दिलीप कुमार के 7 किरदार और उनमें छिपे जीवन के सबक
दिलीप कुमार ने फ़िल्मी करियर में कई बेहतरीन भूमिकाएं निभाई हैं. दिलीप कुमार के कई किरदार जीवन से जुड़े सबक सिखाते हैं. आइए जानते हैं.
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1) अंदाज : 1949 में आई रोमांटिक ड्रामा का निर्देशन महबूब खान ने किया था. अंदाज में दिलीप कुमार, राजकपूर और नर्गिस का प्रेम त्रिकोण है. एक हादसे की वजह से नर्गिस से दिलीप कुमार की मुलाक़ात होती है और दोनों काफी घुलमिल जाते हैं. दिलीप उन्हें मन ही मन प्यार करने लगते हैं. एकतरफा प्यार. जबकि नर्गिस की पहले से ही राजकपूर से शादी तय है. दिलीप प्रपोज भी करते हैं मगर नर्गिस इनकार देती हैं. इनकार के बाद दिलीप टूटे मन से दूर चले जाते हैं. लेकिन अभी भी उनके मन के एक कोने में नर्गिस मौजूद हैं. जब दिलीप वापस आते हैं तो नर्गिस की शादीशुदा जिंदगी को तूफ़ान उड़ा ले जाता है. पति से रिश्ता खराब हो जाता है और जबरदस्ती से बचने की कोशिश में नर्गिस के हाथों दिलीप कुमार की हत्या भी हो जाती है.
जीवन का सबक : कोई लड़की अगर आपकी मौजूदगी से सहज है, घुलमिल कर रहती है साथ वक्त गुजारती है तो इसका मतलब सिर्फ यह नहीं कि वो आपको प्रेमी की तरह चाहती ही है. लड़की का किसी पुरुष से प्रेम, दोस्ती का भी एक रूप होता है.
2) देवदास : साल 1955 में आई शरतचंद्र के उपन्यास पर आधारित रोमांटिक ड्रामे का निर्देशन विमल रॉय ने किया था. इसमें दिलीप कुमार के अपोजिट वैजयंती माला और सुचित्रा सेन थीं. देवदास रईस बंगाली ब्राह्मण परिवार के इकलौते वारिस हैं और कोलकाता में रहकर पढ़ाई करते हैं. गांव के उनके पड़ोस में ख़ूबसूरत पारो रहती है. पारो भी ब्राहमण है, लेकिन जातिवादी व्यवस्था में उसके परिवार की हैसियत मामूली है. देवदास और पारो एक-दूसरे को प्यार करने लगते हैं और शादी करना चाहते हैं. देव के पिता को ये रिश्ता किसी भी सूरत में मंजूर नहीं है. पारो के घरवाले बेटी की शादी कहीं और कर देते हैं. देवदास यह सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाटा और घर परिवार छोड़कर कोलकाता चला जाता है. यहां पारो को भुलाने के लिए शराब का सहारा लेता है. शराब की लत ने उसे तवायफ चंद्रमुखी के कोठे तक पहुंचा दिया. चंद्रमुखी भी देवदास को प्यार करने लगती है लेकिन देव के दिल में अब किसी और के लिए कोई जगह ही नहीं बची है. प्रेमिका को खो देने का गम और बहुत ज्यादा शराब पीने की वजह से देव की मौत के मुहाने पहुंच जाता है. वो आख़िरी बार पारो को देखना चाहता है और एक दिन उसकी चौखट पर पहुंचता भी है लेकिन पारो को देखने से पहले ही दम तोड़ देता है.
जीवन का सबक : प्यार या रिलेशनशिप किन्हीं वजहों से टूट गया तो उसे वहीं छोड़कर आगे बढ़ जाना चाहिए. उसी जगह फंसे रहने में सिर्फ बर्बादी के सिवा कुछ भी हाथ नहीं लगता.
3) दाग : साल 1952 में आई इस फिल्म का निर्देशन अमिय चक्रवर्ती ने किया था. ये एक रोमांटिक ड्रामा है. दिलीप कुमार के अपोजिट निम्मी हैं. दिलीप कुमार यानी शंकर बेहद गरीबी में मिट्टी के खिलौने बेचकर अपनी मां के साथ किसी तरह गुजारा कर रहे हैं. घर ठीक से चल नहीं पा रहा और कर्ज का बोझ धीरे-धीरे बढ़ता ही चला जा रहा है. शंकर को शराब की लत लग जाती है. उनके पड़ोस में बिना मां बाप की लड़की निम्मी यानी पार्वती अपने भाई के साथ रहती है. हालात ऐसे बनते हैं कि शंकर को घर बार छोड़कर बाहर जाना पड़ता है. शंकर ने शराब छोड़ दिया और पैसे कमाने पर ध्यान लगाते हैं. वो बहुत सारा पैसा कमाते हैं इस बीच उनकी मां का निधन हो जाता है. अमीर शंकर वापस लौटता है और पार्वती को प्यार करने लगता है. वो पार्वती के भाई के पास शादी का प्रस्ताव भी भेजते हैं, लेकिन दिक्कत ये है कि भाई ने उसकी शादी कहीं और फिक्स कर दी है. शंकर का दिल टूट जाता है और वो फिर से शराब पीना शुरू कर देते हैं. सिर्फ पार्वती का प्यार ही शंकर को बचा सकता है. जबकि पार्वती के भाई को लगता है कि एक शराबी जीवन में कभी नहीं सुधर सकता. कुछ घटनाओं के बाद शंकर और पार्वती की शादी हो जाती है. शंकर शराब छोड़ देता है.
जीवन का सबक: शराबखोरी किसी भी समस्या का हल नहीं. ये जीवन को आबाद करने की बजाय बर्बादी की ओर धकेलता है.
4) फुटपाथ : साल 1953 में आई इस फिल्म में दिलीप कुमार के अपोजिट मीना कुमारी थीं. ये फिल्म अनाज और दवाओं की कालाबाजारी को लेकर बनाई गई थी जिसका निर्देशन जिया सरहदी ने किया था. दिलीप कुमार ने जर्नलिस्ट नोसू की भूमिका निभाई थी जो ख़ूबसूरत प्रेमिका को पाने के लिए खूब सारे पैसे कमाना चाहता है और इसी प्रयास में ब्लैक मार्केटियर बन जाता है. नोसू खूब पैसे तो कमाता है लेकिन इस बीच जमाखोरी और कालाबाजारी की वजह से लोग दम तोड़ते नजर आते हैं. यहां तक कि नोसू की आँखों के सामने उसका बड़ा भाई भी दम तोड़ देता है. वो अपनी ही नजरों में गिरता जा तरह है. उसे अपनी गलती का एहसास होता है. नोसू खुद को पुलिस के हवाले कर देता है. उसके खुलासे की वजह से कालाबाजार करने वाले अपराधी जेल की सलाखों के पीछे पहुंचते हैं.
जीवन का सबक : गलत तरीके कभी-कभी उलटे पड़ जाते हैं और निजी तौर पर उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है. जमाखोरी-कालाबाजारी से पैसे तो कमाए जा सकते हैं लेकिन ये पैसे किसी मजबूर की हत्या के बदले मिले धन के बराबर ही हैं जो कभी सुख चैन से जीने नहीं देगा.
5) राम श्याम: साल 1967 में आई फिल्म में दिलीप कुमार ने डबल रोल किया था. उनके अपोजिट वहीदा रहमान और मुमताज थीं. फिल्म का निर्देशन तापी चाणक्या ने किया था. ये फिल्म जुड़वा भाइयों राम और श्याम की कहानी है जो बचपन में ही बिछड़ चुके हैं. राम करोड़ों की प्रॉपर्टी का मालिक है और अपनी बहन जीजा के साथ रहता है. लेकिन बहुत सीधा-साधा. जीजा की नजर प्रॉपर्टी पर है. वो राम को दबाकर रखता है. उसकी शादी भी कर देता है. लेकिन जब राम को खुद के हत्या की भनक लगती है तो घरबार छोड़कर भाग जाता है. श्याम, राम से बिलकुल अलग है. आक्रामक और हरचीज का मुंहतोड़ जवाब देने वाला. घटनाएं ऐसी बनती हैं कि राम की जगह श्याम ले लेता है और फिर जुल्मों के हिसाब की कहानी शुरू होती है. अंत में सारी दिक्कतें दूर हो जाती हैं और राम श्याम का परिवार खुशी खुशी एक हो जाता है.
जीवन का सबक: बहुत ज्यादा कमजोरी और जुल्म सहना भी ठीक नहीं होता. वाजिब चीजों के लिए जरूरत पड़ने पर हमेशा सख्त मिजाज होना और प्रतिकार करना भी जरूरी है.
6) शक्ति : ये डीसीपी अश्विनी कुमार (दिलीप कुमार) और उनके बेटे विजय कुमार (अमिताभ बच्चन) की कहानी है. दिलीप के अपोजिट राखी और अमिताभ के अपोजिट स्मिता पाटिल थीं. फिल्म का निर्देशन रमेश सिप्पी ने किया था. अश्विनी कुमार बेहद ईमानदार अफसर हैं. वो परिवार और रिश्तों को भी ईमानदारी और फर्ज के आड़े नहीं आने देते. हालांकि परिवार को बेपनाह प्यार करते हैं मगर उसे शब्दों में बयान नहीं करते. पिता के एक अड़ियल फैसले की वजह से कुछ ऐसी गलतफहमी होती हैं जिसमें विजय मान लेता है कि उसके पिता उसकी जान तक की परवाह नहीं करते. विजय धीरे-धीरे पिता से दूर होता जाता है और गलत रास्ते पर बहुत आगे बढ़ जाता है. बदले में कई हत्याएं करता है. विजय बच निकलने की फिराक में है लेकिन उसका सामना अश्विनी से होता है. अश्विनी सरेंडर को बोलता है मगर वो नहीं मानता और पिता की गोली से मारा जाता है. फिल्म की मूल कहानी को फ्लैशबैक में दिखाया गया है. अनिल कपूर ने अमिताभ के बेटे रवि की भूमिका निभाई है.
जीवन का सबक : फर्ज से बड़ा कुछ भी नहीं होता है. किसी इंसान के फैसले पर कोई निगेटिव विचार बनाने से पहले एक बार उसकी जिम्मेदारी और ड्यूटी की जरूरतों को भी समझना चाहिए.
7) सौदागर : साल 1991 में आई फिल्म का निर्देशन सुभाष घई ने किया था. दिलीप कुमार के साथ राजकुमार, मनीषा कोइराला और विवेक मुश्रान अहम भूमिकाओं में थे. ये कहानी रईस राजेश्वर सिंह (राजकुमार) और वीर सिंह (दिलीप कुमार) की है. दोनों बचपन के दोस्त हैं. राजेश्वर, वीर सिंह के साथ अपनी बहन की शादी का फैसला लेता है. वीर को रिश्ता मंजूर है, लेकिन शादी हो पाती उससे पहले एक ऐसी घटना होती है जिसमें वीर को एक दूसरी लड़की से शादी करनी पड़ती है. राजेश्वर की बहन खबर जानने के बाद आत्महत्या कर लेती है. राजेश्वर, वीर को बहन की आत्महत्या का जिम्मेदार मानता है. इसके बाद मजबूत दोस्ती दुश्मनी में बदल जाती है. दोनों के अपने इलाके हैं और दोनों बाहुबली हैं. कई साल बाद राजेश्वर की पोती राधा यानी मनीषा कोइराला, वीर के पोते वासु यानी विवेक मुश्रान को प्यार करती है. दोनों के प्यार में खानदानी दुश्मनी आड़े आ रही है. बहुत सारी घटनाएं होती हैं और राजेश्वर-वीर बच्चों के लिए फिर से एक हो जाते हैं.
जीवन का सबक : जिंदगी में अगर किसी के भी साथ बिगड़े रिश्ते को सुधारने का मौका मिले तो उसे गंवाना नहीं चाहिए.
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