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Updated: 11 जून, 2023 09:36 PM
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''हम रीडर्स को कंज्यूमर्स की तरह ट्रीट करते हैं. हम सस्ती हेडलाइन्स के लिए मौत को भी बेच देते हैं, एक्सक्लूसिव के नाम पर, जो मर चुका है, उसे भी मार देते हैं. पहले पत्रकारिता अच्छी होती थी तो वह अपने आप ही विवादों में आ जाती थी. अब उल्टा है, अब जो विवादास्पद है. वही अच्छी पत्रकारिता बनेगी.'' इस वेब सीरीज में उपरोक्त संवाद है और यही निष्कर्ष भी है, 6 अपेक्षाकृत लंबे एपिसोडों की इस सीरीज का. आज यही कटु सच्चाई भी है मीडिया की- चाहे प्रिंट मीडिया हो या वेब मीडिया या फिर अन्य विभिन्न प्लेटफॉर्म ही क्यों ना हो सोशल मीडिया के.

दरअसल अंधी दौड़ है टीआरपी (टेलीविज़न), लाइक्स (सोशल मीडिया) और सर्कुलेशन (प्रिंट मीडिया) की; जिसके लिए तथ्यों पर मनगढ़ंत थ्योरीज गढ़ी जाती है, डॉट्स कनेक्ट करने के नाम पर कयास लगाए जाते हैं. कहने को आदर्श बघारा जाता है कि यह जनसाधारण को जानकारी मुहैया कराने, और जागरूक करने का माध्यम है ताकि न्यायिक प्रक्रिया और सामाजिक सुधारों में सकारात्म परिवर्तन लाया जा सके. परंतु वास्तविकता में तथाकथित एक्सपर्ट्स, पत्रकार, एंकर मीडिया ट्रायल द्वारा व्यक्तियों के अधिकारों और न्याय के मानदंडों को प्रभावित करते है. मामलों की न्यायिक प्रक्रिया और उचित निर्णय पर दबाव बनाते है. इतना ही नहीं, ये न्यायिक स्वतंत्रता तथा अदालती सुविधाओं को प्रभावित करते हैं क्योंकि निहित स्वार्थवश वे पक्षपाती होते हैं.

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आजकल हेडलाइन मैनेजमेंट के नाम पर सनसनीखेज शब्दों का इस्तेमाल आम है, प्रश्नवाचक मुद्रा में अनर्थ करने की स्वतंत्रता जो है. वेब सीरीज की बात करने के पहले हाल ही में हुई ह्रद्य विदारक रेल दुर्घटना की रिपोर्टिंग की बानगी देखिए- एक नामी गिरामी महिला पत्रकार ने, जिनके पति भी फेमस और वेटरेन पत्रकार हैं और एक बड़े मीडिया हाउस से जुड़े हैं, इस रेल दुर्घटना को कत्लेआम, हत्याकांड निरूपित कर दिया. "स्कूप" महिला क्राइम रिपोर्टर जिग्ना वोरा की स्वयं की गिरफ्तारी से बायकोला जेल में जमानत मिलने तक बिताए गए नौ महीनों के स्वलिखित दस्तावेज "बिहाइंड बार्स इन बायकुला, माय डे इन प्रिजन" से इंस्पायर्ड है. जून 2011 में क्राइम जर्नलिस्ट ज्योतिर्मय डे की हत्या कर दी गई थी.

इस केस में जिग्ना वोरा, जो तब एशियन ऐज नाम के अखबार की डिप्टी ब्यूरो चीफ थी, को फंसा कर जेल भेजा गया. आरोप था कि उनकी ज्योतिर्मय डे के साथ आपसी रंजिश थी. जिस वजह से उन्होंने छोटा राजन गैंग को कुछ जानकारियां मुहैया कराई जिसके आधार पर डे की पहचान कर उनकी हत्या कर दी गई. मगर इस कहानी का केंद्र भारतीय मीडिया और उसकी सनसनीखेज रिपोर्टिंग है. जागृति (जिगना वोरा का परिवर्तित नाम) तेजतर्रार है, उसके सोर्स पुलिस के आला अफसरों से लेकर क्रिमिनल्स तक में है, लेकिन उसकी महत्वाकांक्षा कतिपय राजनीतिज्ञों, पुलिस और मीडिया की मिलीभगत के लिए खतरा बन जाती है और तब उसे बलि का बकरा बनाया जाता है. सीरीज़ बखूबी बताती है असल घटना कितने फर्क के साथ कैसे और क्यों आम जनता तक पहुंचती है.

पितृसत्तात्मक मीडिया के काम में बिज़नेस का दखल, एक महिला की सफलता को उसके दिमाग की बजाय उसके शरीर से जोड़कर देखा जाना, ईमान और इनाम का फर्क, मीडिया की प्रतिद्वंद्विता, जेल की दुर्दशा, अंडर ट्रायल कैदियों का शोषण, इन्वेस्टिगेशन का पुलिसिया कुचक्र और हथकंडे, इन सभी मसलों को डिटेल के साथ पूरी बारीकी से सीरीज़ इस कदर दर्शाती है कि व्यूअर अवाक सा टकटकी लगाए देखता चला जाता है इस सवाल के साथ कि क्या वाकई सिस्टम और व्यवस्था की यही हकीकत है?

बात करें मेकर्स की. निर्देशक हैं 'अलीगढ' , 'शाहिद', 'स्कैम 1992'. हंसल मेहता ने इस फिल्म में जबरदस्त डायरेक्शन किया है और फिल्म का स्टैण्डर्ड सेट कर दिया है. इस फिल्म में जागृति का लीड रोल निभाया है करिश्मा तन्ना ने, जिसने गिल्टी माइंडस की रेप पीड़िता सेलिब्रिटी माला कुमारी के रूप में आस जगाई थी. कहना पड़ेगा उम्दा काम किया है और गुजराती होना उन्हें एडवांटेज दे गया है. जागृति के बहुआयामी करैक्टर के हर शेड को उन्होंने बखूबी जिया है. अन्य सभी मसलन प्रसन्नजीत चटर्जी, मोहम्मद जीशान अयूब, हरमन बावेजा, देवेन भोजानी ने भी अच्छा काम किया है.

कुल मिलाकर छह एपिसोडों की यह सीरीज अपनी क्रिएटिविटी, लेखन और कलाकारों के परफॉरमेंस से दर्शकों को अंत तक बांधे रखती है. इस सीरीज का संवाद भी बेहतरीन है और लगे हाथों एक और संवाद याद इसलिए आ गया चूंकि एक वेटेरन पत्रकार को बार बार कहते सुना है कि हम दोनों पक्षों की बात सुनाते हैं जबकि उनका पक्षपाती होना ही हकीकत है, "अगर एक आदमी कहे कि बाहर बारिश हो रही है और दूसरा कहे कि बाहर धूप है, तो ऐसे में मीडिया का काम दोनों का पक्ष बताना नहीं, बल्कि खुद खिड़की के बाहर देखकर सच बताना है.''

अंत में एक और बात, सच को सामने लाने का दम, भारतीय मीडिया में खबरें बनाने वालों की खूब खबर लेती है यह वेब सीरीज. अंततः शासन और सत्ता के मुखर विरोध करने वाले एक्टिविस्टों के नाम और तस्वीरें सीरीज के आखिरी एपिसोड के एंड में, क्रेडिट में नजर आते हैं. यह बताने के लिए कि बीते दो दशकों में देश में पत्रकारों के उत्पीड़न की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं.

#स्कूप, #वेब सीरीज रिव्यू, #पत्रकार, Scoop Web Series Review, Karishma Tanna, Mohammed Zeeshan Ayyub

लेखक

prakash kumar jain prakash kumar jain @prakash.jain.5688

Once a work alcoholic starting career from a cost accountant turned marketeer finally turned novice writer. Gradually, I gained expertise and now ever ready to express myself about daily happenings be it politics or social or legal or even films/web series for which I do imbibe various  conversations and ideas surfing online or viewing all sorts of contents including live sessions as well .

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