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Updated: 14 अगस्त, 2021 09:09 AM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
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भुज: द प्राइड ऑफ इंडिया है तो वॉर फिल्म लेकिन अब तक बॉलीवुड में बनी वॉर फिल्मों के मुकाबले सबसे कमजोर दिखती है. और ये कमजोरी ट्रीटमेंट की वजह से आई है. ट्रीटमेंट कई स्तरों पर खराब नजर आया. भुज की असल कहानी में सबकुछ था. युद्ध की एक बेमिसाल कहानी. भावुकता, बहादुरी और देशप्रेम. उस कहानी में जिसमें वायुसेना के एक अफसर की अगुवाई में तीन सौ महिलाओं और ग्रामीणों ने मिलकर कुछ ही घंटों में एक असंभव काम को पूरा कर दिखाया. सिनेमाई स्वतंत्रता थी और मेकर्स ने इसे दिल खोलकर इस्तेमाल भी किया. लेकिन सिनेमाई आजादी के जरिए कहानी में आवश्यक थ्रिल और ड्रामा को ही संभव नहीं बनाया जा सका.

सोचने वाली बात है कि पाकिस्तान ने 1971 की जंग में देश के पश्चिमी हिस्से को निशाना बनाया. यह उसकी बड़ी रणनीति का हिस्सा था. पूर्वी छोर पर यानी बांग्लादेश में पाकिस्तान लगभग सबकुछ गंवा चुका था. वापसी का कोई चारा नहीं था. भारत को आशंका थी मगर इस बात को लेकर लगभग निश्चिंत था कि पाकिस्तान हवा में कोई दुस्साहस करने की जुर्रत नहीं करेगा. उस जंग में पाकिस्तान ने वायुसेना के जरिए वही किया जो उसके लिए सबसे बेहतर विकल्प था. उसने देश के पश्चिमी हिस्से में भारतीय वायुसेना के सभी बेस को निशाना बनाया और ताबड़तोड़ हमले किए. गुजरात का कच्छ उसके लिए भारत में घुसने का सबसे बेहतर रास्ता था.

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दरअसल, पाकिस्तान किसी भी सूरत में भारत के पश्चिमी इलाके पर कब्ज़ा करना चाहते थे. भुज उसके लिए सबसे माकूल जगह थी. पाकिस्तान चाहता था कि वो कच्छ के बदले बांग्लादेश को लेकर भारत सरकार से मोलभाव करेगा. इसी रणनीति में उसने वायुसेना का इस्तेमाल कर भुज के एयरबेस को लगभग बर्बाद कर पाकिस्तानी सेना को घुसने के लिए मौका दे दिया था. कच्छ की भौगिलिक स्थिति में भारतीय सेना तबाह एयरबेस के बिना सीधे-सीधे पीछे हटने को मजबूर होती. क्योंकि पाकिस्तान को रोकने के लिए भुज में ना तो पर्याप्त सैनिक थे और ना ही साजो सामन. रसद पहुंचाने का एक मात्र जरिया तबाह एयरबेस था उस वक्त जिसके शुरू होने कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही थी. गांव की साधारण महिलाओं और ग्रामीणों ने कुछ ही घंटों के अंदर उसे दोबारा इस्तेमाल के लायक बना दिया.

कायदे से भुज की इसी कहानी में थ्रिल बाहर आना चाहिए था जो कि नहीं है. मेकर्स ने ड्रामे के लिए बहुत सारी छूट ली, मगर वैसा थ्रिल नहीं बना पाए जिसकी कमी भुज देखने के बाद बहुत खल रही है. पटकथा शुरुआत से ही बिखरी नजर आती है. फ्लैशबैक उपकथाओं को स्टेब्लिश करने के चक्कर में कहानी इधर-उधर होकर बर्बाद हो जाती है. भुज किसकी कहानी है समझ में नहीं आता. रणछोड़ दास पागी (संजय दत्त), हीना रहमान (नोरा फतेही) और सेना के अफसर नायर की कहानी या स्क्वैड्रन लीडर विजय कार्णिक (अजय देवगन) और सुंदरबेन (सोनाक्षी सिन्हा) के साथ गांव की महिलाओं की कहानी है. या फिर विक्रम सिंह बाज (एमी विर्क) की कथा जो दूसरी पिच पर ही चलती रहती है.

एक ही कहानी में इतने बिखराव से कथा का थ्रिल ख़त्म हो जाता है और रोचकता नहीं रह जाती है. भुज जैसी कहानियां प्रेडिक्टेबल होती हैं. इन्हें ड्रामा और थ्रिल के जरिए ही रोचक बनाया जाता है. यही वजह है कि युद्ध आधारित फिल्मों में उपकथाओं को बहुत तवज्जो नहीं दी जाती जितनी भुज में दे दी गई. भुज विजय कार्णिक और सुंदरबेन को केंद में ही रखकर लिखी जाती तो बेहतर था. जबकि भुज में मेकर्स ने साफ़ किया है कि कहानी भले ही सच्ची घटनाओं से प्रेरित है मगर मनोरंजक बनाने के लिहाज से उसमें सिनेमाई फेरबदल किए गए हैं. दुर्भाग्य से बेमतलब फेरबदल में कुछ चीजें हास्यास्पद बन गई हैं. उनका लॉजिक ही समझ में नहीं आता. धार्मिक प्रोपेगंडा को भुनाने की कोशिश भी भुज में नजर आती है. गाय को बचाने के लिए सोनाक्षी एक जगह तेंदुए को मारती हैं. पाकिस्तानी अफसर हिंदुओं के खिलाफ मुस्लिम ब्रदरहुड और खुद को मुगलों से जोड़ते हुए भारत को सालों जूते के नीचे रखने की बात करता है. विजय कार्णिक मराठा और शिवाजी का नाम लेते हैं. विक्रम सिंह गुरुओं की बात करता है कि कैसे उन्होंने धर्म के लिए जंगे लड़ी. निर्देशक अभिषेक दुधैया का दुर्भाग्य है कि ये चीजें भी असरदार तरीके से नहीं बन पाई.

फिल्म की जो सबसे अच्छी बात है वो है दमदार सपोर्टिग कास्ट का लाजवाब काम. लेकिन जब कहानी में दर्शकों को बांधे रखने क्षमता ही नहीं है तो भला वो अभिनय से कितनी देर तक फिल्म को असरदार बना के रख सकता है. अजय देवगन, संजय दत्त, सोनाक्षी सिन्हा ने अपने किरदारों को अच्छा किया. शरद केलकर का अभिनय तो सबसे लाजवाब दिखा. शरद के फ्रेम देखने में निश्चित ही सबसे ज्यादा मजा आता है. कह सकते हैं कि वो सबपर भारी हैं. एमी विर्क का काम तो ठीक था लेकिन वो संवादों को बहुत जल्दी बोल रहे थे. बॉलीवुड फ़िल्में देखने वालों को ऐसी सवांद अदायगी खटकेगी. अजय की पत्नी के किरदार में प्रणिता सुभाष के लिए करने लायक कुछ था ही नहीं. बाकी दूसरी स्टारकास्ट ने अपने हिस्से का काम बखूबी किया. वीएफएक्स अच्छा है. संपादन अपनी जगह ठीक है.

भुज को देखने की सिर्फ दो वजह हो सकती है. वो यह कि फिल्म 1971 की जंग के तमाम हीरोज की बहादुरी से प्रेरित होकर बनी है. और आखिर में अरिजीत सिंह की आवाज में ओ देश मेरे के रूप में एक ख़ूबसूरत गाना है. भुज को डिजनी प्लस हॉटस्टार पर देखा जा सकता है.

लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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