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Updated: 09 जून, 2022 07:50 PM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
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आजमगढ़ लोकसभा उपचुनाव में भाजपा नेता और भोजपुरी सुपरस्टार दिनेशलाल यादव 'निरहुआ' बहुत बड़ा चेहरा बनकर उभर रहे हैं. नचनिया/गवैया के नाम पर जिस तरह उनकी आलोचना हो रही है और फिल्मों के कुछ दृश्यों के जरिए उनका मजाक बनाया जा रहा है- असल में इसे ही आजमगढ़ में निरहुआ की दावेदारी का सबसे बड़ा सबूत भी माना जा सकता है. एक ऐसा सबूत जिसमें एक साधारण घर से निकले गंवई नौजवान की उपलब्धि बड़े-बड़े लोगों की राह में रोड़ा बनने लगी है. मजाक उड़ाने वालों में जातिवादी मानसिकता से ग्रस्त अंग्रेजीपरस्त नौजवान सबसे आगे दिख रहे हैं. क्या यह न्यायपूर्ण है कि निरहुआ की समूची मौजूदगी, उनके संघर्ष और उपलब्धि को सिर्फ पेशे की वजह से खारिज कर दिया जाएगा.

कहीं ऐसा तो नहीं कि राजनीतिक खानदानों से निकले नेता रक्तशुद्धता की परंपरा को हर हाल में बरकरार रखना चाहते हैं. समझ में नहीं आता कि जब अखिलेश यादव ने 2019 में ही अपने प्रतिद्वंद्वी को नचनिया/गवैया करार दे दिया था, तो अब निरहुआ को काउंटर करने के लिए उनके पेशे का मजाक उड़ाना कितना जायज है? निरहुआ की उम्मीदवारी घोषित होने के बाद सोशल मीडिया पर एक धड़ा उन किरदारों पर मीम बना रहा है जिसमें भाजपा नेता महिला रूप धरे दिखते हैं. यह भला कैसे गलत है? अमिताभ बच्चन, कमल हासन और गोविंदा जैसे अभिनेताओं के तो रूप धरने पर हमेशा सराहना हुई है. कपिल शर्मा के शो में कृष्णा अभिषेक ऐसे ही रूपों में कई बार अश्लीलता की हद पार कर जाते हैं- बावजूद उसे किस चश्मे की वजह से सांस्कृतिक ही माना जाता रहा है अब तक.

nirahua vs dharmendraसोशल मीडिया पर निरहुआ की ऐसी तस्वीरों के जरिए मजाक उड़ाया गया.

आजमगढ़ में निरहुआ का मौजूद होना ही लोकतंत्र की जीत है

आजमगढ़ में निरहुआ की मौजूदगी भारतीय समाज और लोकतंत्र की सच्चाई है. जब मजाक उड़ाया ही जा रहा है तो यह भी यकीन करने में हिचक नहीं कि हमारा लोकतंत्र पूरी ठसक के साथ जिंदा है. बल्कि समाज का अंतिम आदमी आगे बढ़ने की दिशा में प्रयासरत है. जज्बा है तो उसे रोका नहीं जा सकता. क्योंकि निरहुआ जैसों को किसी सरकार, किसी निर्माता, किसी कंपनी और किसी परिवार और किसी पार्टी ने नहीं बनाया है. वह भले यादव हैं, लेकिन वह कोई दूसरा पिछड़ा वर्ग भी हो सकता है कोई दलित और कोई बाम्हन-ठाकुर भी. अपनी बुनावट में सैकड़ों हैं निरहुआ हैं इस वक्त.

निरहुआ एक जमाने में सिर पर हारमोनियम ढोल लादे शादी विवाहों में सट्टा बजाने जाते थे. एक ऐसी लोक भाषा जिसपर सरकार बहादुरों का ध्यान ही नहीं गया, उसी से निकले कलाकार हैं वे. क्या निरहुआ, मनोज तिवारी, खेसारी यादव, पवन सिंह और कलुआ जैसे दर्जनों बड़े कलाकारों से पहले किसी ने कल्पना भी की थी कि एक दिन भोजपुरी में मनोरंजन का इतना बड़ा कारोबार संभव हो सकेगा? ये तो इन्हीं कलाकारों की निजी कोशिशों का नतीजा है कि भोजपुरी गायन और सिनेमा अब उद्योग है. कच्चा पक्का जैसा भी है, कम से कम हजारों लोगों को इसने रोटी और सपने दोनों दिए हैं. हजारों को लोगों को काम भी मिला. सैकड़ों नायक निकले. एक अकेले निरहुआ ने ही कितनों को काम पैसा और पहचान दी है.

अमिताभ और जया बच्चन जैसे कलाकार भी उनकी फिल्मों के जरिए भोजपुरी के परदे पर नजर आए. अमिताभ को फीस देने में सक्षम उद्योग की कारोबारी ताकत का अंदाजा लगा सकते हैं. बावजूद पेशेवर निर्माता निर्देशकों का भोजपुरी को लेकर अविश्वास अभी भी बना हुआ है. जहां तक अश्लीलता की बात है- मलयाली सिनेमा का 'कल और आज' में एक बड़ा सबक छिपा है. जैसे-जैसे पेशेवर लोग जुड़ते जाएंगे चीजें सही होंगी. भोजपुरी के नाम पर छाती पीटने की बजाए पेशेवर और दक्ष लोगों को खराब चीजें सुधारने का प्रयास करना चाहिए. चीजें ऐसे ही तो आगे बढ़ती हैं.

Dharmendra Yadav-Vs-Nirahuaआजमगढ़ में रोचक होगा धर्मेंद्र यादव और निरहुआ का मुकाबला.

मुलायम को हटा दीजिए फिर निरहुआ के आगे अखिलेश और धर्मेंद्र के पास क्या बचता है?

क्या निरहुआ बॉलीवुड का नायक होता तब भी ऐसे ही मजाक उड़ाया जाता? बिल्कुल नहीं उड़ाया जाता. बल्कि तब इसी काम के लिए तारीफें मिलतीं. अपनी उपलब्धियों में निरहुआ कई मायनों में अखिलेश यादव, धर्मेंद्र यादव से ज्यादा बेहतर, साफ़, स्पष्ट और ईमानदार हैं. गायक, अभिनेता और अब एक नेता के रूप में उनका जो कुछ हासिल है वह बहुत निजी है. कोई भी व्यक्ति ऐसी उपलब्धि पर गर्व कर सकता है. निरहुआ किसी भी हाशिए के व्यक्ति का आदर्श बन सकता है. अखिलेश या धर्मेंद्र यादव नहीं, यही हकीकत है. अखिलेश और धर्मेंद्र के नाम से मात्र मुलायम सिंह यादव की विरासत माइनस करने के बाद कुछ भी नहीं बचता. कुछ बचता है क्या? मुलायम के घर बैठने के बाद अखिलेश लगातार चार चुनाव बुरी तरह हार चुके हैं. एक समय शिवपाल से नियंत्रण की जंग में उलझे थे और आज की तारीख में आजम खान भारी पड़ रहे हैं.

धर्मेंद्र यादव भी अपनी पारिवारिक विरासत के अलावा कहीं नजर नहीं आते. जबकि उन्हें राजनीति की मजबूत विरासत मिली थी. उनका बैकग्राउंड छात्र राजनीति है. पर ऐसा नहीं दिखता कि पारिवारिक विरासत से निकलकर उन्होंने कोई छाप छोड़ी हो. साल 2019 के चुनाव में वे सपा के ही मजबूत गढ़ मैनपुरी में अपनी सीट तक नहीं बचा पाए. सवाल है कि आजमगढ़ में धर्मेंद्र को किस हैसियत से उम्मीदवारी दी गई? भला इसे कैसे स्वीकार किया जा सकता है कि हर यादव बहुल सीट पर अखिलेश का परिवार ही सिरमौर बना रहे. सपा को चाहिए था कि आजमगढ़ या पूर्वांचल से ही कोई नेता चुनते. इससे पार्टी और कार्यकर्ताओं को भी अच्छा संदेश जाता और दूसरी पंक्ति के यादव नेता भी तैयार होते.

किसी को उसके सामान्य पेशे की वजह भर से खारिज करना घोर जातिवादी और साम्प्रदायिक नजरिया है. क्या इस हकीकत से इनकार करना आसान है कि इस वक्त पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसी भी इलाके में निरहुआ से लोकप्रिय कोई दूसरा यादव चेहरा नजर नहीं आता. भाजपा उन्हें शायद इसी वजह से बार बार मौका भी दे रही है. आप उन्हें नेता माने या ना मानें, लेकिन वो सबसे बड़ा सेलिब्रिटी चेहरा तो हैं ही. कोई दूसरा हो तो बताइए? बच्चे बूढ़े सभी उन्हें जानते हैं. कच्ची पक्की जो भी हैं- उपलब्धियों के मामले में भी उनकी तुलना किसी अखिलेश या धर्मेंद्र की बजाए सिर्फ मुलायम सिंह यादव से हो सकती है. राजनीति में जैसे मुलायम ने कुछ भी ना रहते हुए ऐतिहासिक मुकाम पाया, भाजपा नेता ने भी अपने बलबूते फ़िल्मी शोहरत हासिल की. हां, मजाक उड़ाने की बजाए ये सवाल जरूर किया जा सकता है कि वह अन्य हीरो हीरोइनों से अलग राजनीति में क्या करेंगे? भविष्य के लिए उंके पास कोई बेहतर योजना है भी क्या?  

हो सकता है कि पूर्वांचल की राजनीति में निरहुआ दक्षिण के कुछ नेताओं की तरह इस मिथक को तोड़ने में कामयाब हों कि नायक नायिकाओं का काम सिर्फ चुनाव जीतना भर नहीं है. कोई फिल्म स्टार भला राजनीति को क्यों प्रभावित नहीं कर सकता? इस लिहाज से तो निरहुआ भाजपा में ज्यादा संभावनाशील यादव नेता के रूप में नजर आते हैं. राजनीति के लिए उनकी निष्ठा उनकी अपनी ही पार्टी में ही सक्रिय दूसरे एक्टर्स से बिल्कुल अलग दिखती है. चुनाव हारने के बावजूद आजमगढ़ में लगातार सक्रियता दिखती है. वह राज्य में पार्टी की दूसरी सक्रियताओं में भी आगे हैं.

निरहुआ के आगे धर्मेंद्र की मौजूदगी सपा यादव राजनीति पर ही सवाल है

पेशे भर की वजह से किसी को भी अयोग्य नहीं कहा जा सकता. निरहुआ का अपना संघर्ष और उपलब्धि अखिलेश यादव, धर्मेंद्र यादव और गुड्डू जमाली से किसी भी मामले में कमजोर नहीं है. अगर आजमगढ़ की जनता पसंद करती है तो उन्हें भी सांसद बनने का हक़ है. जिस जातीय आधार ने पहले अखिलेश और अब धर्मेंद्र को आजमगढ़ की तरफ आकर्षित किया- न्याय तो यही है कि निरहुआ को भी उसी आधार से उपजे जायज फायदे पर हक़ मिले. गुड्डू जमाली को भी. उलटे धर्मेंद्र जैसे कद्दावर नेता की राजनीतिक उपलब्धि आज की तारीख में एक सवाल की तरह है. क्या सपा अपने परिवार से अलग कद्दावर नेताओं को खोजने में लगातार नाकाम साबित हो रही है. अपनी ही जाति में जब ऐसी हालत है- भला समूचे पिछड़े वर्ग को कहां तक और कैसे नेतृत्व दे पाएंगे आप?

धर्मेंद्र यादव दो बार बदायूं से सांसद रहे. फिर उन्हें समाजवादी पार्टी की परंपरागत मैनपुरी की तरफ रुख करना पड़ा. वे मैनपुरी जैसी लगभग सुरक्षित सीट भी नहीं बचा पाए. अब यादव मुस्लिम मतों के लिहाज से सुरक्षित आजमगढ़ से उम्मीद है. यह सपा की अंदरूनी राजनीति के लिए बहुत निराशाजनक बात है. अखिलेश के अलावा उनकी पार्टी के पहली पंक्ति के ज्यादातर पारिवारिक नेता चुनाव जीतने में संघर्ष कर रहे हैं. परंपरागत सीट तक बचा नहीं पा रहे हैं. यादव मतों को किस आधार पर एकजुट रख पाएंगे और वह भी लंबे वक्त तक?

आजमगढ़ की सीट हाल ही में अखिलेश के इस्तीफे के बाद खाली हुई थी. यहां बसपा ने बहुत पहले ही गुड्डू जमाली के रूप में मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में उतार दिया था. आजमगढ़ का चुनाव त्रिकोणीय है. निरहुआ हर एंगल से लड़ाई में पहले दो स्थान में दिख रहे हैं. यह बिल्कुल साफ़ है. हालांकि निरहुआ से सीधे मुकाबला कौन करेगा, नतीजों के बाद ही पता चल पाएगा.

लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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