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Updated: 24 जून, 2021 07:31 PM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
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अमित मासुरकर के निर्देशन में बनी शेरनी वो फिल्म नहीं है जिसका मकसद सिर्फ दर्शकों का मनोरंजन करना भर है. वास्तव में ये फिल्म सवालों का वो पुलिंदा है जिस पर पहली बार बॉलीवुड की किसी फिल्म ने गंभीरता से बात रखने की कोशिश की है. सवाल जंगल के और उसमें लगातार धंसते जाने की कोशिश करने वाली इंसानी सभ्यता के हैं. तो पहली बात साफ़ कर दूं कि विद्या बालन की शेरनी में मसाला एंटरटेनर फिल्म नहीं है. मगर इसका मतलब ये बिल्कुल नहीं कि ये बोर करती है कमजोर फिल्म है. शुरू से आखिर तक दर्शाकों को बांधे रखती है.

शेरनी की कहानी मध्य प्रदेश के एक जंगल की है जहां सालों की डेस्क जॉब के बाद विद्या विंसेंट (विद्या बालन) को फ़ॉरेस्ट आफिसर के रूप में पहली फील्ड पोस्ट मिली है. नौ साल की नौकरी में उसे कोई प्रमोशन नहीं मिला है. वो इस बात से निराश है. गवर्नमेंट जॉब में कुछ कर गुजरने आई विद्या ऐसी महिला है नौकरी को लेकर जिसके सपने ख़त्म हो चुके हैं. वो जॉब छोड़ना चाहती है मगर फैमिली फ्रंट पर दूसरी मजबूरियां हैं. विद्या एक काबिल अफसर है और उसमें मुश्किल से मुश्किल हालात से निपटने की क्षमता और हिम्मत भी है.

जंगल को लेकर कई पक्षों की गलतियां हैं, किसी एक को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता. मगर इन्हीं वाजहीं से एक बाघिन ने जंगल की सरहद को छोड़कर इंसानी बस्तियों का रुख कर लिया है. इंसानों पर हमला किया है. अपनी बस्तियों में रहने के बावजूद इंसान खतरे में हैं. जंगल का खतरा. विद्या इस हालत को संभालने के लिए जूझ रही हैं. इस कड़ी में उसे सिस्टम, उसकी पुरुषवादी मानसिकता से भी दो चार होना पड़ता है.

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जंगल जो अब भी कमोबेश अंग्रेजों की तरह कंट्रोल किया जा रहा है. यानी उसके जरिए राजस्व दोहन प्राथमिकता है मगर दूसरी चुनौतियों का निपटारा ही नहीं हो पा रहा या उसे किसी और खतरे के लिए टाल दिया जा रहा है. क्योंकि इंसानी विकास का दीमक, और भ्रष्टाचार धीरे-धीरे जंगल को खोखला करते जा रहे हैं. स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि जंगली जानवर और इंसान एक-दूसरे के वजूद के लिए आमने-सामने आ चुके हैं. जानवर भी हममे से ही एक हैं, पर जंगल में लगातार घुस रही इंसानी बस्तियां इस बात को मानने के लिए तैयार ही नहीं है. राजनीति से गलत-सही पैसे तो बनाए जा रहे हैं मगर स्थायी हल नहीं दिया जा रहा है. इंसान ने जंगलों के साथ सहचर्य के नियम को लांघ दिया है. जंगलों को लेकर सरकारों और इंसानी रवैये की कड़वी सच्चाई शेरनी के हर फ्रेम में दिखती है.

जंगली जानवर इंसानी बस्तियों तक क्यों पहुंच रहे हैं? क्या जंगल का रिजर्व एरिया बना देना, जानवरों को चिड़ियाघरों में पहुंचा देना? या आदमखोर हो चुके जानवरों को मार देना, या जंगल के सहारे गुजर-बसर करने वाली इंसानी बस्तियों को उजाड़कर किसी दूसरी जगह बसा देना ही जंगल से जुड़ी समस्याओं का हल है? जंगल, जीव और इंसान के सह अस्तित्व को लेकर करीब दो घंटे की फिल्म में अमित मासुरकर जितने सवाल उठा सकते थे उन्होंने भरसक उठाया है. पूरी ईमानदारी से.

शेरनी की कहानी अंत तक अपने विषय केंद्र में ही है. पूरी तरह मौलिक भी लगती है. वो कहीं भटकती नहीं है. कहानी को रफली शूट किया गया है. यानी जो जैसा दिखा, जैसा बोला. उसे वैसे ही लिया गया. इस वजह से फिल्म ठहरकर बढ़ती है. तकनीकी रूप से कुछ लोग इसे स्लो कहते हैं. लेकिन यहां का स्लो अखरता नहीं है. शेरनी में नकली चीजों की आड़ नहीं ली गई है.

विद्या एक सामान्य अफसर लगती हैं. सामान्य कास्ट्यूम और बिना मेकअप में उन्होंने अच्छे से रंग जमाया है. संभवत: ईमानदार और मेहनती अफसर उनकी तरह ही होंगे. राजनीति तमाम मुद्दों को लेकर जिस तरह गिद्ध की तरह नजर आती है यहां भी वैसे ही है. घर-परिवार में महिलाओं की उपयोगिता और लैंगिक आधार पर महिलाओं की क्षमता यहां भी वैसे ही कसौटी पर है जैसे समाज में प्राय: दिखती है. शेरनी का मुख्य किरदार भले ही एक महिला है लेकिन इसे नारीवादी फिल्म नहीं कहा जा सकता. क्योंकि शेरनी में विद्या की निजी जद्दोजहद और संघर्ष को अमित ने जंगल पर हावी नहीं होने दिया है. फ़ॉरेस्ट अफसर के रूप में विद्या विन्सेंट ने जिस तरह की चीजों का सामना किया, उनसे पहले मर्दानी और दूसरी तमाम फिल्मों में कई बार दिखाया जा चुका है.

निर्देशन बढ़िया हैं. चूंकि अमित मासुरकर ने शेरनी में विषय की मौलिकता पर ज्यादा जोर दिया है इस वजह से नाटकीय पक्ष कमजोर हैं. कभी-कभी शेरनी आर्ट फिल्म नजर आने लगती है. हालांकि विषय के हिसाब से ये शेरनी की खूबसूरती ही है. विद्या समेत शेरनी के सभी किरदार उभरकर सामने आते हैं. बिजेंद्र काला, विजय राज, शरत सक्सेना हों या नीरज कवि. दूसरे कलाकारों ने भी अपने हिस्से को ईमानदारी से पूरा किया है. हालांकि विजय राज जिस कॉमिक अंदाज के लिए मशहूर हैं वो शेरनी में गायब है. यहां उनका अलग ही अवतार है. शेरनी के संवाद अच्छे हैं. कैमरा भी जंगल को उसके ही नजरिए से देखता है.

शेरनी में सवाल हैं सबक भी हैं. भविष्य के लिए सलाहियत भी है. फिल्म जंगलों के किनारे रह रहे हजारों इंसानी बस्तियों को निश्चित ही एक नजरिया देगी. नजरिया उन लोगों को भी मिलेगा जो जंगल के आसपास तो नहीं है, लेकिन दूर रहकर भी वो उनके जीवन का सबसे अहम हिस्सा है. शेरनी, सरकारों से भी एक गुजारिश करती है- सरकार जंगल को थोड़ा बहुत उसके नजरिए से भी देखिए. जंगल, उसके जानवर हममें से ही एक हैं. अमेजन प्राइम पर स्ट्रीम हुई शेरनी यही बात समझाती है.

नया विषय पसंद करने वालों को शेरनी एक बार जरूर देखनी चाहिए. ये नजरिया बनाने वाली फिल्म है.

लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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