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Updated: 14 जनवरी, 2018 11:40 AM
मनीष जैसल
मनीष जैसल
  @jaisal123
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सऊदी अरब में 1980 के दशक में कट्टरपंथियों द्वारा सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान के खतरे के चलते सिनेमाघरों को बंद करा दिया गया था. कट्टरपंथियों का यह मानना था कि सिनेमा से सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान को खतरा है. यदि इस तर्क को भारत के संदर्भ में रखकर देखें तो ये कहीं से वाजिब नहीं दिखता. पर इस्लामिक देश होने के नाते प्रथम दृष्टया वहां से ऐसे किसी भी मामले पर हमारी राय यही हो सकती है. सिनेमा अपनी शुरुआत से ही लोकप्रिय माध्यम बनकर उभरा लेकिन इस्लामिक देशों के सिनेमा और उस पर की जाने वाली राजनीति की स्थिति बहुत ठीक नहीं दिखाई देती है.

सांस्कृतिक और धार्मिक लबादा ओढ़े वहां की सरकारों और कट्टरपंथियों ने इस ओर नकारात्मक रवैया ही अख़्तियार किया है. भारत कितना भी अपने लोकतंत्र के निचले स्तर पर खिसकने के प्रयास की ओर बढ़ता हुआ हमें दिखे पर इस्लामिक देशों के सिनेमा पर की जाने वाली राजनीति से स्थिति काफी अलग होगी.

सिनेमा, सऊदी अरब, इस्लाम, फिल्म सऊदी हुकूमत की ये पहल कई मायनों में प्रोत्साहन के योग्य है

हाल ही में सऊदी अरब में वहां के क्राउन प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान द्वारा शुरू किए गए सामाजिक सुधारों के एक हिस्से के तौर पर वहां इस वर्ष मार्च तक व्यावसायिक सिनेमाघरों के खुलने के फैसले को भी देखा जा रहा है. मामला साफ है कि एक रूढ़िवादी देश सामाजिक सुधार के लिए सिनेमा को अहम हिस्सा मानने लगा है. देर से ही सही पर सिनेमा माध्यम को इस रूप में स्वीकार करना एक बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी. मुहम्मद बिन सलमान एक युवा और किंग सऊद यूनिवर्सिटी के लॉ बैचलर हैं. ऐसे में उनसे यह उम्मीद हमें होनी भी चाहिए.

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में सिनेमा पर सेंसर और कट्टरपंथियों का आतंक बढ़ने लगे तो हमें अब ऐसे में क्राउन प्रिंस के फैसले से थोड़ी सीख लेते हुए खुद को और सिनेमा संस्कृति के लिहाज से और मजबूत बनाते हुए दिख जाना चाहिए. मार्च 2018 तक सऊदी में पहला सिनेमा घर खुलने की दिशा में काम शुरू होने की बात संस्कृति और सूचना मंत्री अवाद बिन सालेह अलवाद कुबूल कर चुके हैं. वह अपने एक बयान में बताते हैं कि उनकी सरकार का यह कदम 'विजन 2030' के तहत सुधारों की श्रृंखला का हिस्सा है, जिसमें भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई के अलावा महिलाओं को कार चलाने की अनुमति देना भी शामिल है.

सऊदी सरकार यह भी मानती है कि 12 साल में उनके पास 2000 के करीब सिनेमा घर बन जाएंगे. सऊदी के मौलवियों के तर्क 'सिनेमा से नैतिकता खत्म हो जाएगी' के जवाब में भारत की तरह ही वहां के फ़िल्मकारों ने भी माना कि यू ट्यूब आदि सोशल साइट्स के दौर में किसी भी प्रकार की सेंसरशिप का कोई मतलब नहीं है. हालांकि सऊदी अरब के सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक दृष्टिकोण पर ब्रिटिश अनुसंधान संगठन, चैथम हाउस में अध्ययन और शोध कर रहें शोधार्थी जेन किन्नमोंट ने इस फैसले  के बाद न्यूयार्क टाइम्स को इंटरव्यू देते हुए बताया कि धार्मिक और सांस्कृतिक कंटेन्ट के चलते इस ओर सेंसर की मांग से नौकरी की संख्या में भी इजाफा होगा.

सिनेमा, सऊदी अरब, इस्लाम, फिल्म नामुमकिन को मुमकिन करने के लिए क्राउन प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान की भी तारीफ होनी चाहिए

हालांकि इस पर सऊदी अरब के संस्कृति और सूचना मंत्रालय ने वादा किया है कि फिल्मों को सेंसर और संपादित करने से पहले यह सुनिश्चित कर दिया जाएगा कि वे "राज्य में शरीयत कानूनों और नैतिक मूल्यों के साथ विरोधाभास नहीं रखते हैं." कुल मिला कर क्राउन प्रिंस के 2030 तक के इस भावी मुहिम में उनका ध्येय यही है कि वह फिर से ओपेन और माडरेट इस्लाम की ओर सऊदी अरब को वापस लाएंगे.

सऊदी अरब का बदलता रूप हमें वहां बीते दिनों हुए कॉन्सर्ट, कॉमिक-कॉन पॉप कल्चर फेस्टिवल के आयोजन से भी पता चलता है जिसमें लोगों को पहली बार संगीत पर सड़कों पर नृत्य करते हुए देखा गया था. मौजूदा फैसले से खुश सऊदी की महिला फ़िल्मकार हाइफा अल मंसूर ने ट्वीटर पर लिखा कि इट इज ए ब्युटीफूल डे इन सऊदी अरेबिया. गौरतलब है कि हाइफा 2013 में बनी अपनी फिल्म वद्ज्दा जो सऊदी की पहली एकेडमी अवार्ड में एंट्री पाने वाली फिल्म थी के लिए जानी जाती हैं. फिल्म का संवेदनशील विषय उनकी सिने समझ को जगजाहिर करता है. फिल्म 10 साल की एक ऐसी बच्ची की कहानी कहती है जिसे अपने रूढ़िवादी पड़ोसी के बच्चे की तरह ही साइकिल की चाहत है. इसी वर्ष यहां की पहली रोमांटिक कॉमेडी फिल्म ‘"बराकाह मीट्स बराकाह " जिसका बर्लिन इन्टरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में प्रीमियर रखा गया था, फिल्म ने ऑस्कर के लिए कांटे की टक्कर दी थी. इस फैसले से खुश सऊदी के फ़िल्मकारों ने तो 2030 की पीढ़ी के लिए शुभकामनायें भी देनी शुरू कर दी है.

सच है कि सिनेमाघरों पर प्रतिबंध होने के चलते वहां के समाज की ढेरों किस्से कहानियां उस गति के साथ समाज में प्रतिबिम्बित नहीं हो सकें है कि जितना अन्य देशो के सिनेमा के जरिये उनके समाज का चित्रण  हुआ है. हालांकि हिन्दी सिनेमा ने अरब की कहानियों को लेकर कई प्रयोग करते हुए सफलताएं प्राप्त की हैं. विश्व प्रसिद्ध कथा संग्रह 'अलिफ लैला' पर भारत में मूक दौर से ही फिल्में बननी  शुरू हो गयी थी. शांति जे. देव के निर्देशन में रॉयल सिनेटोन द्वारा 1933 में निर्मित फिल्म 'अलिफ लैला' इसी मुख्य ग्रंथ पर आधारित फिल्म मानी जाती है.

सिनेमा, सऊदी अरब, इस्लाम, फिल्म सऊदी का सिनेमा को स्थान देना एक बड़ा परिवर्तन माना जा रहा है

इसके अलावा के. अमरनाथ की 1953 में इसी नाम से बनी फिल्म, पी आर प्रॉडक्शन की अरेवियन नाइट्स जैसी फिल्में इसी कथा को बखूबी आगे बढ़ाते हुए दिखती हैं. नानू भाई वकील तथा नाना भाई भट्ट के सिने निर्माण का इतिहास अरब कथाओं को जन जन तक पहुंचाने के लिए याद किया जाना भी स्वाभाविक है.

अलादीन और उसके चराग का प्रसंग भारत में जन जन तक व्याप्त है. संभवत: इसकी शुरुआत कलकत्ता के मदन थियेटर में 1933 में बनी फिल्म से हुई. इसके बाद 1938 में पैरामाउंट पिक्चर्स के अंतर्गत नानू भाई वकील ने इसी का पुन: फिल्मी प्रस्तुतीकरण भी किया. 1958 में जय शक्ति पिक्चर्स ने भी 'अलादीन का चिराग' नामक फिल्म, तथा अलादीन की बेटी, अल्लादीन लैला, जैसी फिल्मों  का भी निर्माण किया जिसे भारतीय दर्शकों ने खूब सराहा. अलीबाबा का किरदार भी भारत में खासा प्रचिलित है. इन पर भी हिन्दी में पी एल संतोषी कृत  'अली बाबा चालीस चोर'  एम पी फिल्म्स कृत सन ऑफ अली बाबा, नानू भाई वकील कृत 'खुल जा सिम सिम'   मरजीना, सरगम पिक्चर्स कृत अली बाबा मरजीना 1977 जैसी फिल्में बनी हैं.

अरब की कहानियों का इस्तेमाल भारत में सिर्फ मनोरंजन की दृष्टि भर से ही नहीं हुआ. हातिम के रूप में हमें हिन्दी सिनेमा ने ही एक दूसरों के दुख दर्द को समझने वाला, परोपकारी  पात्र से परिचय कराया. 1933 में मूविटोन ने हातिमताई  फिल्म बनाई फिर 1947 में जी आर सेठी ने इसी फिल्म का पुनर्निर्माण भी किया. नानू भाई वकील ने हातिम ताई शीर्षक से 1940 और 1955 में दो और फिल्में बनाई. बाद में देसाई पिक्चर्स ने भी शान ए हातिम बना कर इसकी कहानी को अग्रेषित करने का काम किया.

अरब कथाओं को सिनेमाई रूप देते हुए भारतीय फ़िल्मकारों ने बगदाद की खूबसूरत हूरों, वहां के चोर उचक्कों के कारनामों, शहजादों और शहजादियों के रोमांस को दिखा भारतीय दर्शकों को आनंदित किया है. इन फिल्मों बगदाद की रातें 1962, बुलबुले बगदाद, हूरे बगदाद, थीफ ऑफ बगदाद, बगदाद का चोर, शेरे बगदाद, बगदाद का जादू, बसरे की हूर, नूरे यमन, अरब का चाँद, अरब का सितारा, अरब का लाल  का नाम लेते हुए इस पूरे परिदृश्य को यहां समझा जा सकता है. 

हालांकि अरब के कथा संसार के अलावा वास्तविक समाज पर ध्यान केन्द्रित करने वाली फिल्मों की कमीयहां भी है और ववहां भी. फिलहाल सऊदी के पढे लिखे क्राउन प्रिंस की भावी योजना पर दुनिया की निगाहें टिकी होंगी. भारत के लिए भी यह जरूरी होगा कि वह फिल्मों को मनोरंजन से इतर शैक्षणिक और सांस्कृतिक ज्ञान देने वाले टूल्स पर देखने की ओर प्रयास करें जिससे स्वस्थ समाज की कल्पना की ओर बढ़ने में और पंख लग सकें.

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लेखक

मनीष जैसल मनीष जैसल @jaisal123

लेखक सिनेमा और फिल्म मेकिंग में पीएचडी कर रहे हैं, और समसामयिक मुद्दों के अलावा सिनेमा पर लिखते हैं.

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