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Updated: 07 जुलाई, 2021 09:27 PM
सर्वेश त्रिपाठी
सर्वेश त्रिपाठी
  @advsarveshtripathi
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हमारी पीढ़ी का कर्मा, क्रांति और अपने पोते से 'यह इलू इलू क्या है?' पूछने वाला दादू आज इस दुनिया को अलविदा बोल गया. पिछली शताब्दी के तमाम सफल लोगों की तरह दिलीप साहब की भी शुरुआती दिनों के संघर्ष की वही कहानी थी. देश का विभाजन फिर अपनी जन्मभूमि से बेदखल किया जाना. फिर मुंबई की सड़कों पर धक्के खा खाकर एक दिन पूरे हिंदुस्तान के दिलों पर राज करना.

हिंदी सिनेमा के आज़ादी के बाद वाली पीढ़ी यानि देवानंद, राजकपूर और दिलीप कुमार वाली पीढ़ी में अब शायद अंतिम नाम दिलीप कुमार ही थे जो कल तक सांसें ले रहे थे. दिलीप कुमार के जाने के बाद हिंदी सिनेमा के स्वर्णिम अतीत का भी आज अंत हो गया. इसमें कोई संदेह नहीं है कि दिलीप साहब के सहज अभिनय और संवाद अदायगी के नज़ाकत भरे अंदाज ने नए दौर के तमाम अभिनेताओं यानि अमिताभ बच्चन से लेकर शाहरुख खान तक पर अपनी छाप छोड़ रखी है.

फ़िलहाल पिछले चार दशक से जब से मैं इस दुनियां में हूं और जब से हिंदी सिनेमा को समझने और देखने लायक हुआ उसमें दिलीप कुमार, उनका अभिनय और उनका व्यक्तित्व मुंबईया सिनेमा में एक बड़े वृक्ष की तरह था. फ़िलहाल यह सब बातें तो हैं ही लेकिन आज दिलीप साहब के जाने पर एक बात बार बार आ रही है कि हम आम लोग सिनेमा के पात्रों से कैसे एक अलग तरह का अनूठा संबंध बनाते हैं. जिनसे न हम कभी मिले न बतियाये लेकिन वे कैसे हमारे जीवन का उसकी तमाम सुखद यादों का अभिन्न हिस्सा बन जाते हैं.

Dilip Kumar, Death, Disease, Actor, Acting, Film, Bollywood, Film Industryअपनी एक्टिंग से मुहब्बत को नए आयाम देने वाले कलाकार थे दिलीप कुमार

एक और बात हमारे ज़ेहन में अभिनेता की वास्तविक उम्र नहीं बल्कि उनके किरादरों की उम्र हमेशा के लिए चस्पा हो जाती है. दिलीप साहब 98 वर्ष के थे. आज मेरे पिताजी होते तो उनकी उम्र 82 वर्ष बनती. लेकिन सुबह से मैं बस यही सोचे जा रहा कि कैसे मेरे पिता मेरे लिए बुज़ुर्ग हो गए और उनसे 16 साल बड़े दिलीप कुमार चिरयुवा. सही बात है ऐसे ही तो किरदार हमेशा के लिए अमर हो जाते हैं.

किरदार से याद आया. मेरे पिताजी फिल्म वगैरह नहीं देखते थे. उनके सामने तो टीवी देखना ही गुनाह था और सिनेमाहाल में फिल्म देखने जाना तो अक्षम्य कोटि का अपराध. नब्बे के दशक के बच्चों के लिए शनिवार और रविवार को दूरदर्शन पर दिखाई जाने वाली फिल्में सप्ताह का बड़ा इवेंट होती थी. हां पता नहीं कैसे पिताजी को बलराज साहनी साहब बहुत पसंद थे. उनकी फिल्में पापा साथ बैठकर देखते भी थे. बाकी सब फिल्में और अभिनेता उनकी इस स्कीम में शामिल नहीं थे. पिताजी की इस बात को हम भाई बहन खूब बेहतर तरीके से जानते थे.

एक बार शनिवार या रविवार को पृथ्वीराज कपूर, दिलीप कुमार और मधुबाला अभिनीत फ़िल्म मुगले आजम का प्रसारण होना था. मोहल्ले के हम उम्र बच्चों में यानि मेरे दोस्तों में फिल्म को लेकर बहुत रोमांच था. फिल्म की लोकप्रियता ही ऐसी थी. मैं मन मसोस कर और कुछ ईर्ष्या भरे लहज़े में अपने दोस्तों से तर्क कर रहा था कि कौन सी बढ़िया फिल्म है यह. राजा महाराजा वाली फिल्म होगी जिसमें न 'अमता बच्चन की फैटिंग' होगी न 'टकलू विलेन शेट्टी' को पिटते देखने का सुख.

लेकिन भीतर ही भीतर कुढ़ रहा था कि बलराज साहनी होते तो इस फिल्म में तो हम भी इस फिल्म का आनंद उठाते. बाकी पिताजी के रहते टीवी देखने का मसला ऐसा था कि जिसपर अम्मा भी हाथ खड़े कर देती थी. तो साहब अब बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन ? रात साढ़े आठ बजे दूरदर्शन के समाचार के बाद फिल्म का प्रसारण होना था. पिताजी के बगल मैं भी बेमन से घड़ी देखते और मौसम की जानकारी के बाद पिताजी के टीवी बंद करने के इशारे की प्रतीक्षा कर रहा था.

समाचार खत्म होने की ट्यून बजनी शुरू हो गई. मैं उनके इशारे से पहले गुड ब्वॉय बनने के चक्कर में टीवी ऑफ करने जा रहा था कि तभी पानी पीते पिताजी अम्मा से बोले आज सुन रहे कोई हिस्टोरिकल फिल्म आयेगी. सब बाहर बहुत चर्चा कर रहे. चलने दो टीवी बेटा...!" फिलहाल तब तक इतना तो एक्टिंग तो हम भाई बहन भी सीख लिए थे कि अंदर की घनघोर खुशी को दबाकर और सीरियस होकर ऐसा रिएक्ट करे मानों यह सब सामान्य बात हो.

फिर क्या था देर रात तक पिताजी के साथ रजाई में बैठकर टुकुर टुकुर आनंद लिए. बीच बीच में सलीम और अकबर के संवादों पर पापा के मुंह से निकलने वाले 'वाह वाह क्या बोल गया' की ध्वनि आज भी दिल में बैठी है. इन सबसे सबसे बढ़कर पिताजी की यह पंक्ति कि... अकबर की महान गरिमा और पृथ्वीराज की भारी भरकम व्यक्तिव सामने इतने नफ़ासत से और इतने गंभीर तरीके से सलीम को सिर्फ दिलीप कुमार ही निभा सकता था.

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लेखक

सर्वेश त्रिपाठी सर्वेश त्रिपाठी @advsarveshtripathi

लेखक वकील हैं जिन्हें सामाजिक/ राजनीतिक मुद्दों पर लिखना पसंद है.

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