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Updated: 23 जुलाई, 2023 03:05 PM
तेजस पूनियां
तेजस पूनियां
  @tejas.poonia.18
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फिल्म का सीन है जहां एक किन्नर उड़िया भाषा में बहस कर रही है ड्राइविंग लाइसेंस के लिए. नाम है मेघना साहू, जिसके जीवन के संघर्षों की इतनी ही कहानी नहीं है. पहले अपने घर से निकाली गई. किन्नरों के डेरे में जगह मिली तो वहां रहने लगी और भीख मांगकर, शरीर बेचकर अपना पेट पालती रही. अच्छी खासी पढ़ी लिखी और पढ़ाई में होशियार मेघना को जब कहीं नौकरी नहीं मिली तो उसने किन्नरों के डेरे को ही घर बना लिया.

एक जगह किसी तरह नौकरी लगी भी तो अपने साथ काम करने वाले एक लड़के की हरकतों की वजह से वहां से भी निकाली गई. अब क्या करेगी मेघना. क्या वो बचपन से ही ऐसी थी या इस तथाकथित समाज द्वारा बना दी गई. ये सब कहानी आपको 'टी' नाम से उड़िया और हिंदी भाषा में बनी फिल्म दिखाती है.

यह कोई काल्पनिक कहानी नहीं बल्कि असल किरदार मेघना साहू की जिंदगी पर बनी बायोग्राफी है. कई प्रतिष्ठित फिल्म समारोहों में सराही गई तथा पुरुस्कृत हुई यह फिल्म सोच बदलती है. यह सोच बदलती है उस समाज की जिसमें तथाकथित रूप से केवल स्त्री और पुरुष ही रह सकते हैं. यह सोच बदलती है उनकी जो सोचते हैं किन्नर सिर्फ जिस्म बेचने, भीख मांगने और उनकी खुशियों में सिर्फ बधाइयां लेने आते हैं. यह सोच बदलती है ऑफिसों में बैठे उन लोगों की जो इन्हें तिरस्कृत नजर से देखते हैं. यह सोच बदलती है उनकी जो इनका इस्तेमाल केवल अपने शरीर की भूख मिटाने के लिए करते हैं. लेकिन असल जिंदगी में उन्हें औरत की ही जरूरत होती है.

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इस फिल्म में कुछ सीन इस कदर मार्मिक हैं और अश्लील हैं जिन्हें देखकर आपको भीतर कुछ चुभता है. आप उन दृश्यों को देखकर विचलित होते हैं और भीतर से पिघलते जाती है आपकी सोच. इस तरह की किन्नरों को आधार बनाकर कई फिल्में आईं हैं जिनमें उन्हें केवल मजाक के रूप में दिखाया गया है. कुछ अच्छे सिनेमा के रूप में याद भी आता है किन्नरों को लेकर तो 'ओजस्वी शर्मा' की नेशनल अवॉर्ड से सम्मानित डॉक्यूमेंट्री तथा पाकिस्तान की किन्नरों पर बनी डॉक्यूमेंट्री.

जितेश कुमार परिदा लिखित एवं निर्देशित 'टी' फिल्म के टाइटल को लेकर भी आप विचार करते हैं कि अंग्रेजी के एकमात्र शब्द को इन्होंने फिल्म नाम क्यों दिया. तो उसके पीछे का कारण आपको फिल्म देखने के बाद पता चलता है कि स्कूलों में तो आपने टी से टी यानी चाय या फिर टी से टाइगर ही पढ़ा था. यह फिल्म अपने नाम टी से ट्रांसजेंडर भी होता है यह सिखाती है. इंडिया इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल बॉस्टन, गोल्डन ज्यूरी फिल्म फेस्टिवल, फॉक्स इंटर नेशनल, लिबर्टी, गंगटोक, ग्लिफ, स्टॉकहोलन सिटी, स्वीडन फिल्म फेस्ट, जयपुर इंटर नेशनल फिल्म फेस्टिवल इत्यादि में सराही तथा कई सारे इनाम अपने नाम करने वाली यह फिल्म उड़िया तथा हिंदी दोनों भाषाओं में शूट हुई है. मई महीने के आखिर में यह उड़िया भाषा में रिलीज की जा चुकी है उड़ीसा राज्य में. किंतु बहुत जल्द यह हिंदी में भी उपलब्ध होने वाली है.

मेघना साहू का किरदार निभाने वाले देबाशीष साहू हों या बबली का अभिनय कर रहे रणबीर कलसी, उसासी मिश्रा हों या ललित राजदान अपना उम्दा प्रदर्शन करते नजर आते हैं. इसके अतिरिक्त जगबधु पांडा, तेजस राठी, निशांत त्यागी, प्रसन्नजित मोहपात्रा, नेहा निहारिका, अनिल राजपुत इत्यादि फिल्म को अपना भरपूर सहारा देते नजर आते हैं. इनके साथ मिलकर बीस के करीब असली किन्नरों ने जो पर्दे पर रचा है वह भी एक पल के लिए ही महसूस नहीं होता कि ये कलाकार पहली बार अभिनय कर रहे हैं.

लेखक, निर्देशक जितेश कुमार परिदा ने कुंवर शक्ति सिंह के साथ मिलकर स्क्रीनप्ले भी किया है. देबाशीष साहू, नवीन चंद्रा गणेशन के विचार को जिस तरह से लेखक, निर्देशक ने पर्दे पर उकेरा है वह किसी पीड़ामयी, दुःख और क्षोभ से भरी पेंटिंग का अहसास करवाता है. सर्वेश्वर दास का डी. ओ. पी, पीयूष प्रधान का साउंड , प्रवेश सिंह का सिंक साउंड और अधिकारी साहू के द्वारा की गई फिल्म की कलरिंग आपको सीट से हिलने नहीं देते. ये सब आपको लगातार बीच-बीच में हार्ड हिटिंग होते हुए जिस तरह से इस बायोग्राफी को दिखाते हैं उसे देखते हुए आप भीतर से नम होते जाते हैं. और जैसे ही फिल्म होती है आप अपने भीतर भी उस क्षोभ को महसूस करते हैं.

आप भी विचार करते हैं कि इन्हें भी सम्मान जनक जीवन के साथ वह सभी अधिकार मिलने चाहिए जो एक आम इंसान को दिए गए हैं. भारत के संविधान में 'हम, भारत के लोग भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्त्व-संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिये तथा इसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता देते हुए संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं. लेकिन संविधान की इस प्रस्तावना को आखिर मानते कितने लोग हैं. यह भी इस फिल्म को देखने के बाद विचार कीजिए.

सर्जुन सान्याल का लिखा और संजय गायकवाड़ की आवाज में' बसेरा' गीत, अभिषेक आचार्य की आवाज में 'जलसा' तथा अभिजीत मजूमदार का लिखा इरा मोहंतीकी आवाज में 'सजनी सजनी' गाना फिल्म में रूह को तरह की तरह बसे हुए नजर आते हैं. ऐसी लीक से हटकर बनने वाली फिल्मों की एडिटिंग जब एडिटर अमरजीत ओझा जैसे सधे हाथों से हों और उसमें दिलीप डालेई एंड टीम के कॉस्टयूम, रवि मंडल एंड टीम के मेकअप का छौंक लगा हो तो फिल्म और निखर उठती है. फिर साथ ही इसके फिल्माए गए शॉर्ट्स भी आपको हर एंगल से फिल्म की कहानी के अनुरूप लगते हैं.

कहने का मूल सार ये है कि जब कहानी सच्ची हो, कहानी के पात्र सच्चे हों और ऐसी फिल्में जब समाज को कुछ सार्थक देने के इरादे से बनाई गई हों तो देखी तो जरूर जानी चाहिए. साथ ही भारत की पहली ट्रांसजेंडर टैक्सी ड्राइवर मेघना साहू के जीवन के संघर्षों के लिए इसे देखा जाना चाहिए. देखा तो इसे इसलिए भी जाना चाहिए कि वह समाज और इनके अपने जो इन्हें अपने से अलग कर देते हैं, तिरस्कृत नजरों से देखते हैं वही जरूरत पड़ने पर इनके आगे ही हाथ क्यों फैलाने आ जाते हैं. ऐसी फ़िल्में उड़िया भाषा में राष्ट्रीय पुरस्कार के लिए भी अनुमोदित की जानी चाहिए. ताकि उससे किन्नर समाज तथा प्रत्येक व्यक्ति को प्रेरणा मिल सके अपने जीवन में कुछ करने की.

अपनी रेटिंग:- 4 स्टार

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लेखक

तेजस पूनियां तेजस पूनियां @tejas.poonia.18

तेजस पूनियां लेखक, फिल्म समीक्षक हैं। मुम्बई विश्वविद्यालय से शोध कर रहे तेजस का एक कहानी संग्रह और एक सिनेमा पर पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है। आकाशवाणी से नियमित तौर पर जुड़े हुए हैं तथा कई राष्

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