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Updated: 12 जनवरी, 2020 05:30 PM
अनु रॉय
अनु रॉय
  @anu.roy.31
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कोई चेहरा मिटा के और आँख से हटा के चंद छींटे उड़ा के जो गया, छपाक से पहचान ले गया.आरज़ू थे शौक़ थे वो सारे हट गए, कितने सारे जीने के तागे कट गयेसब झुलसा हुआ. सब झुलस गया!

अभी भी एक ट्रांस में. कैसा महसूस कर रही हूँ यह कह पाना नामुमकिन सा लग रहा. फ़िल्म (Chhapaak) देखे कुछ घंटे गुज़र चुके हैं मगर दिमाग़ में अभी भी फ़िल्म ही चल रही. परत दर परत खुल रही. अरिजित सिंह के गाए इसी गाने को अभी लूप में प्ले कर छोड़ा है. इस वक़्त जो लाइन प्ले हो रही है वो है-

“एक चेहरा जैसे मोहरा गिरा जैसे धूप को ग्रहण लग गया.”

गुलज़ार साहेब ने इस बार गीत नहीं दर्द को लिखा है. उस दर्द को जो सिर्फ़ एक ऐसिड-अटैक (Acid Attack) सरवाईवर ही महसूस कर सकती है. जो सिर्फ़ लक्ष्मी और लक्ष्मी जैसी तमाम बहादुर लड़कियाँ ही झेल सकती हैं. हम आम लड़कियाँ तो वो हैं जो पिरीयड्स से पहले आए पिंपल को ले कर भी कम्प्लेन करने लगती हैं. आँखों के नीचे उग आए काले गड्ढे को कंसिलर लगा बाज़दफ़ा हाइड करने की कोशिश करती हैं. ये हम से अलग हैं, काफ़ी अलग क्योंकि ये बहादुरी की मिशाल हैं. हिम्मत और उम्मीद की शक्ल कैसी होती होगी ये आज मुझे छपाक फ़िल्म देखने के बाद एहसास हुआ.

Chhapaak Movie Review Deepika Padukonछपाक फिल्म में इस बार गुलजार ने गाने नहीं, बल्कि दर्द लिखा है.

जी हाँ, मैं यहाँ दीपिका पादुकोण (Deepika Padukon) स्टारर फ़िल्म छपाक की बात कर रही हूँ. वो जेएनयू वाली कॉन्ट्रोवर्सी या अपराधी का नाम बदल दिया इस बवाल की ज़रूरत न तो इस फ़िल्म को है और न दीपिका को. ये फ़िल्म अपने आप में एक मुकम्मल पीस ऑफ़ ऑर्ट है. जिसे मेघना गुलज़ार ने यूँ बनाया है कि आप हर एक सीन के साथ जुड़ते चले जाएँगे. फ़िल्म रियल-लाइफ़ की घटना पर आधारित है तो सस्पेंस जैसा कुछ भी नहीं है. फ़िल्म 2012 के निर्भया कांड के लिए हो रहे प्रोटेस्ट से शुरू होती है. फिर पुलिस का वही प्रदर्शनकारियों पर पानी और आँसू गैस छोड़ना जो अभी देश भर में चल रहा दिखता है. धीरे-धीरे फ़ोकस शिफ़्ट होता है लक्ष्मी यानि मालती अग्रवाल पर, जिनके चेहरे पर बब्बू नाम का एक शख़्स ऐसिड फेंक देता है. मालती का पूरा चेहरा झुलस चुका है. उसने अपना नाक-कान सब खो दिया है. फ़िल्म के एक दृश्य में जब उनकी माँ उन्हें टोकती हैं अपने सामान को पैक करने से तो वो कहती है,

“नाक नहीं है कान नहीं है, अब झुमके कहाँ लटकाऊँगी?”

ये सिर्फ़ फ़िल्म का एक डायलॉग भर नहीं है. ये उन हज़ारों ऐसिड-अटैक सरवाईवर की हक़ीक़त है. ऐसिड अटैक के बाद चेहरे के नाम पर सिर्फ़ माँस का लोथड़ा ही तो बचता है. जिसे हम और आप बारहा अनजाने में ही सही देख कर डर जाते हैं तो कभी नज़रें फेर लेते हैं. फ़िल्म में इस बात को बख़ूबी मेघना ने दिखाया है. मालती के देश में ऐसिड की बिक्री बंद करने की माँग से ले कर अपने अपराधी को सजा दिलवाने तक के सफ़र को बारीकी से क़ैद किया है. मालती की ज़िंदगी का एक भी पहलू अनछुआ सा नहीं छोड़ा है. चाहे वो कंस्ट्रकशन सर्जरी के बाद अपने चेहरे को देख कर अनजाना सा महसूस करना हो या फिर मालती के झुलसे दिल का फिर से खिलना हो. अमोल की तरफ़ मालती का झुकना, चोर नज़रों से उसको देखना फ़िल्म के सबसे मुलायम पलों में से एक हैं. जब ये दिखता है कि ऐसिड फेंक कर कोई सिर्फ़ चेहरा बदल सकता है किसी से उसके इंसान होने को नहीं छीन सकता. सपने झुलसे चेहरे के साथ भी देखे जा सकते हैं.

छपाक मालती अग्रवाल यानि लक्ष्मी की पूरी जर्नी को दिखाने में क़ामयाब रही है. ऐक्टिंग की बात करें तो दीपिका पादुकोण इस फ़िल्म में कहीं भी दीपिका नहीं बल्कि मालती ही लगी हैं. जब-जब वो चीख़ीं हैं, रोई हैं बतौर दर्शक मेरी रूह भीगी है. वो शॉट जिसमें में फ़र्श पर ऐसिड फेंकने के बाद गिरती दिखाई गयी हैं उसके लिए उनकी और मेघना की जितनी भी तारीफ़ हो कम ही होगी. विक्रांत मेसी फ़िल्म में कम ही दिखे हैं मगर जब भी दिखे हैं अपना असर छोड़ा है. उनका वो डायलॉग, “रेप के आगे ऐसिड अटैक की क्या पूछ!” जिस अन्दाज़ में उन्होंने बोला है क़ाबिले-तारीफ़ है. उनके अलावा मालती की वक़ील और उनके माँ-पापा का किरदार निभा रहे ऐक्टर भी अपनी-अपनी जगह पर उन किरदारों से जस्टिस करते दिखे हैं. और डायरेक्टर मेघना गुलज़ार के लिए क्या कहना. फ़िल्म दर फ़िल्म वो एक निर्देशिका के तौर पर निखरती जा रही हैं. स्त्री होने के नाते वो अपनी फ़िल्म की महिला किरदार की हर एक बारीकी को ख़ूबसूरती और नफ़ासत के साथ पर्दे पर उतारती हैं.

सभी कॉन्ट्रोवर्सी को भूल छपाक इस वीकेंड पर ज़रूर देखिए अगर फ़्री हैं तो. ये एक ज़रूरी फ़िल्म है. ख़ास कर लड़के देखें इस फ़िल्म को और समझने की कोशिश करें कि मोहब्बत हासिल कर लेने का नाम नहीं है. जो नहीं मिला उस पर ऐसिड फेंक उसे बर्बाद कर देना आपको इंसान नहीं हैवान बनाता है. इस फ़िल्म को फ़िल्म के तौर पर नहीं, बल्कि एक थेरेपी-सेशन के तौर पर देखिए. पर देखिए ज़रूर.

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लेखक

अनु रॉय अनु रॉय @anu.roy.31

लेखक स्वतंत्र टिप्‍पणीकार हैं, और महिला-बाल अधिकारों के लिए काम करती हैं.

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