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Updated: 18 अप्रिल, 2022 09:25 PM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
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पुष्पा: द राइज, द कश्मीर फाइल्स, आरआरआर के बाद केजीएफ 2 भी लोकप्रियता की सारी हदें तोड़ती दिख रही है. यश स्टारर फिल्म ने महज चार दिन के अंदर ही दुनियाभर में 500 करोड़ रुपये से ज्यादा का ग्रॉस कलेक्शन निकाल लिया है. संभवत: केजीएफ 2 कन्नड़ के इतिहास की पहली ऐसी फिल्म है जिसने रिलीज होने के बाद टिकट खिड़की पर पहला वीकएंड पूरा करने के साथ ही कन्नड़ सिनेमा के लिए पैन इंडिया कारोबार का नया बेंचमार्क भी बना दिया. अकेले हिंदी पट्टी के बॉक्स ऑफिस पर केजीएफ़ 2 ने अब तक करीब करीब 200 करोड़ से कमा लिए हैं. तमिल में दो दिन के अंदर ही विजय की बीस्ट को रौंद दिया और आंध्र प्रदेश तेलंगाना में भी रिकॉर्ड कमाई कर रही है. जबकि इससे पहले कन्नड़ की इकलौती बड़ी और पैन इंडिया फिल्म यश की ही केजीएफ 1 थी. केजीएफ 1 का लाइफटाइम  कलेक्शन 50 करोड़ से नीचे था.

आखिर कश्मीर फाइल्स, यश या दक्षिण की दूसरी फिल्मों की कमाई के पीछे वजह क्या है? क्या यह सिर्फ बॉलीवुड से घृणा भर है जैसा कि हिंदी पट्टी में दक्षिण की बड़ी फिल्मों की सफलता को लेकर कहा जा रहा है. या बॉलीवुड में कंटेंट ही कमजोर बन रहा है. या फिर इसके पीछे और भी वजहें हैं. क्राफ्ट और परफोर्मेंस के लिहाज से बॉलीवुड का कंटेंट बिल्कुल कमजोर नहीं कहा जा सकता. चीजों को गौर करें तो दक्षिण के फिल्मों की सफलता का फ़ॉर्मूला अलग विचार समेटे है. असल में यह भारतीय सिनेमा में 'लार्जर दैन लाइफ' महानायकों की पुनर्वापसी और खलनायकों की पुनर्स्थापना का दौर है. भारतीय सिनेमा को ठीक-ठीक समझने के लिए भारतीय राजनीति और उसकी अलग अलग वक्त में उसकी धारा को ठीक से समझना भी जरूरी है. भारत में सिनेमा का विकास देश की राजनीति से बहुत प्रभावित रही है.

kgf 2केजीएफ़ में यश.

समाज ने राजनीति को बदला,  राजनीति ने सिनेमा

भारतीय सिनेमा में महानायक ज्यादातर 70 से 90 के दौर में दिखता है, हिंदी और सभी क्षेत्रीय भाषाओं में. वह एक राष्ट्रीय कर्तव्य भी निभाते दिखता है. उसमें फ्रस्टेशन है, गुस्सा है लेकिन उम्मीद भी है. वह हमारे ही समाज का चेहरा है और बार बार विपरीत हालात में भरोसा बनाए रखने की अपील करता है. 90 के बाद उदारवाद और वैश्विक राजनीति, खासकर मुसलमानों की वैश्विक राजनीति ने सिनेमा पर खूब असर डाला. वह राह गलत थी या सही यह विचारणीय प्रश्न हो सकता है, मगर सिनेमा ने वही राह पकड़ी जो उस दौर में बहुमत ने उसे दिखाया. अगर किसी दौर का सिनेमा गलत है तो यह मानने में संकोच मत करिए कि उस दौर का राजनीतिक बहुमत भी या तो गलत है या दिग्भ्रमित. अगर किसी दौर के सिनेमा और राजनीतिक बहुमत में साम्यता नहीं है तो वह भी गलत है. जैसे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अली बंधुओं के साथ महात्मा गांधी की खिलाफत राजनीति का बहुमत और उसके आसपास का सिनेमा दो अलग ध्रुव पर खड़े नजर आते हैं. भारतीय सिनेमा में विश्वयुद्ध, खिलाफत आंदोलन और अब तक दुनिया की तमाम घटनाओं का व्यापक असर एक विश्लेषण का एक अलग विषय हो सकता है. खैर.

किसी दौर के सिनेमा पर चीजों को झुठलाने का आरोप लगाया जा रहा है तो यह मानने में संकोच नहीं करना चाहिए कि नेताओं ने भी उस दौर की चीजों को हल्के तौर पर लिया और झुठलाने की कोशिश की थी. राजनीति पक्ष की हो या विपक्ष की, उसकी नैतिक जिम्मेदारी रही है कि राष्ट्रहित में जनमत तैयार करे. कोई भी दल मुद्दे यूं ही नहीं उठा लेते बल्कि उसपर मेहनत करते हैं और व्यापक समाज के प्रति उसकी उपयोगिता जांचते हैं. और आखिरकार उन्हें स्वीकार करना पड़ता है. चीजें उचित समय स्वीकार की जाती हैं तो हम एक स्वस्थ, मानवीय और विकसित समाज खड़ा करते हैं. और झुठलाकर एक अंतराल देते हुए अपनाते हैं तो उसमें विकृति आ ही जाती है. लोकतंत्र का मूल असल में यही है.

जब कश्मीर जल रहा था, क्यों पाकिस्तान में हीना की खुशबू तलास रहे थे ऋषि कपूर

हाल ही में द कश्मीर फाइल्स के निर्माताओं ने आरोप लगाया था कि भारतीय फिल्म मेकर्स ने 90 के दशक में कश्मीर पर केंद्रित फ़िल्में बनाई, लेकिन कश्मीरी पंडितों की पीड़ा पर ध्यान ही नहीं दिया. असल में इंदिरा गांधी, राजीव गांधी से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह तक उस दौर में हमारे नेता पाकिस्तान के साथ नजदीकियां बढ़ाने में ज्यादा मशगूल थे. और भारतीय जनता? उसका एक बड़ा समूह उदारवाद में मिले अवसर से सपनों को अंधाधुंध पूरा करने के लिए रेस में लगा था.

एक और समूह मंडल से पहले और बाद में उपजे माहौल से राजनीतिक-सामजिक भविष्य सुरक्षित करने में लगा था. जबकि इसी वक्त भारत समेत दुनिया में बहुत कुछ हो रहा था. जिस वक्त कश्मीरी पंडितों की दर्दनाक चीखें दिल्ली पहुंचते-पहुंचते दम तोड़ रही थीं, ठीक उसी वक्त छद्म राजनीतिक चेतना की वजह से बॉलीवुड पाकिस्तानी अभिनेत्रियों, संगीतकारों के स्वागत में लाल कालीन बिछा रहा था. ऋषि कपूर, हीना की हीरोइन का इंटरव्यू करने पाकिस्तान जाते थे और हम वो फिल्म बना रहे थे जिसमें सीमा-पार के प्रेम को दिखाया गया. शाहरुख खान प्रीति जिंटा की वीर जारा या आमिर खान की फ़ना तक हमने क्या किया?

अमेरिका से बॉलीवुड की क्या दुश्मनी थी?

आतंकवाद की रूमानी तस्वीर बनाई. हम एक नकली दुनिया में जी रहे थे. हमारी फिल्मों का नायक नकली था और उसमें जो खलनायक दिख रहे थे वो भी नकली थे. मजेदार यह है कि नकली चीजों को ढोने वाला सिनेमा रियलिस्टिक होने का दावा कर रहा था. हमने मान भी लिया कि रियल सिनेमा तो यह है. आज तक समझ नहीं आता कि जॉन अब्राहम की 'न्यूयॉर्क' क्या भारतीय चेतना में बनी फिल्म मानी जा सकती है? और भला फिल्म में वर्ल्ड ट्रेड टावर पर आतंकी हमले के बाद हमारे नायक शाहरुख खान को 'माई नेम इज खान एंड आई एम नॉट अ टेररिस्ट' बोलने की क्या जरूरत थी. जब अमेरिका में नस्लभेद के शिकार भारतीयों पर बॉलीवुड ने कभी फिल्म बनाने की जरूरत नहीं समझी तो अचानक से उसे 'माई नेम इज खान एंड आई एम नॉट अ टेररिस्ट' बोलना क्यों अनिवार्य लगा. अरब का कोई मुल्क बनाता, अफगानी बनाते या पाकिस्तान का नायक यह संवाद दोहराता तो समझ में आता.

बॉलीवुड का खलनायक अमेरिका कैसे हो सकता है जिसने खुद क्रूर आतंकी हमला झेला. क्या बॉलीवुड में ऐसे लोग मौजूद हैं जो इस नैरेटिव में भरोसा रखते हैं कि यह सब खुद अमेरिका ने ही करवाया था- तालिबान और अलकायदा के खात्मे के लिए. आम पढ़े लिखे एशियाई मुसलमान इस नैरेटिव पर यकीन करते हैं और पश्चिमी देशों के खिलाफ जिहाद के लिए लड़ने तक अलग अलग कोनों से पहुंचे हैं यह भी फैक्ट है. समझने की बात है कि भला बॉलीवुड को क्या जरूरत थी? शाहरुख की ही "मैं हूं ना" देखिए. यहां कौन खलनायक है. यहां खलनायक भारतीय सेना का ही एक एक्स फौजी है. जबकि उसकी वजहें जेन्युइन हैं. उसे इसलिए खलनायक बना दिया गया क्योंकि पाकिस्तान के साथ उसकी निजी भावनाएं हैं. क्या हमारे एक्स फौजी खलनायक हैं? ऐसी और भी अनगिनत फ़िल्में मिलेंगी जहां नायक और खलनायक नकली नजर आते हैं.

साफ़ समझ में आता है कि इस तरह की फ़िल्में हमने भारतीय हिंदू या भारतीय मुसलमान को खुश करने के लिए नहीं बनाई. अलबत्ता दिमागी रूप से दिवालिया हो चुके एक तबके को खुश करने के लिए बनाई गई. जबकि हकीकत में समाज के अंदर चीजें सच्चाई से कोसों दूर रही हैं. अभी कुछ महीने पहले आई रणवीर सिंह की 83 में पाकिस्तानी सेना की सदाशयता को जिस तरह दिखाया गया है, क्या यह हकीकत में बिल्कुल वैसे ही है. या सलमान खान की बजरंगी भाईजान में दिखने वाली पाकिस्तानी सेना बिल्कुल वैसे ही है जैसे फिल्म में नजर आती है. वह सेना जो आज भी वर्दी पहनते ही कसम खाती है कि भारत के कई टुकड़े कर 1971 की जंग का बदला लेना है. आप सिनेमा के जरिए पाकिस्तान की वह छवि पेश करते रहे जो हकीकत में ठीक उलट थी. आपको कहीं तो रुक जाना था. सांस्कृतिक और राजनीतिक संबधों का असर तो दोतरफा होना चाहिए. नहीं है तो फिर उसका औचित्य ही क्या?

बॉलीवुड से घृणा आभासी प्रचार भर, भारतीय सिनेमा अपने नायक और खलनायक तलाशने में जुटा

ऐसा नहीं लगता कि बॉलीवुड से घृणा में दक्षिण की फ़िल्में हिट हो रही हैं. बॉलीवुड की घृणा का बहाना असल में आभासी ज्यादा है. हकीकत यह है कि भारतीय सिनेमा अपने नायक और खलनायक तलाश रहा है. बाजीराव मस्तानी, पद्मावत, केसरी, बेबी, एयरलिफ्ट, तान्हाजी, सिंघम, वॉर, सत्यमेव जयते और सूर्यवंशी या ऐसी कई दर्जन फिल्मों के रूप में जबरदस्त सफलता हासिल करने वाली फ़िल्में तो बॉलीवुड की ही हैं. फिर ये क्यों हिट हो रही हैं. इन फिल्मों का नायक और खलनायक वैसा ही है जैसे भारतीय समाज सोच रहा है. इत्तेफाकन पिछले दो दशक में पक्ष-विपक्ष की राजनीति भी आम सहमति की मुद्रा में नजर आ रही है. दिल्ली दंगों पर सभी दलों की प्रारंभिक प्रतिक्रियाओं को देख लीजिए. पक्ष-विपक्ष की यह आम सहमति आपको जलसों और जुलूसों के भाषणों में नहीं दिखेगी. उसके लिए किसी भी महत्वपूर्ण मसले पर लोकसभा या राज्यसभा में विपक्ष के सवाल और सरकार के जवाब को सुनें तो शायद बेहतर समझ सकते हैं. भारतीय पक्ष विपक्ष सड़क के मुकाबले अभी भी संसद में जिम्मेदार दिखता है.

लोकतंत्र में भारतीय विरोधी ताकतों का असर ख़त्म हो चुका है, सिनेमा में भी

जिन्हें लगता है कि गांधी-नेहरू-अंबेडकर बंटवारे के बाद भी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र चाहते थे, सामान नागरिक संहिता नहीं चाहते थे, कश्मीर में 35 ए बना रहे, 370 लागू रहे आदि आदि चाहते थे, उन्हें समझ लेना चाहिए कि वह एक अवसर था. अवसर था अलग अलग जातीय और नस्ली समुदायों के सह जीवन का. हमारे लोकतंत्र ने वह अवसर दिया. पर्याप्त समय दिया. मां लीजिए कि अब उसकी अवधि ख़त्म हो चुकी है. राजा दाहिर, पुरु और गोरी में चयन को लेकर पाकिस्तान असमंजस में हो सकता है- भारत अपने नायकों और खलनायकों से भलीभांति परिचित है. भारत के असल नायक और खलनायक अब स्पष्ट परिष्कृत होकर फ़िल्मी परदे पर आने लगे हैं. वह विकृत भी होगा. और आप कुछ कह भी नहीं सकते कि बहुमत है. यहां तक कि तमिलनाडु और मलयाली सिनेमा में भी ऐसी ही चीजें नजर आ रही हैं. . प्रभास की राधेश्याम भी दक्षिण की ही फिल्म है. लेकिन सिर्फ इसलिए फ्लॉप हो गई क्योंकि उसका नायक और खलनायक समाज की जरूरतों को पूरा नहीं करता.

दक्षिण के सिनेमा में कोई फ़ॉर्मूला नहीं, बल्कि समाज का सहज प्रगटीकरण भर है. क्योंकि वह अड़ने के लिए तैयार हो रहा हो. भारतीयता का फ़ॉर्मूला है जहां पाप दिखेगा तो उसके मुकाबिल पुण्य भी होगा- बस इतनी सी बात है. दक्षिण ही नहीं, हमारे किसी भी सिनेमा में खलनायक वहीं दिखेगा जहां हर क्षण भारत की आत्मा तार तार हो रही होगी और विश्वयुद्ध के 100 बरस पूरा होने, किसी खिलाफत के इंतज़ार में उसे फिर से बर्बाद करने का इंतज़ार हो रहा होगा. सिनेमा के खलनायक में कोई जाति-धर्म-क्षेत्र भले व्यक्त ना हो, लेकिन उसमें वो सारे अवगुण प्रतीकात्मक रूप से सामने आते रहेंगे जो भारतीयता के लिए खतरा हैं. केजीएफ 2 में अधीरा के दोष क्रॉस चेक करना चाहिए.

याद रखिए. इतिहास के सबक याद करते हुए यह दुनिया के साथ आगे बढ़ने का वक्त है. नई दुनिया में भारत के लिए पीछे जाना आत्महत्या करना होगा.

लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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