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Updated: 23 फरवरी, 2019 04:39 PM
मनीष जैसल
मनीष जैसल
  @jaisal123
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14 फरवरी को पुलवामा में हुए आतंकी हमले की घटना ने पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया है. आतंकवादी हमले से देश के 46 सीआरपीएफ के जवानों की मौत हुई है. जिससे देश के अंदर का तनाव लगातार जारी है. आतंक का दूसरा नाम बन चुके पाकिस्तान को इस हमले का दोषी करार दिया जा रहा है, लेकिन पाकिस्तान की दलील भी अब मीडिया की सुर्खियों में हैं. नए नवेले पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान मीडिया से समक्ष आते हुए यह तक कहते हैं कि इस तरह की घटनाओं से हमारा क्या फायदा होगा? काश पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान को भारत क्रिकेट की पिच की तरह ना दिख रहा हो. ध्यान रहे कि पाकिस्तान दोनों में ही माहिर है. क्रिकेट की पिच पर भी और आतंक के रास्ते पर भी. 

पुलवामा आतंकी हमला, पाकिस्तानी कलाकार, फिल्म इंडस्ट्री   सवाल ये उठता है कि क्या पाकिस्तानी कलाकारों को भारत में बैन करना ही भारत पाकिस्तान समस्या का समाधान है

हम पाकिस्तानी आतंक से वर्षों से जूझ रहे हैं. इसके निपटने के कई तरीकों के बीच हमने पाकिस्तान से सिनेमाई और मनोरंजन के क्षेत्र में संबंध को रोक कर भी कई बार कोशिशें की हैं. भारत कई बार उन्हें बैन कर चुका है और फिर उनसे संपर्क स्थापित कर चुका है. लेकिन इसका कोई सार्थक नतीजा नहीं निकाल सका हैं. पुलवामा हमले के कई दिनों बाद अब यह खबर फिर से हैं कि पाकिस्तानी कलाकारों को प्रतिबंधित किया जा रहा है.

हमें इस पूरे मसले पर वैश्विक नज़र डालते हुए यह देखना होगा कि कैसे दुनिया के अन्य देशों के बीच ऐसे मामले में रिश्ते किस तरह से सुलझे हुए हैं. फिर वो चाहे यूएसए हो या फिर रूस. रूस के भिन्न कलाकारों का इतिहास उठा कर देखा जाए तो यह पता लगाया जा सकता हैं कि भिन्न मुद्दों पर अमेरिका और रूस का आपसी तालमेल जैसा भी रहा हो लेकिन किसी भी तरह से उनके सांस्कृतिक सामंजस्य में किसी तरह का अवधान कम ही देखने को मिलता है.

पूरी दुनिया डेविड बर्लियुक, मार्क रोथको, मैक्स वेबर, पावेल टेचलिटचेव और निकोलाई फीचिन,जॉन ग्राहम, अर्शाइल गोर्की, जैसे कलाकारों को अमेरिका के नाम के साथ जोड़ कर देखती है. असलियत में वे रूसी थे. उन्हें अमेरिका ने उसी तरह से अपने देश में जगह दी जैसे ख़ुद अमेरिकी कलाकार अमेरिका में रहते हैं. कला और संस्कृति के आदान प्रदान को क़रीब से देखने वाले दुनिया भर के शोध कर्ता यह शोध भी कर रहे हैं कि कैसे किसी देश से प्रवासित हुए कलाकारों का डायस्पोरा बनता है और वह धीरे धीरे उसी देश के कहलाने लगते हैं.

इस संदर्भ को अगर भारत बनाम पाक की दृष्टि से देखने की कोशिश करें तो यह कह पाना मुश्किल नही हैं कि पाकिस्तान को यह समझने की ज़्यादा ज़रूरत है कि  कैसे उनके ही देश का टैलेंट दूसरे देशों में जा रहा है. वहीं दूसरी तरफ़ भारत के सामने एक विकसित राष्ट्र की तरह सोचने और बड़ा दिल रखने की चुनौती भी है कि वह कैसे पाकिस्तान से आगे कलाकारों को इतना प्रभावित करने कि उन्हें भारत से वो प्यार और इज़्ज़त मिले कि वह यहीं के होकर रह जाएं.

मुश्किल वक़्त में भारत के पास प्रतिबंध की राजनीति से ऊपर उठ कर थोड़ा बेहतर फ़ैसले लेने की ज़रूरत है. जिससे दुनिया की नज़रों में भी भारत अमेरिका सा प्रभावशाली बनता दिखे. सीमा पर तनाव होने से कलाकारों और उनके प्रदर्शन को प्रतिबंध करना इसका सोल्यूशन नही हैं. आप सोचिए कि सूफी संगीत का जाना पहचाना नाम राहत फतेह आली खान को टी-सीरीज के प्रोजेक्ट से निकाले जाने से या आतिफ असलम को सलमान खान की फिल्म 'भारत' और 'नोटबुक' में दी जाने वाली आवाज से निकाल कर हमने खुद को संकीर्ण कर लिया है.

क्यों ना भारत ऐसा करे कि ये कलाकार खुद भारत को ही अपना घर बना लें. जैसा रूस के कलाकारों ने अमेरिका को अपना कर किया है. आतंकवादी हमले में पाकिस्तान का हाथ जरूर है. लेकिन उन सभी का नहीं, जिन्होने दोनों देशों के सामाजिक सांस्कृतिक सौहर्द्र को आगे बढ़ाने में अपना योगदान दिया है. यह भी सत्य है कि पाकिस्तान का मनोरंजन उद्योग भारत पर अस्सी फीसदी टिका हुआ है वहीं उसका राजस्व में होने वाला नुकसान भी जगजाहिर है.

पाकिस्तान को इन सभी मामलों में भी गंभीरता से सोचने की जरूरत है. नहीं तो वे दुनिया के नक्शे से सांस्कृतिक तौर पर गायब हो जाएंगे. पाकिस्तान को यह समझना होगा कि उनके यहां का टेलेंट उन्हें अपनी नई ज़मीन दे सकता है. लेकिन उसे अपनी सांस्कृतिक विरासत और नई पीढ़ी के लिए बेहतर ज़मीन तलाशनी होगी. वहीं भारत के लिए यह बेहतर मौका है इन कलाकारों को अपनाकर खुद को बड़ा बनाने का. कह सकते हैं कि यही शहीदों की सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

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लेखक

मनीष जैसल मनीष जैसल @jaisal123

लेखक सिनेमा और फिल्म मेकिंग में पीएचडी कर रहे हैं, और समसामयिक मुद्दों के अलावा सिनेमा पर लिखते हैं.

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