 PM
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'कितनी हकीकत है और कितना झूठ है' से परे कंटेंट वीभत्स है, विद्रूप है. अनेकों ऐसे जिक्र हैं या कहें स्टोरीलाइन हैं, जिन्हें कभी सुना ही नहीं. स्पष्ट है मेकर ने ओटीटी कल्चर के अनिवार्य तत्वों के लिए रचनात्मक स्वतंत्रता का दुरुपयोग कर 'डिक्रिएशन' कर दिया है. जी हां, बात हो रही है जी5 पर स्ट्रीम हो रही हिस्टोरिकल ड्रामा सीरीज "ताज डिवाइडेड बाय ब्लड" की. अमेरिकन प्रोड्यूसर है, स्क्रिप्ट राइटर ब्रितानिया है, निर्देशक भी ब्रितानिया है. संवादों को लिखा है अजय सिंह ने और बस उन्होंने मुगले आजम के संवादों की तर्ज पर ही रच दिए हैं. निश्चित ही देर सबेर वेब सीरीज विवादों को जन्म देगी.

क्या पांचों वक्त के नमाजी का समलैंगिक होना गवारा होगा? क्या सलीम की अनारकली को शहंशाह अकबर का 14 साल से हरम में कैद कर उसके साथ अय्याशियां करना गले उतरेगा? क्या वितृष्णा नहीं होती जब शहजादा सलीम के अनारकली के साथ हमबिस्तर होने के तुरंत बाद पिता अकबर पहुंचकर अनारकली को ताकीद करते हुए, कि वह ना भूले वह किसकी है, उसके साथ हमबिस्तर होना चाहते हैं और अनारकली तबियत ठीक ना होने का बहाना करती है? क्या महाराणा प्रताप का बंदूक से लड़ना सवाल नहीं खड़े करेगा? क्या अकबर की राजपूताना पत्नी जोधाबाई की लाइफस्टाइल और साथ ही सलीम के मित्रवत सिपहसालार दुर्जन सिंह का चित्रण आक्रोशित नहीं करेगा?

क्या दो चार बीवियां इसलिए होती थी कि इधर उधर मुंह ना मारे मर्द? एक से ज्यादा निकाह तो होते हैं लेकिन एक ही वक्त एक ही साथ शहजादे सलीम के दो निकाह पढ़वा देना क्या दीनेइलाही था? क्या एपिसोड 7 'पिता के अपराध' विकृति की पराकाष्ठा नहीं है? विकृति ऐसी कि बयान न की जा सके. क्या क्रिस्तानी एडवाइजर भी था शहंशाह का और यदि क्रिएटिव लिबर्टी ले भी ली तो क्या बात बात में पादरी का मखौल उड़ाया जाना और फिर मुराद द्वारा सर कलम कर दिया जाना बर्दाश्त होगा?

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कुल मिलाकर एक दौर की कहानी, जो थोड़े बहुत बदलाव के साथ भिन्न-भिन्न किवंदतियों के मार्फ़त अब तक सुनते आए हैं, को बिल्कुल नए परंतु वहशी कलेवर में बखूबी ढाल दिया गया है इस ओटीटी संस्करण में. एरोटिसिस्म की पराकाष्ठा है, जबरदस्त हिंसा है, खून खराबा है, अधम रिश्तों का घालमेल है, कांस्पीरेसी है, सुरापान, सुंदरियों के रसपान और माल (धुएं वाले नशे जो तब अफीम, धतूरे और गांजे थे) फूंकने की भरमार है और और भी सभी इनपुट्स हैं व्यूअर्स की वर्जना की संतुष्टि के लिए. सो किरदार वही हैं, लेकिन उनका चरित्र चित्रण, उनके दरमियानी ताने बाने की एक वाहियात दास्तां इस कदर कही गई है कि इस 'कहे' को व्यूअर्स हकीकत समझने लगे, उसे लगे अब तक उसने जो सुना, जो देखा , वह मनगढ़ंत था.

"ताज डिवाइडेड बाय ब्लड" की मानें तो अकबर का बड़ा बेटा सलीम हमेशा नशे में धुत हरम की कनीज के साथ अय्याशी में डूबा रहता है, मझिला बेटा मुराद बहादुर है, वह बेहतरीन लड़ाका है, लेकिन बेरहम है, और सबसे छोटा बेटा दनियाल पांचों वक्त का नमाजी है और समलैंगिक है. चूंकि अकबर फैसला करते हैं कि मुगलिया तख्त का वारिस उसकी काबिलियत देखकर चुना जाएगा और सबसे पहले पैदा होना किसी इंसान को ताज पहनने का हकदार नहीं बना सकता है, तीनों बेटों के बीच दावेदारी इस बात की है कि तख्त का असली वारिस कौन होगा?

सीरीज की शुरुआत होती है बादशाह अकबर के सूफी संत सलीम चिश्ती के दरबार में संतान की लालसा लिए हाजिरी लगाने से. पूरे सीरीज का हिंट सलीम चिश्ती के आशीर्वचन मय सलाह में है कि "उन्हें 3 बच्चे होंगे लेकिन कोई अपना ही उनकी हुकूमत को चेतावनी देगा और 'जब जब दरिया का पानी लाल होगा, मुगलिया सल्तनत का खून बहेगा.' बेहतरीन पल थे चूंकि धर्मेंद्र सलीम चिश्ती के किरदार में हैं, लेकिन सबसे बड़ी निराशा धर्मेंद्र को देखकर ही हुई; उनका शरीर अब उनके जुनून का साथ नहीं दे रहा और वे लाचार से कलाकार दिखते हैं. और फिर सूफी संत सलीम चिश्ती का अवतरण सिर्फ उतने ही पलों के लिए है, सो कभी सदाबहार कहलाये धर्मेंद्र के लिए मौका भी नहीं था कुछ कर गुजरने का. कहा जा सकता है कि उनका गेस्ट अपीयरेंस सरीखा रोल भर था जिसमें वे प्रभावहीन ही रहे.

मुग़ल सल्तनत को लेकर तमाम किवदंतियां निःसंदेह बादशाह अकबर और शहजादे सलीम के मध्य की तनातनियों की ओर इशारा करती हैं और शायद इन्हीं को आधार बनाकर मेकर ने एक अलग ही किवंदती गढ़ दी है दोनों के बीच की कटुता का चित्रण करने के लिए. लेकिन नसीरुद्दीन शाह का बादशाह अकबर के किरदार में होना ही सीरीज को कमजोर कर देता है. लोगों के मन मानस पर तो पृथ्वीराज कपूर की छवि हावी है अकबर के लिए और नसीरुद्दीन शाह कद काठी और चाल ढाल में पृथ्वीराज के पासंग भी नहीं है. हां, संवादों के जरिए जरूर वे अपना प्रभाव छोडने में सफल रहे हैं लेकिन कैमरे के सामने वे ओजहीन ही सिद्ध हुए हैं.

आशिम गुलाटी हैं सलीम के किरदार में लेकिन किरदार ही हर समय नशे में धुत और ऐयाशी में लीन बददिमाग आशिक के मसखरे सरीखा है कि व्यूअर्स निराश होते हैं चूंकि धीर गंभीर लीजेंड दिलीप कुमार की छवि जो घर कर बैठी है दिलो दिमाग पर. और वे हर सीन में जान डालने की असफल कोशिश करते ही नजर आते हैं गुलाटी. अनारकली की भूमिका में अदिति राव हैदरी जैसे ही दिखी, आशा बंधती ही है कि वह फीकी पड़ जाती है सिर्फ इसलिए कि कहां मधुबाला ने शिखर छू लिया था.

सवाल है नसीर ने मुगलिया सल्तनत की इस कमतर कहानी में अकबर के किरदार के लिए हामी क्यों भरी? जवाब मुश्किल नहीं है. वे बादशाह अकबर को प्रगतिशील, प्रबुद्ध शासक मानते हैं. उन्हें लगा कि इस किरदार को निभा कर वे 'दीने इलाही' की पैरोकारी कर रहे हैं. फिर उन्हें सिर्फ अपने किरदार के महिमामंडन से सरोकार है, भले ही समग्रता के दृष्टिकोण से सीरीज इतिहास से विश्वासघात ही कर रही हो. परंतु वो कहते हैं ना चूक गया सरदार. ऐसा नहीं है कि प्रभावशाली कोई है ही नहीं. बादशाह अकबर के भाई मिर्जा हाकिम के किरदार में राहुल बोस कमाल लगे हैं ; और महाराणा प्रताप बने दीपराज राणा ने अपना उपनाम 'राणा' सार्थक करते हुए उम्दा अभिनय किया है. एक और हैं अनुष्का लुहार जिसने मान बाई का किरदार निभाया है, वर्थ मेंशन सिर्फ वही है. अन्य कलाकारों की बात करें तो सबने अपनी अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है.

लेकिन जब कंटेंट ही ढीला ढाला हो, वाहियात हो, इतिहास की आड़ में एक ख़ास एजेंडा लिए हो; सिर्फ एजेंडा ड्रिवेन व्यूअर्स को ही आकर्षित करेगा. या फिर वो ही देखेगा जो रिमोट हाथ में लिए वही सब कुछ देखेगा जिसके लिए वह ओटीटी प्लेटफार्म का रुख करता है मसलन एरोटिज़्म पर, वायलेंस पर आंखें गड़ाएगा. यही वजह है कि भव्यतम सेट्स, साज सज्जा भी व्यूअर्स को बांध नहीं पाते. एक और ड्राबैक है कि लंबे लंबे दस एपिसोडों में भी मुगलिया सल्तनत को समेट नहीं पाये है मेकर्स जिसकी ओर इंगित करने के लिए ही शायद पहले भ्रम क्रिएट किया गया कि शहजादा सलीम मर चुका है और फिर अचानक इस रहस्योद्घाटन के साथ कि सलीम जिंदा है, सीजन 1 खत्म होता है.

हां, जिन्हें कॉस्टयूम ड्रामा पसंद है मसलन रोमन एम्पायर, स्पार्टाकस, उनके लिए संजोग से आ रहे चार दिनों के वीकेंड पर समय बिताने के लिए एक ऑप्शन "ताज डिवाइडेड बाय ब्लड" हो सकता है. हालांकि सच्चाई से कोसों दूर हैं, महज एक फंतासी है हिस्टोरिकल सीरीज के नाम पर जिसमें क्रिएटिव लिबर्टी का दोहन हुआ है. 

लेखक

prakash kumar jain prakash kumar jain @prakash.jain.5688

Once a work alcoholic starting career from a cost accountant turned marketeer finally turned novice writer. Gradually, I gained expertise and now ever ready to express myself about daily happenings be it politics or social or legal or even films/web series for which I do imbibe various  conversations and ideas surfing online or viewing all sorts of contents including live sessions as well .

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