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Updated: 27 अगस्त, 2021 10:14 PM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
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अमिताभ बच्चन-इमरान हाशमी स्टारर कोर्ट रूम ड्रामा मिस्ट्री थ्रिलर "चेहरे" सिनेमाघरों में रिलीज हो चुकी है. चेहरे की सपोर्टिंग कास्ट में धृतिमान चटर्जी, रघुवीर यादव, अन्नू कपूर के साथ रिया चक्रवर्ती भी हैं. फिल्म का निर्देशन रूमी जाफरी ने किया है. रूमी ने बॉलीवुड की कई सुपरहिट कॉमेडी ड्रामा की कहानियां लिखी हैं. अक्षय खन्ना के साथ एक कॉमेडी ड्रामा का निर्देशन भी कर चुके हैं. बतौर निर्देशक चेहरे उनके लिए एक नया टॉपिक है. सुशांत सिंह राजपूत आत्महत्या केस और ड्रग कंट्रोवर्सी की वजह से निर्माताओं ने रिया चक्रवर्ती को प्रमोशन से दूर ही रखा है. ट्रेलर में एक पल के लिए उनकी झलक दिखी थी. सोशल मीडिया पर भी रिया ने निजी तौर पर फिल्म के प्रमोशन से दूरी बना रखी है. हालांकि ऐसा सिर्फ इसलिए है ताकि सुशांत के समर्थक फिल्म का निगेटिव कैम्पेन ना करें.

हालांकि ऐसा दिख नहीं रहा है. इंटरनेट पर एक धड़ा रिया चक्रवर्ती के बहाने चेहरे का विरोध कर रहा है. इंटरनेट की तमाम ऑडियंस रिव्यू में लोग रिया की वजह से चेहरे को लेकर बुरा भला लिखते नजर आ रहे हैं. ज्यादातर लोग सिर्फ रिया के विरोध की वजह से चेहरे को खारिज कर रहे हैं वो कई चीजें मिस कर सकते हैं. दरअसल, भले ही चेहरे में रिया भूमिका निभा रही हैं मगर सिर्फ इतने भर से ये उनकी फिल्म नहीं हो जाती. वो एक मामूली भूमिका में हैं. उनके किरदार का फिल्म की कहानी से कोई संबंध स्थापित नहीं कर पाता. बस थ्रिल और सस्पेंस के लिए उनके कुछ फ्रेम हैं. रिया नहीं भी होती तो चेहरे की पटकथा पर कोई असर नहीं पड़ सकता था. रिया जिस तरह की भूमिका में हैं, फिल्म के फिल्म के विरोध से उनके करियर पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. हां, इससे दूसरे लोग जरूर प्रभावित हो सकते हैं.

आइए जानते हैं रिया की वजह से फिल्म ना देखने वाले क्या चीजें मिस कर सकते हैं.

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#1. अमिताभ-इमरान का काम

चेहरे में अमिताभ बच्चन और इमरान हाशमी ने कोई महान काम नहीं किया है. बावजूद दोनों स्क्रीन पर खटकते नहीं. वैसे चेहरे का पूरा दारोमदार इन दोनों अभिनेताओं के कंधे पर ही है. अमिताभ बच्चन, रिटायर्ड पब्लिक प्रोक्सीक्यूटर लतीफ़ जैदी की भूमिका में हैं. वे दिल्ली से बहुत दूर सुनसान बर्फीले पहाड़ों में रहते हैं. यहां उनके पेशे से जुड़े तीन और दोस्त भी रहते हैं जिनमें एक जज, एक डिफेंस लायर और एक जल्लाद है. जबकि इमरान हाशमी समीर मेहरा की भूमिका में हैं. समीर कामयाब युवा कॉरपोरेट हैं. उन्हें लग्जरी पसंद है और सफलता की ओर भागते हैं. उसके लिए कुछ भी कर सकते हैं. दोनों का लुक बहुत असरदार है. फिल्म ज्यादातर एक ही घर में एक पूरे रात की कहानी है. इस वजह से किरदारों की आपसी बातचीत लाजवाब है. अमिताभ के हिस्से बहुत सारे दमदार संवाद आए हैं. क्लाइमेक्स से पहले अमिताभ के लंबे मोनोलॉग को छोड़ दिया जाए तो उनका काम असरदार है. उनकी संवाद अदायगी तर्क और हावभाव देखने लायक है. मोनोलॉग भी वैसे खराब नहीं है मगर वह पिंक में निभाई उनकी भूमिका के एक्सटेंशन की तरह नजर आता है. इमरान ने भी अच्छा काम किया है. हालांकि कुछ फ्रेम में उनके चेहरे के हावभाव और संवाद अदायगी सिचुएशन के हिसाब से सटीक नहीं दिखती. ओवरऑल दोनों सितारों के प्रशंसकों को काम पसंद आएगा.

#2. दूसरी बेहतरीन सपोर्टिंग कास्ट के लिए

भले ही अमिताभ और इमरान चेहरे का लीड फेस हैं, बावजूद फिल्म में सपोर्टिंग कास्ट ने दमदार उपस्थिति दर्ज कराई है. जस्टिस आचार्य की भूमिका में धृतिमान चटर्जी नेचुरल दिखते हैं. बिल्कुल परफेक्ट. उनके बोलने का अंदाज कमाल का है. डिफेंस लायर भुल्लर की भूमिका में अन्नू कपूर ने हमेशा की तरह लाजवाब किया है. उनके हिस्से छोटे छोटे संवाद आए हैं. लेकिन जबरदस्त पंच के साथ. पंजाबी टोन में ठहरकर जब वो संवाद बोलते हैं तो बरबस तालियां बजाने को जी करता है. वो जब भी फ्रेम में होते हैं, असरदार और मनोरंजक दिखाते हैं. सपोर्टिंग कास्ट में जल्लाद हरिया की भूमिका में रघुवीर यादव हैं. चारों बुजुर्ग दोस्तों में रघुवीर के हिस्से बहुत कम संवाद हैं. वो चुप एक कोने में सोफे पर बैठकर बांसुरी बजाते दिखते हैं. उनका लुक दूसरे किरदारों से बिलकुल अलग दिखता है. उनका खामोश किरदार काफी देर तक उन्हें लेकर दर्शकों की उत्सुकता बनाए रखने में कामयाब हुआ है. नताशा ओसवाल की भूमिका में क्रिस्टल डीसूजा का ग्रेशेड भी प्रभावित करता है.

#3. रंजित कपूर की लिखाई के लिए

फिल्म की कहानी में कुछ खामियां जरूर हैं लेकिन राइटिंग के लिए रंजीत कपूर तारीफ़ के हकदार हैं. उन्होंने कोर्ट रूम ड्रामा में एक अच्छा प्रयोग करते हुए उसे पारंपरिक खांचे से बाहर निकाला है. फ्लैशबैक के कुछ हिस्सों को छोड़ दिया जाए तो ये राइटिंग का ही कमाल है कि उन्होंने लगभग पूरी फिल्म एक लोकेशन पर दिखाते हुए दर्शकों पर ग्रिप बनाए रखा. ऐसी कहानियों में राइटिंग कमजोर होने से रोचकता के जल्द ख़त्म होने का खतरा बना रहता है.

#4. लाजवाब संवादों के लिए

चेहरे की कहानी का एक हीरो तो असल में उसके संवाद भी हैं. वैसे भी कोर्ट रूम ड्रामा में संवादों की ही अहमियत होती है. संवाद ही कहानियों को आगे बढ़ाते हैं. फिल्म के संवाद रंजित कपूर के साथ खुद रूमी जाफरी ने लिखे हैं. निश्चित ही बढ़िया. शेरो शायरी भी खूब है. बहुत दिनों बाद उम्दा संवाद सुनने को मिलते हैं. इसे दर्शक खुद भी महसूस कर सकते हैं. हां आखिर में अमिताभ का मोनोलॉग विषय से भटका नजर आता है जिसमें अपराधी को सजा देने की दलील में बहुतायत दिल्ली के चर्चित निर्भया केस का संदर्भ लिया गया है. जबकि चेहरे के कोर्ट रूम में सुनवाई का विषय बलात्कार था ही नहीं.

#5. रूमी जाफरी के प्रयोग और सिनेमैटोग्राफी के लिए

इससे पहले रूमी जाफरी बतौर निर्देशक हल्के फुल्के विषयों की मनोरंजक विषयों की फ़िल्में करते थे जिसमें लाइफ पार्टनर, गॉड तुस्सी ग्रेट हो और गली गली चोर है शामिल है. रूमी ने कहानी, संवाद और पटकथा लेखक के तौर पर भी कूली नं 1, गोलमाल रिटर्न्स, शादी करके फंस गया यार, मुझसे शादी करोगी, चलते चलते, जीना सिर्फ मेरे लिए, ओम जय जगदीश, हम किसी से कम नहीं, जोड़ी नं 1, मुझे कुछ कहना है और कुंवारा जैसी तमाम मसाला फ़िल्में की हैं. चेहरे में बतौर निर्देशक जमी जमाई छवि से बिल्कुल अलग उनका अंदाज प्रभावित करता है.

बर्फीले पहाड़ों का ख़ूबसूरत लोकेशन है. इसे शूट बहुत कायदे से किया है. सिनेमेटोग्राफी के लिए विनोद प्रधान की तारीफ़ की जानी चाहिए. वाकई इनडोर सेट में उन्होंने कैमरे का दिलचस्प इस्तेमाल किया है. बोधादित्य बनर्जी ने फिल्म का संपादन भी चुस्त दुरुस्त किया है.

लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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