द कश्मीर फाइल्स को रोकने के लिए RRR के पक्ष में पिटीशन, विदेशी ताकतों को दर्द क्यों हो रहा?
द कश्मीर फाइल्स ऑस्कर में ना पहुंच पाए इसके लिए तमाम संस्थाएं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रयास कर रही हैं. दक्षिण के सिनेमा को भी हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है. बिना कश्मीर फाइल्स की आलोचना किए पब्लिक ओपिनियन बनाने की कोशिश हो रही है कि आरआरआर ऑस्कर के लिए ज्यादा बेहतर फिल्म है. क्यों?
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इसी साल आई एसएस राजमौली की आरआरआर को लेकर इंटरनेट पर एक पिटीशन चली. यह अनोखी पिटीशन है इसलिए भी कि यह जिस प्लेटफॉर्म पर है वहां आमतौर पर किसी मसाला एंटरटेनर के लिए हाल फिलहाल कोई मुहिम नजर नहीं आई. हो सकता है कि हो भी लेकिन नज़रों के सामने ना आई हो. मुहिम अगर करणन, सरदार उधम, सरपट्टा परम्पबरै या मंडेला जैसी फिल्मों के लिए चलाई जाती तो बात समझ में आती. लेकिन भारतीय सिनेमा में आरआरआर जैसी कामयाब मसाला एंटरटेनर को भला ऐसे मुहिम की जरूरत क्यों पड़ने लगी? पिटीशन Change.org इंडिया के प्लेटफॉर्म से चलाई जा रही है. हो सकता है कि और भी प्लेटफॉर्म पर इस तरह के कैम्पेन हों. नहीं होंगे तो इतना दावे से कहा जा सकता है कि ऑस्कर के लिए भारत की प्रवृष्टि तय होने तक ऐसे ढेरों अभियान देखने को मिलेंगे. नाना प्रकार के अभियान.
चेंज डॉट ओआरजी इंडिया के प्लेटफॉर्म पर आरआरआर को लेकर चल रहे कैम्पेन वाकई कौतूहल जगाने वाला है. पिटीशन जिस विवरण के साथ संबंधित प्लेटफॉर्म पर है- वहां बताया गया कि आरआरआर साल 2022 में भारत की सबसे बढ़िया फिल्म है. इसे स्वीकार करना चाहिए. इसलिए कि फिल्म को पॉजिटिव रिव्यू मिले हैं, बॉक्स ऑफिस के रिकॉर्ड तोड़े हैं और दुनियाभर में करीब 1000 करोड़ से ज्यादा कारोबार भी किया. पिटीशन में फिल्म फेडरेशन ऑफ़ इंडिया से सीधे अनुरोध किया गया है कि राजमौली के निर्देशन और जूनियर एनटीआर और रामचरण स्टारर आरआरआर को आगामी ऑस्कर में भारत की तरफ से आधिकारिक एंट्री के रूप में भेजी जाए.
Make RRR India's Official Entry For Oscars 2023 - Sign the Petition! https://t.co/rh5hspEMo2 via @ChangeOrg_India
— Vamsi Kaka (@vamsikaka) September 16, 2022
असल में यह प्लेटफॉर्म आमतौर पर मानवीय, श्रमिक, नस्लीय, पर्यावरणनीय और लैंगिक समानता जैसे दुनियाभर अनेकों सामजिक मुद्दों पर अभियान चलाता दिखता है. चेंज डॉट ओआरजी खुद को दुनियाभर में तमाम सामजिक बदलावों के लिए प्रतिबद्ध, प्लेटफॉर्म भी बताता है. उसका मकसद बदलाव की दिशा में लगे लोगों को सशक्त बनाना है. अब सोचने वाली बात यह है कि भला 'आरआरआर' के ऑस्कर में जाने से किस तरह का बदलाव होगा और किसे सशक्त किया जा रहा है? उसके पीछे कौन है? क्या चेंज डॉट ओआरजी जैसे प्लेटफॉर्म पर फिल्म के पक्ष में चलाए जा रहे पिटीशन के मायने, जो स्पष्ट दिख रहा है उससे कहीं ज्यादा हैं, जो अस्पष्ट है और नहीं दिख रहा है?
बॉलीवुड के चरित्र, ऑस्कर में भेजी जाने वाली फिल्मों और आरआरआर को लेकर उसके पक्ष में हाल के दिनों में दिखा अंतरराष्ट्रीय झुकाव तमाम चीजों को खंगालने पर विवश करता है. अभियान का कृतिम नजर आना शक पैदा करता है. क्योंकि तमाम चीजें बिल्कुल स्वाभाविक नहीं दिख रही हैं. असल में आरआरआर ऑस्कर में पहुंचे या भाड़ में जाए- पिटीशन के पीछे लगे लोगों का मकसद उसे ऑस्कर दिलवाना नहीं है. असल में आरआरआर को एक हथियार की तरह इस्तेमाल कर उसके जरिए राजनीतिक हितों की सुरक्षा करना है. पिटीशन का सिर्फ एक मकसद है कि 'द कश्मीर फाइल्स' को किसी भी सूरत में ऑस्कर तक पहुंचने से रोकना है. और इस दिशा में चेंज डॉट ओआरजी पर दिखी पिटीशन पहली और आख़िरी कोशिश नहीं है. 'द कश्मीर फाइल्स' रिलीज होने के बाद से ही इसे ऑस्कर में आधिकारिक रूप से भेजे जाने की चर्चा शुरू हो गई थी. कोई शक शुबहा नहीं कि सरकार किसी 'जनदबाव' के आगे मजबूर ना हुई तो कोई इसके ऑस्कर में जाने और अंतरराष्ट्रीय ध्यान आकृष्ट करने से रोक ले.
द कश्मीर फाइल्स में अनुपम खेर.
द कश्मीर फाइल्स ने मुश्किल यह पैदा कर दी है कि भारतीय समाज और राजनीति में अप्रांसगिक हो चुके एक धड़े को छोड़ दिया जाए तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक किसी ने भी विवेक अग्निहोत्री की फिल्म को लेकर आपत्ति नहीं जताई. फिल्म को लेकर जमीन पर एक मजबूत और स्पष्ट पब्लिक कैम्पेन दिखा. अब द कश्मीर फाइल्स को तभी रोका जा सकता है जब उसके सामने ऑस्कर के लिए एक और श्रेष्ठ फिल्म का नैरेटिव खड़ा कर दिया जाए और सरकार वोट पॉलिटिक्स की वजह से दबाव में झुक जाए. भारतीय समाज और राजनीति में अप्रांसगिक हो चुके धड़े को ऑस्कर एक मौके के रूप में दिखा है जो फिलहाल एक ही तीर से कई निशाने साधते नजर आ रहा है.
एक- दक्षिण और बॉलीवुड की बहस ने हिंदी के जिन चुनिंदा निर्माताओं, अभिनेताओं और दूसरे फिल्म मेकर्स के सामने कारोबारी संकट खड़ा किया है उन्हें द कश्मीर फाइल्स और आरआरआर के बहाने उत्तर और दक्षिण की बहस में उलझाकर वापस अपने एजेंडाग्रस्त रचनात्मक भ्रम में जकड़ लेना है. दूसरा- अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर को लेकर दशकों से मानवअधिकार, आजादी के संघर्ष, भारतीय सशस्त्र बालों के उत्पीड़न का जो नैरेटिव बना हुआ है- उसे विदेशी भूमियों पर बरकार रखना है. यह छिपी बात नहीं कि कश्मीर समेत समूचे देश में भारत को धार्मिक राजनीतिक आधार पर अस्थिर रखने की अपनी काबिलियत की वजह से पाकिस्तान को तमाम फंड मिलते हैं. यह उसकी विदेशी मुद्रा का बहुत बड़ा स्रोत है जो अब नतीजे ना देने की वजह से लगभग बेमतलब सिद्ध हो चुका है.
ऑस्कर में द कश्मीर फाइल्स के पहुंचने और बहस होने का एक मतलब यह भी है कि अलगाववादियों और आतंकियों की बौद्धिक कलई का दुनिया के सामने खुल जाना. क्योंकि फिल्म की रिलीज से पहले जिस तरह आम भारतीय कश्मीर के तमाम पक्षों को नहीं जानते थे या गैरमुस्लिम कश्मीरियों के नरसंहार का सामना करने, किताब लिखने, संघर्ष करने, लंबी लंबी कानूनी लड़ाइयां करने के बावजूद नाना प्रकार के अवरोधकों की वजह से नहीं जान पाए थे- मगर विवेक अग्निहोत्री की फिल्म ने उन चीजों को लेकर सारे कुहासों को एक झटके में साफ़ और स्पष्ट कर दिया. उत्पीड़न की एक ऐसी अंतहीन दास्तान जो यहूदियों के ऐतिहासिक अनुभव से किसी मायने में रत्तीभर कम नहीं थी. सिनेमाई मानदंडों के आधार पर तो शक ही नहीं करना चाहिए कि ऑस्कर में पहुंचने के बाद द कश्मीर फाइल्स को कोई नजरअंदाज कर सके. भारत में इस फिल्म ने जो असर डाला है वह अंतरराष्ट्रीय भी हो सकता है. डर यही है.
द कश्मीर फाइल्स
फिल्म जब आई थी और बंपर हिट होती दिखी- मैं भी हैरान था कि इसमें क्या है? पहली बार देखा तो लगा कि यह तो कुछ घटनाओं का कोलाज भर है. तमाम घटनाओं पर मैं भी भरोसा नहीं करता और एक संपादक की हैसियत से कश्मीरियों के उत्पीड़न की ना जाने कितनी कहानियों को झूठ मानते हुए छापने से इनकार कर चुका हूं. दिल चिंतन कुछ कहता, दिमाग कहीं और लेकर चला जाता. ना जाने कितने सीनियर्स और जूनियर्स को हतोत्साहित भी किया. कभी कश्मीरियों का पक्ष जानने की कोशिश नहीं की. उलटे इसके विपरीत विचारों से प्रभावित रहा. हमेशा. लेकिन जब फिल्म की घोषणा शुरू हुई कश्मीर के दूसरे पक्षों को सुनने निकला. दरजनों आपबीती वीडियो-लेख और प्रतिष्ठित किताबें (जिन्हें वाम भी मान्यता देते हैं) पढ़ी तो लगा कि मैं गलत था. कश्मीर को लेकर मेरी तरह तमाम लोग गलत हैं. फिल्म में जो दिखाया गया वह हवा हवाई नहीं है. बल्कि अमानवीयता को कम ही दिखाया गया. चीजें फिल्म से भी कहीं ज्यादा भयावह थीं. तब.
इसी चीज ने दर्शकों को झकझोरा कि देश में यह सब हुआ और कश्मीर को लेकर जो रोने की आवाजें सुनाई पड़ती हैं- मगर उस समय की धुन तो एकदम अलग है. दोबारा जब इसे देखा तब नजर आया कि यह तो क्राफ्ट के माममे में एक अद्भुत फिल्म है. इसमें क्लाइमैक्स नहीं है. स्क्रीनप्ले सीधा सपाट है. कोई ट्विस्ट टर्न्स नहीं. बावजूद क्राफ्ट स्पीलबर्ग की Schindler's List से भी कई मायनों में लाजवाब है और प्रायोगिक.आमतौर पर होता यह है कि क्लाइमैक्स फिल्मों को लेकर होने वाली बातचीत और उसके विषय को लगभग निर्धारित कर देती हैं. एक तरह से 'बंद दायरा'. मगर द कश्मीर फाइल्स अपनी बुनावट में बंद पड़े दरवाजों को खोलने की खूबी रखती है. और इसी खूबी ने फिल्म को कामयाब बनाया. मनोरंजक श्रेणी में नहीं होने के बावजूद इसने सिर्फ अपनी संवाद क्षमता की वजह से लोगों को झकझोर के रख दिया. संवाद की ताकत द कश्मीर फाइल्स को भारतीय सिनेमा की महान फिल्म बनाती है.
इस फिल्म में पूरी क्षमता है जो कश्मीर को लेकर भारत विरोधी देसी विदेशी राजनीति को हमेशा-हमेशा के लिए ख़त्म करने का मार्ग सुगम कर दे. फिल्म से उम्मीद की जा सकती है कि यह कश्मीर को लेकर अंतरराष्ट्रीय बहस और उसके एजेंडा को बदल दे. शायद. इसके बाद भारतीय राजनीति में कश्मीर पहले की तरह नहीं दिखेगा. वैसे भी आर्टिकल 370 के बाद विपक्ष की तमाम कोशिशों के बावजूद भारतीय राजनीति में कश्मीर अब एक अप्रासंगिक मुद्दा बन ही चुका है. कैसे, समझना चाहें तो यहां शेखर गुप्ता के जरूरी विश्लेषण से बेहतर समझ सकते हैं. तो इस बात पर आश्चर्य नहीं करना चाहिए कि द कश्मीर फाइल्स को भारत में रोक देना तमाम देसी विदेशी धड़ों का प्राथमिक टास्क बन चुका है. फिल्म रुकेगी कैसे?अब सवाल है कि फिल्म रुकेगी कैसे- वह भी द कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्म.
RRR
यह तब रुकेगी जब उसके सामने एक और बड़ी फिल्म खड़ी कर दी जाए और उसके पक्ष में एक प्रतिक्रियावादी राजनीति पनपे. और उसके पक्ष में इस तरह की जनभावना तैयार कर दी जाए कि सरकार ईमानदार फैसला लेने से बचे. इस पैमाने में सिर्फ आरआरआर आती है, केजीएफ 2 नहीं. क्योंकि जब राष्ट्रवादी भावनाओं से ओतप्रोत आरआरआर प्रतिद्वंद्वी के रूप में कश्मीर फाइल्स के सामने खड़ी दिखती है तब भारतीय समाज और राजनीति में हाशिए पर जा चुका मामूली तबका ऑक्सीजन पा जाता है. आरआरआर के कंटेंट का विरोध कैसे करेगा कोई भारतीय? बावजूद सरकार आरआरआर को नहीं चुनती है तो 'भारत विभाजन' के लिए हिंदी बनाम दक्षिण की पुरानी बहस इसी बहाने जिंदा कर दी जाएगी.
आरआरआर को प्रतिद्वंद्वी के रूप में खड़ा करने के लिए तमाम व्यवस्थित अंतरराष्ट्रीय प्रयास हो रहे हैं. गौर करते रहिए. पश्चिम का मीडिया जबरदस्त तरीके से काम कर रहा है. वेरायटी नाम की एक मैगजीन ने तो बाकायदा अपनी ऑस्कर प्रेडिक्शन लिस्ट, कंटेंडर्स और बेस्ट पिक्टर कैटगरी में जारी की. इसमें आरआरआर को शामिल किया है. बेस्ट एक्टर के लिए जूनियर एनटीआर को शामिल किया है. इससे पहले तमाम ब्रिटिश, अमेरिकी और कनाडाई फिल्ममेकर्स ने आरआरआर की तारीफें कर चुके हैं. भारतीय फिल्मों से नाक भू सिकोड़ने वाले फिल्ममेकर्स की नजर में उन्होंने ऐसी जादुई फ़िल्में आजतक देखी ही नहीं. अनेक अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाएं हैं जो असल में ऑस्कर में आरआरआर के लिए माहौल बनाने की कोशिश में नहीं बल्कि द कश्मीर फाइल्स को रोकने के लिए हैं. बस कश्मीर फाइल्स का नाम नहीं लिया जा रहा है. अनुराग कश्यप मूर्खता कर बैठे थे जो उन्होंने नाम ले लिया था.
जहां तक बात बॉलीवुड की है उसके नीति नियंता किसी भी सूरत में नहीं चाहेंगें कि द कश्मीर फाइल्स ऑस्कर तक का सफ़र तय करें. ऑस्कर में फ़िल्में कैसे भेजी जाती हैं और उन्हें रोका कैसे जाता है- इसके नाना प्रकार के उदाहरण बॉलीवुड में मिलेंगे. वे किस तरह अंतरराष्ट्रीय एजेंडा के तहत काम करते हैं और कारोबारी फायदे के लिए भारत के हितों को प्रभावित करते हैं उदाहरण भरे पड़े हैं. खंगालना चाहे तो. एक उदाहरण तो कश्मीर के ही संदर्भ में दिया जा सकता है. लोग सवाल करते हैं कि कश्मीर में अगर आतंकी नरसंहार करते रहे व्यापक रूप से फिर हम उसे क्यों नहीं जानसुन समझ पाए, मीडिया नेता कहां थे. द कश्मीर फाइल्स की कहानी घाटी में 90 के बाद के दौर की है. जिस दौर में घाटी में धार्मिक वजहों से नरसंहारों/पलायनों (सिर्फ कश्मीरी पंडित ही नहीं, सिख और हिंदुओं की तमाम जातियां भी शिकार हुईं) का सिलसिला शुरू था- बॉलीवुड क्या कर रहा था और तब ऑस्कर के लिए क्या हो रहा था?
बॉलीवुड असल में तब ख्वाजा अहमद अब्बास के लेखन में अंतरराष्ट्रीय प्रेम की कहानी 'हिना' बना रहा था. फिल्म का निर्माण और निर्देशन शोमैन कहे गए राज कपूर कर रहे थे. नीली आंखों वाले यह वही राज कपूर हैं जिन्हें साम्यवादी रूस ने आंख का तारा बना लिया था. उन्हें समाजवादी नेहरू से लेकर इंदिरा राजीव तक सभी बहुत प्यार करते थे. समाजवादी राज कपूर व्यस्त शेड्यूल से समय निकालकर 'हिना' बनाने से कुछ साल पहले तक अरब में दाउद इब्राहिम के साथ बैठकर मैच भी देख लिया करते थे. अनिल कपूर के विरोधियों की शरारत है कि दाउद के साथ की उस ऐतिहासिक तस्वीर को ज्यादातर मौकों पर क्रॉप कर पब्लिश किया जाता रहा और मुंबई पर आतंकी हमले करने वाले आतंकी दाउद इब्राहिम से ठीक दो कतार आगे दूसरे गणमान्यों के साथ बैठे राज कपूर को क्रॉपिंग के जरिए फ्रेम से बाहर निकाला जाता रहा.
वैसे फिल्म बनने से पहले राजकपूर की मौत हो गई. उनके बड़े बेटे रणधीर ने फिल्म की. रणधीर ही निर्माता थे और उनके छोटे भाई ऋषि कपूर फिल्म के हीरो थे. ऋषि कपूर बाकायदा फिल्म बनने से पहले पाकिस्तान गए थे. तब हिना को एक इवेंट की तरह बनाया गया था मानो भारत और पाकिस्तान के बीच की सीमाएं इस फिल्म के बाद टूट जाएंगी क्योंकि राजनीति से अलग दोनों देशों के लोग ऐसा चाहते हैं. फिल्म से जुड़ी छोटी छोटी चीजों को सेलिब्रेट किया जाता था. कश्मीर में क्या हो रहा था- लोग नहीं जानते होंगे, लेकिन हिंदी पट्टी में बॉलीवुड डेब्यू कर रही जेबा बख्तियार की सनसनी फिल्म से पहले इतनी थी कि लोग हिना के बाद उन्हें आजतक तलाश करते हैं बावजूद वो कहीं नहीं दिखती.
इससे भी दिलचस्प बात तो यह है कि साल 1991 में आई हिना को ऑस्कर में भी भेजा गया. जबकि ऋषि कपूर की फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है. देखेंगे तो आप माथा पीट लेंगे. इससे कहीं कहीं ज्यादा बेहतर फिल्म ठीक एक साल बाद आई थी उनकी- बोल राधा बोल. कम से कम फिल्म के सभी गाने एक जबरदस्त फील तो देते हैं. बॉलीवुड की शैतानी बंद नहीं हुई है.
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