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Updated: 13 नवम्बर, 2021 08:18 PM
ज्योति गुप्ता
ज्योति गुप्ता
  @jyoti.gupta.01
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जातीय भेदभाव के उत्पीड़न पर बनी फिल्म जय भीम (jai bhim) खूब नाम कमा रही है. इस फिल्म में कानून व्यवस्था, पुलिस, कोर्ट, जज, कचहरी, आदिवासी, गरीब और कमजोर वर्ग को दर्शाया गया है. जिस तरह यह फिल्म प्रशासन पर सवाल उठाती है उसकी चर्चा पूरे देश में है.

इस फिल्म में आप देखेंगे कि कैसे वकील बने सुपरस्टार सूर्या एक इरुलर समुदाय के दंपति राजकन्नू और सेंगनी को न्याय दिलाता है. इस आर्टिकल के जरिए हम आपको कुछ ऐसी ही सच्ची घटनाओं के बारे में बता रहे हैं जब कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद पुलिस वालों पर कार्रवाई हुई और पीड़ितों को न्याय मिल सका.

1- केरल के तिरुवनंतपुरम में साल 2018 में विशेष सीबीआई अदालत ने दो पुलिसकर्मियों सहायक सब इंस्पेक्टर जीतकुमार और पुलिस अधिकारी एस वी श्री कुमार को मौत की सजा सुनाई. दरअसल, साल 2005 में पुलिस कस्टडी में 26 साल के युवक उदयकुमार की मौत हो गई थी. उदयकुमार को चोरी के आरोप में हिरासत में लिया गया था. पुलिस पर आरोप है कि उनकी प्रताड़ना के कारण उदयकुमार की थाने में ही मौत हो गई. बेटे की मौत खबर मिलने पर उदयकुमार की मां भावती हाईकोर्ट पहुंची थीं.

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जिसके बाद ही मामला सीबीआई को सौंप दिया गया था. केरल में मानवाधिकार संगठनों के साथ आम नागरिकों ने उदयकुमार को इंसाफ दिलाने के लिए प्रदर्शन किया था. इस मामले में सबूत नष्ट करने के आरोप में टीके हरिदास, ईके साबू और अजीत कुमार को 3 साल की जेल की सजा भी सुनाई गई.

2- यूपी के जौनपुर में पुलसि कस्टडी में मुन्नू जायसवाल की मौत हो गई थी. जिसके बाद सुजानगंज थाना क्षेत्र में 14 सितंबर 2002 को 6 पुलिसकर्मियों को उम्र कैद की सजा सुनाई. इन पुलिस वालों पर आरोप था कि वे जमीन विवाद के बाद मुन्नू के पड़ोसी हरि नारायण के कहने पर उसे पकड़कर थाने लाए थे.

जहां हिरासत में इसकी मौत हो गई. 9 साल केस चलने के बाद आखिरकार साल 2011 में जौनपुर के जिला एवं सत्र न्यायाधीश वीके पांडे ने इस मामले में उप निरीक्षक आरपी त्यागी सहित पांचों सिपाहियों और हरि नारायण को हत्या का दोषी करार दिया और आजीवन कारावास की सजा सुनाई.

3- महाराष्ट्र के नागपुर में पुलिस कस्टडी में हुई मौत मामले में सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की थी कि अगर किसी को शक्ति मिल जाती है तो उसकी जिम्मेदारी और अधिक बढ़ जाती है. इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने 4 सितंबर 2018 को 10 पुलिसवालों को 7 साल की सजा सुनाई थी. जबकि निचली अदालत ने 3 साल की ही सजा सुनाई थी जिसे सुप्रीम कोर्ट ने बढ़ा दिया था.

ये कुछ वे कहानियां है जो न्याय पर भरोसा दिलाती हैं लेकिन ऐसी सैकड़ों कहानियां ऐसी हैं, जो डर के मारे कोर्ट तक पहुंच ही नहीं पाते, न्याय मिलना तो उनके लिए दूर की बात है. असल में शायद गरीब लोगों के जीवन की कोई कीमत ही नहीं होती, इसलिए तो किसी का भी इनपर ध्यान ही नहीं जाता. उनकी मौत मायने नहीं रखती जैसे वे पैदा ही मरने के लिए हुए हैं...जयभीम फिल्म समाज के इसी चेहरे को उजागर करती है...

लेखक

ज्योति गुप्ता ज्योति गुप्ता @jyoti.gupta.01

लेखक इंडिया टुडे डि़जिटल में पत्रकार हैं. जिन्हें महिला और सामाजिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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