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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 12 जनवरी, 2023 01:19 PM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
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सिर्फ हिंदी बेल्ट से 275 करोड़ कमाने वाली एसएस राजमौली की आरआरआर ने अपने कॉन्टेंट से समूची दुनिया को हिला के रखा है. फिल्म के कथानक के केंद्र में दो भारतीय क्रांतिकारियों- अल्लूरी सीताराम राजू और कोमाराम भीम का अंग्रेजी उपनिवेश के खिलाफ सच्चा संघर्ष है. एक आदिवासी और एक ब्राह्मण क्रांतिकारी. हालांकि राजमौली ने दो अलग-अलग क्रांतिकारियों की सच्ची कहानियों को एक फिक्शनल जमीन पर खड़ा किया और यह समझाने की कोशिश की कि तब दोनों साथ होते तो क्या होता? आरआरआर के रूप में उन्होंने बेशक ऐसी फिल्म बनाई जिसे देखकर दुनिया की आंखें चुधिया गई हैं. ग्लोबली 1200 करोड़ कमाने वाली आरआरआर के कॉन्टेंट की हर तरफ चर्चा है. न्यूयॉर्क में अवॉर्ड मिलने के बाद प्रतिष्ठित गोल्डन ग्लोब अवॉर्ड 2023 में भी फिल्म ने झंडे गाड़ दिए हैं. फिल्म के गाने 'नाटू नाटू' को बेस्ट ओरिजिनल सॉंग कैटेगरी में सम्मानित किया गया है.

वैसे आरआरआर ऑस्कर 2023  के लिए भी 301 फिल्मों के साथ रिमाइंडर लिस्ट में है. इसमें भारत की तरफ से द कश्मीर फाइल्स, गंगूबाई काठियावाड़ी और कांतारा भी शामिल है. जल्द ही वोटिंग के जरिए फाइनल लिस्ट तय होगी. ऑस्कर में शामिल भारतीय फ़िल्में जबरदस्त हैं. लेकिन इसमें से दो फ़िल्में यानी आरआरआर और द कश्मीर फाइल्स बहस तलब हैं. बावजूद कि दोनों फ़िल्में जिस जमीन पर खड़ी हैं वह त्रासदी लगभग एक जैसी है और उसके पीछे अहम वजह भारत पर विदेशी उपनिवेश का रहना है. मगर हमारे यहां के घोषित और लाभान्वित बुद्धिजीवी जिस वायस्ड विचार प्रक्रिया में तैयार हुए हैं- उन्हें दोनों की जमीन में फर्क नजर नहीं आता. एक ही जमीन पर लगभग एक जैसी फिल्मों को दो अलग-अलग कसौटियों पर कसते नजर आ रहे हैं. स्वाभाविक है कि कुछ के लिए आरआरआर कला है और द कश्मीर फाइल्स प्रोपगेंडा. बावजूद कि कश्मीर फाइल्स में जो भी दिखाया गया है- हफ्ते पन्द्रह दिन में घाटी से नए उदाहरण आते ही रहते हैं.

RRRआरआरआर और द कश्मीर फाइल्स

आरआरआर को नहीं, मगर द कश्मीर फाइल्स को क्यों प्रोपगेंडा कहा जाता है?

भारत में सिर्फ अंग्रेजों का उपनिवेश नहीं था. अंग्रेजों के साथ यूरोप के कई उपनिवेश थे. यूरोपीय उपनिवेश से पहले भी ईरान, तुर्की, अरब और अफगानी उपनिवेश भी मिलते हैं. एक तरह से यूरोपीय उपनिवेश से पहले भारत के भूभाग पर इस्लामिक उपनिवेश ही था. इसे सिद्ध भी नहीं करना है. मगर यूरोपीय उपनिवेश को आगे रखकर इस्लामिक उपनिवेश पर कुछ इस तरह राजनीतिक पर्दा डाला गया कि हम देखकर भी उसे उपनिवेश के रूप में स्वीकार ही नहीं कर पाते हैं. बावजूद कि उपनिवेश छिपाने के लिए जो पर्दा डाला गया है उसमें असंख्य विरोधाभास निकलकर सामने आते हैं. लेकिन विचार प्रक्रिया में लोगों को कुछ इस तरह विवश कर दिया गया है कि विरोधाभास भी हम स्वीकार कर लेते हैं. मगर यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि असल में भारत इस्लाम के उपनिवेश का शिकार था, अभी भी है.

इस्लामिक उपनिवेश पर पर्दा कैसे डाला जाता है इसे सिर्फ दो उदाहरणों से समझा जा सकता है. गंगा जमुनी तहजीब में हिंदी और उर्दू की बहस खड़ी की जाती है. साहित्यकार, पत्रकार और बड़े-बड़े विद्वान तक धोखा खा जाते हैं. या किसी मकसद को सफल बनाने के लिए काम कर रहे होते हैं. नेता तो ऐसे धोखे के इंतज़ार में बैठे ही रहते हैं. भारत को बताया जाता है कि उर्दू भारत की ही जमीन पर पैदा हुई. वह विदेशी भाषा नहीं है. हिंदी को उसके साथ लड़ाया जाता है. हिंदी-उर्दू की बहस में नाना प्रकार के लंबे चौड़े विचार आए दिन आते ही रहते हैं. मगर एक भी विचार और विश्लेषण में दोनोमं भाषाओं की पृष्ठभूमि और जिस जमीन पर जिन वजहों से दोनों भाषाएं पैदा हुईं-चर्चा तक नहीं की जाती. अभी भी सवाल बना ही हुआ है कि हिंदी कैसे पैदा हुई और उर्दू कैसे पैदा हुई? बावजूद यह बता दिया गया कि दोनों भाषाएं बहनें हैं और यहीं की हैं.

उर्दू का जो राजनीतिक दबाव हिंदी पर वही दूसरी भारतीय बहषाओं पर भे एही, मगर विलेन हिंदी ही क्यों है?

बावजूद कि उर्दू का जो राजनीतिक दबाव हिंदी पर है, वही दबाव तेलुगु, मलयाली, उड़िया, मैथिली, मगधी, अवधी, राजस्थानी, मराठी, गुजराती, असमिया और बंगाली पर भी है. मगर क्षेत्रीय भाषाओं के सामने हिंदी को हौवे की तरह खड़ाकर उर्दू के राजनीतिक मकसद को ढांप लिया गया. उर्दू को विक्टिम बना दिया गया. क्या उर्दू विक्टिम भाषा है. दिल्ली, लखनऊ और भोपाल की मजबूरी तो एक हद तक समझी जा सकती है. पर सवाल है कि उर्दू को हैदराबाद और गुवाहाटी में जगह भी कैसे दिया जा सकता है? ज्ञानी भाषाओं में कोई फर्क नहीं होने और भेदभाव नहीं करने का तर्क देते हैं. ऐसे में यह सवाल भी है कि अगर उर्दू और अरबी भारत के लिए स्वीकार्य भाषा है फिर संस्कृत को भेदभावपूर्ण भाषा मानकर उसे ख़त्म करने की कोशिश क्यों दिखती है? किस बात को लेकर संस्कृत से डर लगता है? भारत में कलोई भाषा विक्टिम होने का दर्जा क्लेम कर सकती है तो वह संस्कृत ही है. खैर, अकबर ने एक ठोस मुगलिया उपनिवेश की नींव डाली थी. और उसने फारसी को रातोंरात भारत पर बलात थोपा था. दुर्भाग्य से पैदा हिंदी हो गई. हिंदी ज्यादा भारतीय थी. यह चिंता का विषय था और उसे मुगलिया बनाने के चक्कर में उर्दू पैदा हो गई. उर्दू अब तक कैसे बनी हुई है कभी इस बारे में भी सोचना चाहिए.

हिंदी उर्दू की बहस जहां भी दिखे, ज्ञानियों से दोनों की पैदाइश जरूर पूछना चाहिए. नहीं बताते हैं. क्योंकि बताने में अकबर का महान चेहरा बेपर्दा हो जाएगा. वह महान नहीं रहेगा. अकबर निरक्षर था. सोचिए कि कितना बड़ा तानाशाह होगा वह जिसने एक देश जहां मूल आबादी फारसी के दस शब्द भी नहीं जानती थी रातोंरात शासकीय भाषा के रूप में ओहदा दे दिया. मदरसे बनाए गए और भाषा के जरिए विचार बदलने के लिए ईरान से अध्यापक बुलाए गए. अंग्रेजों से पहले किसी भी विदेशी आक्रमणकारी की टैक्स नीति देख लीजिए. मंदिरों मठों स्कूल कॉलेजों के खिलाफ उनकी कार्रवाइयां देख लीजिए. धर्मांतरण देख लीजिए. गोवा में आज भी यूरोपीय उपनिवेश की खूंखार निशानी के रूप में वह खंबा मौजूद है जहां लोगों को बांधा जाता था. जो ईसाइयत स्वीकार नहीं करता था उसके हाथ काट दिए जाते थे. बावजूद कि यूरोपीय उपनिवेश के कारनामों को उनसे पहले मुस्लिम शासकों के कारनामों से तुलना की जाए तो यूरोपीय उपनिवेश ज्यादा मानवीय और रहमदिल दिखता है. उसकी त्रासदियों का सिलसिला कम है. अंदाजा लगा सकते हैं कि यूरोपीय उपनिवेश से पहले भारत में क्या माहौल रहा होगा?

उपनिवेशों के नैरेटिव का खेल समझना मुश्किल नहीं, सब दूध का दूध और पानी का पानी है

अरब, पेशावर, तुर्की, ईरान, अफगानिस्तान तक भारत से लूटपाट कर चीजें ले जाई गई. इतिहास भरा पड़ा है. बावजूद कि साधनसंपन्न शासकों के नैरेटिव का कमाल देखिए- अकबर को भी महान बताया और उससे जीवन पर्यंत जूझने वाले महाराणा प्रताप भी महान हैं. औरंगजेब तो महान है ही- एक ही समय में उससे जूझने वाले लचित, शिवाजी, संभाजी महाराज और गुरु गोविंद सिंह आदि भी महान हैं. ऐसा इतिहास दुनियाभर में किसी भी देश में नहीं है. भारत में है. औरंगजेब और अकबर को इसलिए महान बनाया जाता है कि उन्हें चाहकर भी औपनिवेशिक ना साबित किया जा सके. इन कोशिशों का नतीजा यह रहा कि हमने पाकिस्तान बाग्लादेश के रूप में एक बड़ा भूभाग गंवाया और  अभी भी हथियाने की कोशिशें जारी हैं. भारत में नाना प्रकार के आध्यात्मिक विचार पनपे, मगर कहीं ऐसा नहीं दिखता कि इतिहास में धर्म विभाजन का बंटवारा दिखा हो. पर पाकिस्तान में इस्लामिक उपनिवेश अपने मकसद में कामयाब रहा. पाकिस्तान बनने के पूरे आंदोलन और उसके पीछे के चेहरों को खंगाल लीजिए. उपनिवेश, उसका मकसद दिख जाएगा.

इलामिक उपनिवेश को बचाने के लिए यह तर्क दे दिया जाता है कि मुगलों ने देश का एकीकरण किया. उससे पहले कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत किस विचार और संस्कृति के सूत्र में बंधा रहता था- लोग चर्चा करना ही पसंद नहीं करते. अभी भी देश के एक सिरे को दूसरे सिरे से वही विचार सूत्र जोड़ता है. भारत के राजा आपस में स्पोर्ट्समैन स्पिरिट से लड़ते थे. एक-दूसरे पर हमला करते थे मगर विरोधी राज्य के किसान, कामगार, शिल्पकारों को छूते तक नहीं थे. फसलों को जलाते नहीं थे. घरों को लूटते नहीं थे. मंदिर-मठ तोड़ने की बात ही दूर है. ठीक-ठीक याद तो नहीं आ रहा, लेकिन शायद इसे फाह्यान या मेगास्थनीज ने अपनी किताब में दर्ज भी किया है. मेगस्थनीज आज के तुर्की के इलाके से था. आज जो तुर्की है उसके तमाम इलाके कभी ग्रीक-रोमन के अधीन ही थे. ऐसा नहीं है कि तुर्की आज ही भारत के पीछे हाथ धोकर पड़ा है. बहुत पहले से पड़ा है. बस निर्णायक इस्लाम के जुडे के बाद हुआ. इस्लाम के दायरे में आने और भाड़े के अरबी लड़ाकों को पाने के बाद भारत को लेकर उसकी तमाम हसरतें पूरी हुईं और उसने उपनिवेश बनाया.

विदेशी राज ख़त्म हुआ मगर जारी है उपनिवेश

राज जरूर ख़त्म होता है. मगर उपनिवेश कभी ख़त्म नहीं होता. उसके निशान उसका सिंडिकेट पीछे रह जाता है. एस जयशंकर बार-बार कहते हैं कि आज की तारीख में हर भारतीय को विदेश नीति और कूटनीति के बारे में दिलचस्पी लेनी चाहिए. क्योंकि इससे हरेक भारतीय के हित सीधे प्रभावित होते हैं. चीजों को तय करने और सच्चाई के पक्ष में खड़ा होने में मदद मिलती है. आप पूछेंगे उपनिवेश कैसे काम करता है? कुछ सवालों का जवाब भर खोजकर समझ सकते हैं. जैसे- भारत लंबे वक्त तक इस्रायल से क्यों दूर रहा? भारत फलस्तीन को चंदा क्यों देता है? पाकिस्तान के साथ भारत के कारोबार की वकालत क्यों की जाती है? इस्लामिक स्टेट से लड़ने भारत से लोग क्यों जाते हैं? नागरिकता क़ानून का विरोध क्यों होता है? कश्मीर में धारा 370 के खात्मे पर रोना क्यों रोया जाता है? जवाहिरी भारत में हिजाब को लेकर चल रहे आंदोलन पर क्यों बोलता है? नुपुर शर्मा के मामले में कैसे तमाम मुस्लिम अमीरात ने भारत पर दबाव क्यों डाला? भारत की वैक्सीन, उसकी दवाओं और उसके अनाज के खिलाफ क्यों प्रोपगेंडा चलाया जाता है? यूरोप में भारतीय मेधा को बदनाम क्यों किया जाता है? और शाहरुख खान की पठान में ग्लोबल टेररिज्म की नई परिभाषा क्यों गढ़ी गई है?

इन तमाम क्यों का जवाब खोजने निकलेंगे तो आप खुद उपनिवेश, उसका एजेंडा, भारत में उसके तमाम अलग-अलग चेहरे, उनके काम, उपनिवेश का बेस और उनकी ताकत के बारे में जान जाएंगे. एक कहावत है- गरीब की लुगाई सबकी भौजाई होती है. चूंकि यूरोप अपनी औपनिवेशिक गलतियों को स्वीकार करता है, सभी तरह के उपनिवेश का बिल उसके ऊपर फाड़ दिया जाता है. उपनिवेश के मामले में यूरोप गरीब की लुगाई है. यह एक तरह से उसके साथ अन्याय भी है. लेकिन यूरोप के 200-250 के दमनकारी शासन पर 800 साल के इस्लामिक दमनकारी शासन की बात तक नहीं होती. क्यों भला? अरबी, तुर्की और ईरानी उपनिवेश को लेकर कोई सामने ही नहीं आता. बल्कि उनके बच्चे जो भारत में छूट गए, अब खुद को खांटी भारतवंशी बताने लगे हैं. बावजूद कि उनकी चिंताओं में इस्लामिक ब्रदरहुड के अलावा कुछ और निकलकर नहीं आता.

द कश्मीर फाइल्स को प्रोपगेंडा कहा जा रहा तो मान लीजिए उपनिवेश का सिंडिकेट काम पर लगा है अभी

स्वाभाविक है कि जब भारत की विचार प्रक्रिया या उसके मानस को इतना मजबूर कर दिया गया है वह तो आरआरआर को उपनिवेश विरोधी फिल्म और द कश्मीर फाइल्स को प्रोपगेंडा ही मानेगी. बात दूसरी है कि आरआरआर का दमनकारी इतिहास अब किताब की बात है और द कश्मीर फाइल्स में एक हजार साल से जारी युद्ध में सीजफायर कभी हुआ ही नहीं. जहां अकबर और महाराणा प्रताप दोनों एक साथ महान हो जाते हैं वहां आरआरआर को उपनिवेश विरोधी फिल्म और द कश्मीर फाइल्स को प्रोपगेंडा तो कहा ही जाएगा. नहीं कहा जाता तो आश्चर्य होता. चिंताजनक बात सिर्फ यह है कि संसाधनों की मदद से भारत में विक्टिम की परिभाषा भी बदली जा रही है. मलयालम की मालिक और पठान का उदाहरण ताजा है. जाति शोषितों की जगह धर्म शोषितों की बहस खाड़ी की जा रही है. इस सुविधाजनक बदलाव को रोकना होगा.

लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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