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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 22 नवम्बर, 2022 11:01 PM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
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क्या नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले देश में जो तमाम तरह के राजनीतिक, सामजिक और आर्थिक फसाद दिखते हैं- उसकी जड़ को खाद पानी असल में कांग्रेस से ही मिलता था? यह बड़ा सवाल है जो राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के बहाने कई बार ना चाहते हुए भी सामने आ ही जाता है. अभी सामजिक आंदोलनों के लिए मशहूर रहीं मेधा पाटकर जी ने भी राहुल गांधी के साथ यात्रा की कुछ दूरी तय की. इस पर सवाल हो रहे हैं और होने ही चाहिए. इसलिए भी कि मेधा या उन जैसी तमाम कार्यकर्ताओं ने एक वक्त में नानाप्रकार की परिभाषाओं और आंदोलनों से खुद को जनवादी साबित किया. तब कांग्रेस ही उनके निशाने पर होती थी. तमाम व्यवस्थाएं भी उनके निशाने पर होती थीं, जिनपर परोक्ष/प्रत्यक्ष नियंत्रण कांग्रेस का ही नजर आता है. सिर्फ मेधा ही नहीं हैं, यात्रा में कई दर्जन ऐसे चेहरे हैं, जिनकी पहचान कथित रूप से सामजिक आंदोलनों की वजह से ही है. उन आंदोलनों का सही मकसद क्या था नहीं मालूम, लेकिन उन्हें हटा दीजिए तो तमाम चेहरे एक सेकेंड में बहुत साधारण हो जाते हैं.

लगातार दो टर्म से केंद्र की सत्ता को लेकर कांग्रेस का कोई प्रभावी नियंत्रण राजनीति में कहीं नहीं दिख रहा. कांग्रेस देश के तमाम राज्यों में सिकुड़ भी चुकी है. नए राज्य जीतना तो दूर की कौड़ी, कोई यह भी गारंटी नहीं दे सकता कि फिलहाल जिन राज्यों में सत्ताएं हैं, वहां भी आगे चुनाव के बाद वापसी हो ही जाए. कांग्रेस और समान सोच वाली ताकतों में हताशा, परेशानी और एक भगदड़ साफ़ नजर आ रही है. जोर आजमाइश भी दिख रही है, जिसमें लोकलाज किनारे रख सभी एक-दूसरे के साथ खड़े हो चुके हैं. और उनके साथ आने के पीछे असंख्य विरोधाभास दिख रहे, जो सवाल की वाजिब वजह बनते हैं. ये सामान सोच वाली ताकतें- छोटी छोटी वामपंथी पार्टियां, सिविलि सोसायटी, एनजीओ सेलिब्रिटी, भारत के श्रेष्ठ और ईमानदार अंतर्राष्ट्रीय पत्रकार, वाम विचारधारा को मानने वाले कुछ फ़िल्मी कलाकार, लेखक, एकेडमिक्स हैं. नाना प्रकार के. क्या यह हाई प्रोफाइल सिंडिकेट है कोई? जो किन्हीं हितों के लिए किन्हीं ताकतों के निर्देश पर अब एकजुट एक सूत्री एजेंडा पर काम करते नजर आ रही हो, और उसके मकसद असल में भारत विरोधी ही हों. सवाल तो है यह.

मैं कुछ स्थापित नहीं कर रहा. आशंकाएं हैं. भारतीय परंपरा में आखिर चीजों का मूल्यांकन तो ऐसे ही होता है. सही गलत, हित अहित की पहचान तो ऐसे ही होती है. सवालों को कसौटी पर कसा जाता है तमाम पहलुओं को लेकर. उनके बीच के कनेक्शन को हटाकर या नए कनेक्शन जोड़कर. फिर भारत जोड़ो यात्रा से जो सवाल निकल रहे हैं, उन्हें कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है?

bharat jodoराहुल गांधी मेधा पाटेकर. फोटो- भारत जोड़ो यात्रा के हैंडल से साभार.

असल में जब तक कांग्रेस सत्ता के केंद्र में थी या उसकी राजनीति ताकतवर थी, चीजों को प्रभावित करती थी- उस दौरान यही ताकतें कांग्रेस के खिलाफ काम करती नजर आती थीं? सोचिए कि देश में खूनी नक्सलवाद/माओवाद किसके दौर में शुरू हुआ, सत्ता पर कौन काबिज था? नेताओं के पड़ोस में रहने वाले युवा वैचारिक झांसे में क्रांतिकारी बन बैठे और नेताजी के बेटे विश्वविद्यालयों में प्रोफ़ेसर, बड़े प्रकाशन संस्थानों के लेखक, एनजीओ के चेहरे, अंतर्राष्ट्रीय पत्रकार, सेकुलर कार्यकर्ता और लोकतांत्रिक व्यवस्था में फिर बैठने वाले कॉरपोरेट संस्थानों के क्रीम पोस्ट्स का स्वाद चखने वाले हाई सैलरीड कर्मचारी. सोचने वाली बात है कि छत्तीसगढ़/झारखंड/ओडिशा आदि में माओवाद के खात्मे के नाम पर आदिवासियों की हत्याएं किसके दौर में शुरू हुईं? वह वाम जो इन्हीं चीजों के लिए कांग्रेस को पानी पी-पीकर गरियाता रहा, आज भारत जोड़ों में "गलबहियां" करते नजर आता है. बस्तर और दंतेवाड़ा में ऑपरेशन ग्रीन हंट और सलवा जुडूम जैसी कथित दमनात्मक कार्रर्वाई का विरोध करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता आज किस मुंह से राहुल गांधी को अपने कंधे का सहारा दे रहे. सर्कस का क्लाइमैक्स क्या है?

आखिर यह क्यों ना माना जाए कि असल में यह वाम और कांग्रेस का एक मिला-जुला सामजिक/राजनीतिक वर्चस्व बनाए रखने का 'खेल' था. एक रणनीति थी. अविश्वास, निराशा, डर का भ्रम खड़ा किया गया और लोगों को उसमें उलझाकर सत्ताओं को अपने हाथ में रखा गया. सालों साल. ताकि सवाल ना हों कि चीन या दूसरे देशों के साथ-साथ निकला भारत आखिर पिछड़ क्यों गया. उसकी गति स्वाभाविक क्यों नहीं है. 1995 तक भारत पाकिस्तान से भी पिछड़ा नजर आता है आधुनिक विकास की तमाम परिभाषाओं में. और वामवादी पार्टियों के साथ-साथ उनसे सहानुभूति राज्खाने वाले पूर्व वाम नेताओं, सामजिक कार्यकर्ताओं से भी सवाल पूछना चाहिए कि बताओ आप कि तब जो आप कर रहे थे वह कौन सा जनवाद था?

आज नॉर्थ ईस्ट की एक अलग ही छवि है. सिर्फ आठ साल पहले क्या स्थिति थी वहां? कश्मीर से कम भयावह स्थिति नहीं थी. वहां भी निराशा, अविश्वास और भ्रम की दीवार खड़ी की गई थी. बावजूद कि आज नॉर्थ ईस्ट में सुई पटक सन्नाटा है. लेकिन वही कश्मीर भारत की तमाम सकारात्मक कोशिशों के बावजूद ऐंठा नजर आता है. क्यों ना माना जाए कि नॉर्थ ईस्ट को कुछ सरकारों ने एक 'उपनिवेश' की तरह डील किया. वहां की स्थितियों को भारत विरोधी बताकर शेष भारत में वहां से आई लाशों और खूंरेजी घटनाओं का भय दिखाकर वोट पॉलिटिक्स की गई. असल में जो समस्या थी उसे क्यों नहीं निपटाया गया, यह पूछा जा सकता है आज तमाम लोगों से. जवाब देना उनकी जिम्मेदारी है. राजीव गांधी की प्रचंड बहुमत से चुनी गई सरकार, समूची न्यायपालिका, पूरा सिस्टम मुट्ठीभर के सड़कछाप मौलानाओं के आगे झुक गया. शाहबानों मामले में सिर्फ पांच सौ रुपये का मुआवजा ना देने के लिए. और राहुल गांधी उसी यात्रा में एक नाबालिग लड़की का हाथ थामे बुरके का प्रचार करते दिखे. मौलानाओं को राजनीति की सुस्वादु मिठाई तो कांग्रेस ने बनाई जिसका स्वाद चखने के लिए भारतीय राजनीति में अंधी होड़ मच गई. भला वह कांग्रेस आज की तारीख में तुष्टिकरण के लिए भाजपा तो क्या ईमानदारी से ओवैसी पर भी सवाल उठाने लायक नहीं है. ओवैसी से भी विध्वंसक मकसद और विचारधारा दिख रही अब उनकी.

मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति में भारत ने क्या कीमत चुकाई है- उसकी गिनती नहीं की जा सकती. मगर यात्रा में भारत विभाजन के मास्टरमाइंड अल्लामा इकबाल को हीरो की तरह पेश किया गया. PFI का जिस तरह बचाव किया गया- उसके नतीजे यात्रा गुजरने के बाद कश्मीर पहुँचने से पहले ही पीछे के गुबार में दिख सकते हैं. मेंगलुरु और कोयंबटूर टेरर मामले को उठाकर देख लीजिए, और यह बहुत संवेदनशील मामला है. किसे बार-बार तमाम एंगल से पलट-पलट कर देखिए. जिसे राष्ट्रीय मीडिया ने देरी से और बहुत गैरजिम्मेदारी से एड्रेस किया. चाहें तो पूरा मामला यहां क्लिक कर पढ़ सकते हैं. और वह भी अगोदी मीडिया के हवाले से.

कांग्रेस अपने कार्यकाल में मंजूर किए गए तमाम संयत्रों की अब मुखालफत कर रही है. सालों बाद एक यात्रा शुरू करने से पहले कांग्रेस को समझ में आ रहा कि वह गलती थी और उससे पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा था. सिविलि सोसायटी ने एक स्वर से संयत्रों का विरोध किया था. कहीं कम विरोध, कहीं ज्यादा. एनरान और कुडनकुलम पर सिविलि सोसायटी और वाम के विरोधाभास भी अंतर्राष्ट्रीय कनेक्शन की एक दिलचस्प कहानी बयान करते हैं. फिर क्यों ना माना जाए कि असल में तब जो पक्ष विपक्ष दिख रहा था- असल में वह आंखों का धोखा था और भारत जोड़ो यात्रा की तस्वीरें सारी धुंध को हटाने के लिए पर्याप्त हैं. हिंदुओं में विभाजन के लिए कर्नाटक और दक्षिण में वीरशैव आंदोलन किसके इशारे पर हुआ और गौरी लंकेश ने किस तरह हिंदुओं को बांटने की पृष्ठभूमि तैयार की, वह भी एक ऐसी कहानी पर असल में जिसे उन्होंने मिथक ही माना. मिथक अचानक से सच्चा कैसे हो गया कॉमरेड? यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण था कि गौरी लंकेश की हत्या हो गई. यात्रा में राहुल के साथ उनकी मां भी कुछ देर चलीं. भला किसलिए?

प्रशांत भूषण समेत तमाम सिविल सोसायटी उत्तर पूर्व और कश्मीर में भारतीय सेना पर उत्पीड़न के आरोप लगाते रहे. उन्हें आकर बताना चाहिए कि भला आठ साल में सेना ने ऐसा कौन सा ऑपरेशन चलाया कि समूचा उत्तर पूर्व शांत हो गया है. नागालैंड के भी सबसे रिमोट क्षेत्रों में तमिलनाडु और पंजाब के लोग भी अब घूमने जा रहे हैं. उत्तर पूर्व से आने वाले वीडियो तो लोग देख ही रहे होंगे. खबरें तो अब भी वहां से आ रही हैं. कम से कम लालू यादव और नीतीश कुमार को तो जरूर पूछना ही चाहिए कि अब उत्तर पूर्व से बिहारियों की लाशें क्यों नहीं आतीं. और यह चमत्कार कैसे हो गया?

1984 में में पंजाब में जो अराजकता पनपी वह किसकी देन थी. क्या कांग्रेस की सरकार ने वहां पहले चीजों को बर्बाद होने नहीं दिया और जब हालात खराब हो गए तो उसका और खराब उपचार किया. सिखों की देशभर में हत्याएं की गई. माफ़ करिए तमाम सिख उत्पीड़नों के पीछे कांग्रेस कार्यकर्ता ही थे और यह साफ़ हो चुका है. यह हिंदू सिख संघर्ष नहीं था. यह कांग्रेस और सिख संघर्ष था. देश ने उसकी भारी कीमत चुकाई है. और आगे भी चुकाने के लिए तैयार रहना होगा. नागरिकता क़ानून, किसान आंदोलन के लिए, सिखों के हमदर्द बनकर दिल्ली में महीनों जिन लोगों ने गदर काटा- वे चेहरे भारत जोड़ो आंदोलन में क्या कर रहे हैं? तमिलनाडु में जोर्ज पुनैया जैसे कट्टरपंथी के पास राहुल को कौन सी जरूरत ले गई. पुनैया जो तमिल पहचान के बहाने हमेशा एक विभाजक लाइन पर खड़े नजर आते हैं.

मेधा पाटेकर कभी गुजरात दंगों के विरोध के नाम पर वहां की सरकार को घेरती दिखती हैं, कभी पर्यावरण कार्यकर्ता के नाम पर. और कभी सीधे चुनाव में भी उतरती हैं. अब यात्रा में भी साथ आईं. क्या है यह? और क्या दस साल पहले गोदी मीडिया की जगह कांग्रेस मीडिया थी. तब तो फैक्ट चेक भी नहीं था. कैसी महागर्द रही होगी तब. भारत जोड़ो यात्रा से सहानुभूति रखने वाले, हर सुबह मोदी सरकार को गरियाने वाले और उसी मोदी सरकार से 'पारदर्शी तरीके' से पुरस्कार लेने वाले पत्रकारों/लेखकों को भी बताना चाहिए कि वह किस मीडिया का हिस्सा थे आज से आठ साल पहले. यह तो सीधे-सीधे राजनीति है और साफ़ दिख रहा कि सबके सब कांग्रेस के लिए ही काम करते रहे हैं. क्या कोई तर्क है जिसके आधार पर दावे से कहा जा सके कि असल में सारे फसाद की जड़ कांग्रेस एंड टीम नहीं थी. और भला किस भरोसे और उम्मीद से लोग कांग्रेस को सत्ता दे सकते हैं. अयोध्या के राम मंदिर विवाद का जिक्र नहीं किया. कांग्रेस की भूमिका सबको पता है. असंख्य मामले हैं जो कांग्रेस और उसके साथ दिख रहे लोगों को कठघरे में खड़ा करने के लिए पर्याप्त हैं.

राहुल गांधी और उनके तमाम शुभचिंतक भले इसे भारत जोड़ो यात्रा समझ रहे हों. लेकिन यह किसी भी सूरत में भारत जोड़ो यात्रा नहीं दिख रही है. यात्रा के जरिए जिस तरह आर्थिक-सामजिक-राजनीतिक और धार्मिक आधार पर विभाजक मुद्दों को तैयार करने की कोशिश है- उसके अंजाम खतरनाक हो सकते हैं. दुर्भाग्य से उसकी झलकी नजर आने लगी है. यह असल में बदलाव और परिवर्तन की अकुलाहट नहीं बल्कि सत्ता से और दूर होते जाने की पीड़ा भर है.

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लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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