New

होम -> सिनेमा

 |  4-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 29 सितम्बर, 2015 02:26 PM
विवेक शुक्ला
विवेक शुक्ला
  @vivek.shukla.1610
  • Total Shares

हिन्दी फिल्मों में सामान्य जिंदगी जीने वाला मुसलमान अब गुजरे दौर की बात लग रही है. आप हाल के दौर में उन फिल्मों को उंगुलियों पर गिन सकते हैं, जिनमें मुसलमान सामान्य जीवन व्यतीत करते दिखाए गए हैं. यानी जिनमें वे रोज़मर्रा की बोलचाल में आम आदमी की तरह जीते है. शायद इस तरह की अंतिम फिल्म ‘सलीम लंगड़े पर मत रो’ थी. इसमें मुसलमानों को एक खास अंदाज में पेश नहीं किया गया था. यानी वे शेरवानी नहीं पहने हुए थे. उर्दू नहीं बोल रहे थे.

विजय रंचन ने बॉलीवुड से गुमशुदा मुसलमान विषय पर एक गहन पुस्तक लिखी है. वे 1967 बैच के गुजरात कैडर के आईएएस अफसर हैं. वे इस बात पर अफसोस जताते हैं कि हिन्दी फिल्मों में मुसलमान पात्रों को मुसलमान दिखाने के लिए उर्दू शेरो-शायरी के प्रति लगाव दिखाया जाना जरूरी सा मान लिया गया.

रंचन सूरज बड़जात्या की ‘हम आप के हैं कौन’ का खासतौर पर जिक्र करते हैं. फिल्म में काम करने वाले मुसलमान दम्पति पेशे से डॉक्टर हैं, परन्तु उनकी पहचान उनके धर्म से करवाई गई है, उनके पेशे से नहीं. इस मुसलमान दम्पति को नितांत रूढ़िगत तरीके से प्रस्तुत किया गया है. जिसकी कतई जरूरत नहीं थी. वे मानते हैं कि बॉलीवुड ने मान लिया है कि मुसलमान पात्रों को पेश करते वक्त उसे उर्दू में बोलता हुआ और शेरवानी, बुर्का या हिजाब पहनना जरूरी है. उसे सामान्य इंसान की तरह बॉलीवुड पेश करने से बचता है, डरता है. यही स्थिति ‘अमर अकबर एंथनी’  की लेडी डॉक्टर (नीतू सिंह) के साथ भी दिखाई गई है. वह घर से बाहर निकलते समय बुर्के का सहारा लेती है.

वे हिंदी सिनेमा में ‘मुसलमान’ प्रधान फिल्मों को कई वर्गों में बांटते हैं. पहले वर्ग में  इस्लामी धार्मिक फिल्में  जैसी कि ‘औलिया-ए- इस्लाम’ और ’नेक प्रवीण’, ‘कुली’  गिनी जा सकती हैं.  ‘नेक परवीन’  जैसी फिल्में मुसलमान समाज में पैतृक सत्ता को कायम रखने की फिल्में बनी. दूसरी ओर मुसलमानों के सामाजिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए महबूब खान जैसे निर्माता–निर्देशक मुसलमानों में शिक्षा की ज़रूरत पर फिल्में बनाते रहे- ‘नज़मा’, ‘हैदराबाद की नाजनीन’, रंचन कहते हैं कि ‘चौदवीं का चाँद’ और ‘मेरे महबूब’ के पात्र तो मुसलमान थे, पर इन फिल्मों में भी सामान्य मुसलमान ओझल रहा. सत्यजित रे की ‘शतरंज के खिलाड़ी’ अवध के नवाब के जीवन पर आधारित फिल्म थी. नवाबी पतन के खंडरों को रोमांटिक कुहासे से ढांक दिया है सत्यजित रे ने. फिल्म दो स्तर पर चली है - एक अवध (लखनऊ) के राज्य की ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन की लड़ाई का खेल जिसमें सभी “पासे” ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथ में है, और दूसरी दो नवाबों मिर्ज़ा सज्जाद अली और मीर रोशन अली (संजीव कुमार और सईद ज़ाफरी) के बीच चलता शतरंज का खेल.

बॉलीवुड की पाकिस्तान से अदावत भी पुरानी है. इस क्रम में शायद पहली बार उसे ‘सरफरोश’ में खलनायक बनाया गया और ‘रोज़ा’ ने पाकिस्तान को खलनायक देश की मान्यता को पुष्टि प्रदान की.  भारतीय शहरों पर पाकिस्तान प्रायोजित हमले हुए तब मुसलमानों को कठोर और क्रूर दिखाया जाने लगा. रंचन कहते हैं कि मुंबई बम विस्फोट पर बनी ‘ब्लेक फ्राइडे’ में मुसलमान पूरी तरह से हृदयहीन क्रूर धर्मांध बन गए. मुसलमान को ‘घर का भेदी’ विश्वासघाती प्रस्तुत किया गया, उसे पाकिस्तानी होने की तोहमते सहनी पड़ीं. इस का उदाहरण है ‘चक दे इंडिया’. कबीर खान (शाहरुख़ खान) भारतीय हॉकी टीम का श्रेष्ठ सेंटर फॉरवर्ड पाकिस्तान के विरूद्ध फाइनल मैच में पेनल्टी स्ट्रोक के जरिये गोल बनाने में चूक गया. और भारत वह सबसे महत्वपूर्ण मैच हार गया. मुसलमान होने के कारण उस पर देशद्रोह और दुश्मन मुस्लिम मुल्क के प्रति वफादारी की तोहमते लगीं. खेल से रिटायर होने के सात साल बाद उसे महिला हॉकी टीम का कोच बनने का अवसर मिलता है. इस टीम को विश्व विजेता बनाकर वह अपने ऊपर लगे हुए दाग को धोना चाहता है, जिसके लिए वह महिला टीम में सबसे पहले भारतीय होने की भावना उत्पन्न करता है. टीम के लिए चुनी हुई लड़कियां केवल नाम के लिए खेलती थीं. अलग प्रदेशों से आई इन लड़कियों में एकता का अभाव था. कबीर खान इस बात पर जोर देता है कि वे भारतीय पहले हैं, फिर वे महाराष्ट्र या पंजाब की हैं. रंचन मानते हैं कि हिन्दी फिल्मों को मुसलमान पात्रों के साथ इंसाफ करना सीखना होगा.

#बॉलीवुड, #मुस्लिम, #चक दे इंडिया, बॉलीवुड, मुस्लिम, चक दे इंडिया

लेखक

विवेक शुक्ला विवेक शुक्ला @vivek.shukla.1610

लेखक एक पत्रकार हैं.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय