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Updated: 15 अगस्त, 2021 08:01 PM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
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पिछले महीने फहद फासिल स्टारर मलयाली फिल्म "मलिक" अमेजन प्राइम वीडियो पर आई थी. सब्जेक्ट की वजह से खूब चर्चा में रही और इसे मास्टरपीस करार दिया गया. कुछ समीक्षकों ने तो मलिक को द गॉडफादर और गैंग्स ऑफ़ वासेपुर की तरह भी देखा. मलिक की कहानी केरल के तटीय गांव रमादानपल्ली के माफिया अहमद अली सुलेमान (फहद फासिल) की है. अहमद अली सुलेमान के पिता का साया बचपन में ही उठ गया था और बेसहारा मां के साथ उसे रमदानपल्ली की मस्जिद में शरण मिलती है. अहमद का सफ़र यहां से शुरू होता है जो डेविड के साथ समुद्र में स्मगलिंग और छोटे मोटे अपराध करते हुए ताकतवर अली इक्का बनता है. अब तक भारतीय सिनेमा में माफियाओं को केंद्र में रखकर जितनी भी फ़िल्में (सत्या, गैंग्स ऑफ़ वासेपुर, वन्स अपान अ टाइम इन मुंबई आदि) बनी हैं मलिक एक ख़ास मायने में उन सभी से अलग है. मलिक का नायक अली इक्का धर्मभीरू और मुसलमान पहले है.

हालांकि अली इक्का धार्मिक रूप से रूढ़ दिखाने की कोशिश नहीं की गई है. मगर उसकी प्राथमिकताओं में इस्लाम और मुसलमान पहले आते हैं और इसके बाद अन्य चीजें जिसमें उसके दोस्त और परिवार शामिल हैं. इसमें कोई शक नहीं कि मलिक मल्टी लेयर्ड फिल्म है. धर्म के नाम पर झगड़े किस तरह होते हैं और उसमें राजनीति, प्रशासन-पुलिस की क्या भूमिका होती है और धार्मिक पहचान की वजह से मुसलमानों को किन त्रासद प्रसिथितियों का सामना करना पड़ता है- तमाम सच्चाइयों को उजागर करती है. मालिक का क्राफ्ट और कलाकारों का काम वाकई बेमिसाल है. संपादन और कहानी कहने का अंदाज भी शानदार है. मगर एक बढ़िया क्राफ्ट और कलाकारों के परफॉर्मेंस का बहाना बनाकर फिल्म के उस मैसेज पर बात ना करना दुभाग्यपूर्ण है जिसका साउंड कई जगह एजेंडाग्रस्त दिखता है. दुर्भाग्य से मलिक को मास्टरपीस बताने वाले ज्यादातर समीक्षकों ने कलापक्ष की आड़ में एजेंडाग्रस्त चीजों पर बात करना ठीक ही नहीं समझा. ऐसा क्यों?

malik-movie-650_081521053303.jpgमलिक में गन थामे हुए फहद फॉसिल. फोटो- अमेजन प्राइम वीडियो से साभार.

मलिक माफियाओं को हीरोइक अंदाज में पेश करने वाली अब तक की उन सभी फिल्मों से अलग है जिसमें किरदारों की निजी तकलीफ ने उनके आपराधिक साम्राज्य को जन्म दिया. मलिक में भी अली इक्का की निजी तकलीफ कम नहीं है, लेकिन उसके आपराधिक साम्राज्य के खड़ा होने का आधार बनता है रमादानपल्ली का 'कमजोर' इस्लाम. अली इक्का की कहानी दो स्तरों पर आगे बढ़ती है जिनका मकसद कई बार आपस में जुड़ा हुआ नजर आता है. अली इक्का अपने दोस्तों संग जिसमें ईसाई भी शामिल है- समुंदर के रास्ते स्मगलिंग का धंधा ज़माना चाहता है. इसके लिए वो हत्याएं भी करता है. दूसरी तरफ नेताओं अफसरों की मदद भी लेता है. वो जैसे जैसे ताकतवर बनता है इस्लाम के करीब आता जाता है. मस्जिद की जमीन खाली करवाता है, स्कूल बनवाता है. मुसलमानों को एकजुट कर उनका खैरख्वाह बन बैठता है. मुसलमानों के जरिए राजनीति को कंट्रोल करने लगता है.

अली इक्का की प्रेमिका रोजलीन क्रिश्चियन है. रोजलीन, अली के दोस्त डेविड की बहन है. दोनों शादी कर लेते हैं. बच्चा होता है. मगर डेविड बच्चे को ईसाई तौर तरीके से पालना चाहता है. चर्च में नामकरण की रस्म हो रही है. अली इक्का जेल से निकलते ही सीधे चर्च पहुंचता है और रस्मों को रोक देता है. बच्चे और पत्नी को लेकर घर आता है. क्या बच्चे की धार्मिक पहचान को लेकर अली इक्का और रोजलीन ने पहले बात नहीं की थी? क्या तय हुआ था दोनों के बीच में. अगर पहले से ही तय था कि बच्चा इस्लामी तौर तरीके से पाला जाएगा तो रोजलीन चर्च में बेटे की रस्म के लिए जाने से पहले अपने भाई का विरोध करते क्यों नहीं दिखी? क्या अली इक्का ने शादी के बाद रोजलीन पर इस्लाम थोपा? पारम्परिक रूप से ये सवाल गलत है. बच्चे पिता के नाम से ही जाने जाते हैं. वासेपुर में भी सरदार खान हिंदू महिला के साथ रहने लगा था और इस संबंध से हुए बच्चे को पिता का ही नाम मिला. वासेपुर में ये सवाल इसलिए महत्वपूर्ण नहीं था कि वहां इस्लाम कोई मुद्दा नहीं था. वो कहानी वर्चस्व और बदले की थी. मगर भले ही तमाम समीक्षक अली इक्का के किरदार को मानवीय पहलुओं में तौलते हुए उसे क्रिश्चियन और मुसलमानों के बीच का पुल करार दें पर मलिक में चर्च सीक्वेंस उसे धार्मिक रूप से जड़ ही कट्टर ही बना बैठता है. और इससे वो सामजिक समरसता ध्वस्त हो जाती जिसे पूरी फिल्म का बुनियाद करार दी जाने की कोशिश की गई.

karnan_081521051339.jpgकर्णन में धनुष

मलिक से पहले तमिल में धनुष की फिल्म आई थी कर्णन. कर्णन में भी एक समुदाय अपनी जातीय पहचान की वजह से राजनीति, पुलिस और प्रशासन के उत्पीड़न को झेलने के लिए अभिशप्त है. कर्णन दिलेर है और हुनरमंद भी. पूरे समुदाय का हीरो है. कोई सरकारी नौकरी में नहीं जा सका है. फिल्म का एक सीक्वेंस बहुत अर्थपूर्ण है. सरकारी अमला कर्णन के गांव आने वाला है. पूरा गांव प्रशासनिक उत्पीडन की आशंका से डरा हुआ है. इसी बीच अर्ध सैनिक बल से कर्णन की नौकरी का नियुक्तिपत्र आ जाता है. समूचे समुदाय में किसी पहले व्यक्ति के लिए ऐसा पत्र आता है. अपने लोगों की सुरक्षा को लेकर परेशान कर्णन किसी भी हालत में नौकरी के लिए गांव छोड़कर नहीं जाना चाहता. कर्णन का उस सरकारी नौकरी से मोहभंग हो चुका है जो उसके ही लोगों को प्रताड़ित करता है. हालांकि समूचा गांव उसकी मिन्नतें करता है कि वो नौकरी में जाए ताकि आने वाली पीढ़ियों को एक मकसद मिले. कर्णन ना चाहते हुए भी भारी मन से निकल जाता है. लेकिन पुलिस की अमानवीयता जब हद पार कर जाती है उसे गांव वालों को बचाने के लिए वापस आना पड़ता है. कर्णन के साथ क्या होता है ये बाद की बात है. मगर फिल्म भविष्य के लिहाज से एक सकारात्मक और न्यायपूर्ण अर्थ देकर आगे बढ़ती है.

malik_081521051623.jpgमलिक में फहद फासिल और अन्य.

ऐसे ही कुछ हालात मलिक में भी बनते हैं जब अली इक्का का मासूम बेटा दंगों में मारा जाता है. यहां अली इक्का कोई बड़ा उदाहरण नहीं पेश करता. बल्कि उसके मातहत रमादानपल्ली में जवाबी कार्रवाई होती है और बड़े पैमाने पर खून की होली खेली जाती है. स्मगलिंग में आई एके 47 राइफलों से क्रिश्चियनों को निशाना बनाया जाता है, अफसरों और पुलिस को भी निशाना बनाया जाता है. मजेदार यह है कि मालिक में इस सीक्वेंस से पहले अली इक्का को 'महानायक' के तौर पर स्टेब्लिश किया गया था. दरअसल, समगलिंग में हथियारों की पेटी मिलने पर अली इक्का उसे गलत बताते हुए लड़कों से डंफ कर देने को बोलता है, बाद में इन्हीं हथियारों से कत्लेआम होता है. दंगों में निजी हादसा झेलने वालों के लिए मलिक की तरफ से क्या इसे सकारात्मक और न्यायपूर्ण मैसेज माना जा सकता है? कायदे से मलिक में अली इक्का जितना ताकतवर दिखता है, दंगों की अमानवीयता का जवाब देने के लिए उसके पास दूसरे राजनीतिक हथियार भी हो सकते थे.

जैसे कि अली इक्का जब गिरफ्तार हो जाता है रोजलीन नेताओं अफसरों को धमकाती है. अली इक्का नहीं छूटा तो बाहर कितना बवाल मच जाएगा. वो कहती नहीं है मगर उसका संकेत तो स्पष्ट है कि मुसलमान आपे से बाहर हो जाएंगे और पुलिस-सरकार कुछ नहीं कर सकती. यह सीक्वेंस भी फिल्म को लेकर बनाई गई उस धारणा को नेस्तनाबूद करती है जिसमें मुसलमानों को पुलिस और पॉलिटिक्स के विक्टिम के तौर पर चित्रित किया गया है. तो क्यों ना माना जाए कि अली इक्का का किरदार मजहब को लेकर दिमागी रूप से एक बीमार अपराधी भर का है. दुर्भाग्यपूर्ण है कि लेखक निर्देशक महेश नारायणन ने बहुत ही चालाकी से अली इक्का के माफिया बनने का ठीकरा दंगों पर फलने फूलने वाली राजनीति पर फोड़ दिया है. जबकि अली इक्का के साथ जो कुछ हुआ उसमें उसकी निजी इच्छाओं की भूमिका ज्यादा बड़ी थी. अली इक्का धार्मिक जड़ता फैलाने के अलावा कोई सकारात्मक मैसेज नहीं देती और यही वजह है कि अच्छे क्राफ्ट और तमाम दूसरी अच्छाइयों के बावजूद मलिक मास्टरपीस की बजाय एक प्रोपगेंडा फिल्म की तरह नजर आती है.

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लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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