Om Shanti Om movie: शाहरुख ने 14 साल पहले तहलका मचा दिया था, क्यों- मेरी कहानी से समझिए
ओम शांति ओम में जब शाहरुख हकला कर संवाद बोलते थे तो ऑडियंस की ओर से निकल रही तालियों और सीटियों का जबरदस्त शोर निश्चित ही आसपास के बंद घरों तक पहुंचता होगा. वो ज़माना शाहरुख खान का था.
-
Total Shares
पुनर्जन्म की कहानी को लेकर बॉलीवुड ने कई ब्लॉकबस्टर फ़िल्में बनाई हैं. इन्हीं में से एक शाहरुख खान और दीपिका पादुकोण की फिल्म "ओम शांति ओम" है. आज से 14 साल पहले 9 नवंबर के दिन रिलीज हुई थी ये फिल्म. तब की दीपावली रिलीज थी. वो ज़माना द ग्रेट शाहरुख का था और बिना नागा हर साल दीपावली पर शाहरुख की कोई ना कोई फिल्म आ ही जाती थी. ये वो दौर है जब हमारी पीढ़ी में उनकी फिल्मों का आना ही असल मायने में दीपावली का त्योहार बनता था. जब ओम शांति ओम आई थी उस वक्त इसने बॉक्स ऑफिस पर तहलका मचा दिया था. हमारे शहर (इलाहाबाद) में शो के शो हाउसफुल जा रहे थे. टिकटों की ब्लैक मार्केटिंग हाई थी.
चार यार- कैम्पस, हॉस्टल, मेस, या फिर चौक-चौराहे पर कहीं मिलते तो चर्चा का विषय शाहरुख और सिर्फ ओम शांति ओम. पहले देख चुके लोग एक्सपर्ट थे और इससे उनका एक अलग ही क्लास टपकता था. जो देख नहीं पाए थे हीनताबोध से ग्रस्त होकर बातचीत में दुबककर रहते. और अगली दोपहर छिपकर शाहरुख की फिल्म देखते. शाहरुख की फ़िल्में हमारे लिए उसी तरह थीं जैसे इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में हिंदी साहित्य के छात्रों के लिए प्रेमचंद के उपन्यास और धर्मभारती की गुनाहों का देवता. तुमने प्रेमचंद को नहीं पढ़ा? इलाहाबाद में हो और गुनाहों का देवता अब तक नहीं पढ़े? शाहरुख की फिल्म नहीं देखे होते तो ऐसा ही सवाल होता- तुमने ओम शांति ओम नहीं देखी?
सिनेमाघर के अंदर का कनेक्शन भी यारों के बीच स्टेटस की चीज थी. छात्रसंघ कन्सेशन पर टिकट दिलवाने से पहले ही मना कर देता- "शाहरुख की फिल्म का मामला है. बहुत मारामारी है यार. नहीं हो पाएगा." यहां तक कि अध्यक्ष जी भी ओहदे के दम पर टिकट तो पाते मगर उसके बदले धौंस की जगह उन्हें पूरे पैसे देने होते. खुशी-खुशी देते भी. सिनेमाघरों को छात्रसंघों की यह छूट सिर्फ दीपावली पर शाहरुख की फिल्मों के लिए थी. वैसे तो मैंने संगीत, गौतम, दर्पण, पायल, झंकार, चंद्रलोक में ना जाने कितनी फ़िल्में धौंस की वजह से मुफ्त देखी. जहां छात्रसंघ का धौंस काम नहीं आया. दोस्त के लेबर कमिशनर भाई या म्यूनिसिपल कमिशनर पिता के रुतबे से फिल्म देखी और मुफ्त की कोल्डड्रिक समोसे भी उडाए. ऐसा करने की वजय यह थी कि पैसे फ़िल्में देखने के लिए मिलते नहीं थे. आखिर किया क्या जाए. शाहरुख के लिए कितनी बार झूठ बोला, घंटों कतार में खड़ा रहा, फीस लेट की या फिर बिना टिकट रिस्की यात्राएं कीं.
ओम शांति ओम से दीपिका पादुकोण ने बॉलीवुड डेब्यू किया था.
नए-नए त्योहारी कपड़े, भारी डिस्काउंट पर बाटा से खरीदी गई चप्पलें या जूते पहनकर पहुंचते. सिगरेट पीने वाले दोस्त ब्रिस्टल लेकर किसी कोने में धुंए का छल्ला बनाते. सिनेमाघर से बाहर लगे पोस्टर भी उसी तन्मयता से देखे जाते जैसे फिल्म देख रहे हों. पोस्टर देखने के लिए लोग अनुरोध करते- भई थोड़ा हमें भी देखने दो. सिनेमाघर के अंदर-बाहर, आसपास हर तरफ अलग ही जादू दिखता. ओम शांति ओम में किरण खेर और श्रेयस तलपड़े के साथ शाहरुख का हर नॉनसेन्स परदे पर भगवान की लीलाओं की तरह था. दीपिका पर गुस्सा भी आता कि शाहरुख जैसा साफदिल का लड़का होने के बावजूद अर्जुन रामपाल पर मरे जा रही हैं. फ़िल्म के साथ पूरा सिनेमाघर चलता. शाहरुख हंसते तो ठहाकों का सैलाब आता. दुखी होते तो सुई पटक सन्नाटा पसर जाता- जैसे सिनेमाघर में कोई हो ही ना.
रोते तो दर्शकों का गला भर जाता और उनकी आंखों से आंसू का सिलसिला चल निकलता. ओम शांति ओम में शांतिप्रिया पूरी तरह निराश, कसक लिए जल रही थी, आंसुओं से सराबोर उसकी आँखें और उसे बचाने के लिए ओम (शाहरुख) ना जाने कैसे कैसे जतन कर रहा था- तब गला बुरी तरह से कस गया था. मैं नहीं चाहता था कि मेरे दोस्त ऐसी हालत में मुझे देखें. पर शांतिप्रिया से बिना मिले शाहरुख की मौत के सीन के बाद भरभरा कर रो पड़ा. शायद मेरे दोस्त और सिनेमाघर में मौजूद तमाम दर्शक भी रो रहे थे. ऐसा इसलिए भी कि कनखियों से एक-दूसरे को रोते देखने के बावजूद कोई इस मसले पर किसी का ध्यानाकर्षण नहीं करता था. सबका यह सच कुछ इस तरह से साझा था कि एक-दूसरे को चिढाने-मजाक लेने या फिर अपमानित करने के लिए कभी इस्तेमाल नहीं होता. सिर्फ ओम शांति ओम ही नहीं- इससे पहले और इसके बाद आई शाहरुख की तमाम फिल्मों के साथ ऐसा होता रहा.
ओम शांति ओम को लेकर अखबारों में जो कुछ आता वो हमें और उकसा देता. सब्र करना मुश्किल हो जाता कि फिल्म की रिलीज में अभी इतना वक्त क्यों बचा है? और ये शाहरुख थे जिनके स्टारडम ने हम लोगों को अखबार और पत्रिकाओं को उलटी दिशा से पढ़ने के लिए प्रेरित किया. यानी आख़िरी पन्नों से शुरुआत, जहां फ़िल्मी खबरें होती थीं. शाहरुख की वजह से दीपिका पादुकोण हमारे दिलों में घुसपैठ कर रही थीं. वो तब तक उस कोने में बैठी रहीं जब तक कि शाहरुख की वजह से अनुष्का और आलिया नहीं आईं. दीपिका से पहले माधुरी, काजोल भी ऐसे ही आई थीं. उस दौर में हम कभी यह मानने को तैयार ही नहीं हुए कि हमारा "राहुल" गौरी खान से भला शादी कैसे कर सकता है? वो ज़माना ही ऐसा था- हीरोइनों का भी स्टारडम उनकी फिल्मों के हीरो की वजह से ही तय होता था. शाहरुख के जादू में बहने वाले लोग कभी मानने को तैयार ही नहीं हुए कि ये तो बस एक जादूगर का करतब भर है.
शाहरुख दीपिका के साथ श्रेयस तलपड़े ने भी अहम भूमिका निभाई थी.
ओम शांति ओम के लिए हम दोस्त दो घंटे पहले सिनेमाघर पहुंचे थे. क्योंकि सबसे आगे की कतार की सीटें ही हमारे बजट में हुआ करती थीं. और इन्हें लेकर सबसे ज्यादा मारामारी थी. सिंगल स्क्रीन के दौर में थियेटर के रास्ते किसी मेले में जाने का फील देते थे. दीपावली रिलीज और वो भी शाहरुख-सनी देओल जैसे सितारों की पिक्चरों के वक्त तो माहौल के कहने ही क्या. लोग ग्रुप बनाकर सिनेमाघर आते. चार-चार, पांच -पांच, दस-दस लोगों का ग्रुप. हालांकि परिवार बहुत ही मामूली दिखते. जो होते भी वो फिल्म के त्योहारी माहौल का मजा लेने की बजाय इस बात में परेशान रहते कि कहीं कोई उनकी पत्नियों-बेटियों को "ताड़" तो नहीं रहा. बेचारे. सिनेमाघरों में अब ऐसे दृश्य और जुनून नहीं दिखते.
ओम शांति ओम में जब-जब शाहरुख हकला कर संवाद बोलते थे ऑडियंस की ओर से निकल रही तालियों और सीटियों का जबरदस्त शोर आसपास के बंद घरों तक पहुंचता होगा. इलाहाबाद के तमाम सिनेमाघर और मोहल्ले अभी भी इतने आसपास हैं. तब हमारी तमाम प्रेम कहानियां शाहरुख की फिल्मों से ही पूरी होती थीं. शाहरुख हमारे प्रेम के सबसे बड़े संदेश वाहक थे. हर नए सत्र में हम दोस्त साथ बैठकर प्रेमिकाओं को चुनते. हमारी प्रेमिकाओं को भनक तक नहीं होती थी और इधर हम दोस्त पूरी ईमानदारी से उनका बंटवारा कर रहे होते. ये दूसरी बात है कि सत्र के आखिर तक (दिवाली-क्रिसमस) हमारे हाथों में सिर्फ लिस्ट के नाम बचते.
हमारी प्रेमिकाएं किसी "लल्लू" के साथ 45 रुपये की खासी महंगी टिकट लेकर चंद्रलोक, संगीत, गौतम या दर्पण की बालकनी में शाहरुख की ही फिल्म देख रही होतीं और नीचे हम लोग 15 रुपये की टिकट पर लकड़ी की कुर्सी वाली सबसे आगे की कतार में धंसे रहते थे. तब तक, जब तक बत्तियां बुझ नहीं जाती थीं. बाथरूम भी निकलते थे तो सीढ़ियों से चढ़कर ऊपर की तरफ से पूरी ठसक के साथ. ताकि कोई भांप ना पाए कि हम आगे की ही कतारों में बैठे हैं. इलाहाबाद के सिंगल स्क्रीन्स में हमेशा ही आगे की कतारों को अघोषित रूप से "रिक्शा क्लास" बना दिया गया था. और इस क्लास में लकड़ी की कुर्सियों की दो कतारें हुआ करती थीं. परदे के इतना नजदीक कि गर्दन को 45 डिग्री पर मोड़कर फिल्म देखना पड़ता था. यह कतारें गुटखा-पान खाने वाले दर्शकों का भी स्थायी ठिया होती थीं जहां वे पूरी आजादी के साथ तन्मय होकर फ़िल्में देखा करते थे. आजाद दर्शक. तो हम शाहरुख के आजाद दर्शक थे.
शाहरुख हमारे लिए फ़रिश्ते से कम नहीं थे. वो हमारे दौर में हर नए सत्र में मिले दिल के घावों पर मरहम लगाते थे और आने वाले हर नए सत्र के लिए उम्मीद की रोशनी देते थे. हम जो कुछ नहीं कर पाते थे- वो सबकुछ सिर्फ हमारे लिए परदे पर शाहरुख किया करते थे. और इसीलिए हम उन्हें इतना पसंद करते थे. ओम शांति ओम में भी उन्होंने हमारे लिए सबकुछ किया. ऊँचे क्लास की लड़की से प्यार किया. बड़ा हीरो, कामयाब आदमी बनने का ख्वाब देखा. अपने मन की ही की. ना कामयाब आदमी बनें और ना ही इजहार कर पाए. फिर पुनर्जन्म लिया. बड़ा आदमी बने. कामयाब हुए. मनमुताबिक़ प्यार भी मिला. ओम शांति ओम ने हमें भरोसा दिया कि जिन ख़ूबसूरत प्रेमिकाओं ने साइंस वालों के साथ बालकनी की राह पकड़ी- उन्हें कभी ना कभी अगला जन्म लेना पड़ेगा. शाहरुख ने ओम शांति ओम से हमें भरोसा दिया- "अगर किसी चीज़ को दिल से चाहो तो सारी कायनात उसे तुम से मिलाने में लग जाती है."
शाहरुख के इसी भरोसे ने जत्थे का जत्था सिनेमाघरों में ठेला. ऐसी ना जाने कितनी कहानियां शहरों और कस्बों में होंगी.

आपकी राय