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Updated: 26 सितम्बर, 2016 02:40 PM
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आप इस तथ्य पर हैरान भी हो सकते हैं और मुस्कुरा भी सकते हैं. 1963 में लॉन्च किए गए भारत के पहले रॉकेट को साइकिल से लॉन्चिंग स्टेशन लाया गया था. यह लॉन्चिंग केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम के नजदीक थंबा लॉन्चिंग स्टेशन से हुई थी. रॉकेट इतना हल्का और छोटा था कि उसे कोई एक हाथ से भी उठा ले. लेकिन अब 2016 की कहानी पढ़िए. इसरो के प्रक्षेपण यान PSLV-C35 ने श्रीहरिकोटा के सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से आठ उपग्रहों के साथ उड़ान भरी. इसमें तीन स्वदेशी और पांच विदेश सेटेलाइट्स हैं. इसमें भारत के स्कैटसेट-1 का वजन ही 371 किलोग्राम है. सभी आठ उपग्रहों का कुल वजन 671 किलो.

चंद्रयान, मंगलयान से लेकर रीयूजेबल लॉन्च वेहिकल (RLV-TD) और सेटेलाइट नेविगेशन सिस्टम (खुद का GPS) तक पर सफलता हासिल कर चुकी इसरो की ये एक और बड़ी जीत है. यह पहली बार है जब PSLV उपग्रहों को दो अलग-अलग कक्षाओं में स्थापित कर सका है.

जाहिर है इसरो अब केवल इसरो नहीं रहा. जैसे अमेरिका के लिए नासा गर्व का विषय है वैसे ही इसरो भारत की पहचान बन चुका है. अब तो ये आदत सी बन चुकी है. हर महीनें, दो महीनें में हम इसरों की नई सफलता के गवाह बनते हैं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि इसरो की स्थापना कब हुई थी, वहां कौन लोग काम करते हैं...भारत में इसके कितने केद्र हैं? जानिए, इसरो से जुड़िए वो तथ्य जो हर भारतीय को पता होना चाहिए...

1. इसरो की स्थापना 1969 में हुई थी. इसमें अहम रोल निभाया था विक्रम साराभाई ने. साराभाई को भारत के स्पेस प्रोग्राम का जनक भी कहा जाता है. वैसे इसरो से पहले 1962 में भारत सरकार ने साराभाई की देखरेख में इंडियन नेशनल कमेटी फॉर स्पेस रिसर्च (INCOSPAR) की स्थापना कर दी थी. बाद में यही इसरो बना. भारत में इसरो के कुल 13 केंद्र हैं.

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2. पिछले 40 साल में इसरो पर जो भी खर्च आया वह नासा के एक साल के बजट का आधा है. साथ ही एक तथ्य ये भी कि केंद्र सरकार अपने एक साल के कुल खर्चे का केवल 0.34 प्रतिशत ही इसरो पर खर्च करती है. इसके बावजूद इसरो ने दुनियया में अपनी जो साख बनाई है, वो उसे तमाम स्पेस एजेंजियों से बेहतर साबित करती है.

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जब साइकिल पर गया था पहला रॉकेट

3. इसरो के बारे में कहा जाता है कि यहां काम करने वाले ज्यादातर वैज्ञानिक अविवाहित हैं. संभवत: दुनिया में ये ऐसी एकमात्र ऐसी वैज्ञानिक संस्था है जहां इतनी बड़ी संख्या में कुंवारे काम करते हैं. आप इसे काम की धुन कहिए या समय की कमी, लेकिन यही सच्चाई है. उन्हें मौका ही नही मिलता कि वो परिवार या समाज को अपना समय दे सकें. कई बार तो ऐसा होता है कि किसी खास लॉन्चिंग से पहले उस प्रोजेक्ट में जुड़े वैज्ञानिकों को घर जाने का मौका ही नहीं मिलता. उन्हें 24 घंटे इसरो में ही बिताने पड़ते हैं. कुछ जाते भी हैं तो केवल कुछ घंटो के लिए.

4. दो साल पहले मीडिया में आई रिपोर्ट्स के मुताबिक इसरो में काम करने वाले केवल दो फीसदी इंजीनियर ऐसे हैं जिन्होंने आईआईटी या एनआईटी से पढ़ाई की है. मतलब ज्यादातर ऐसे हैं, जो साधारण परिवार से है और साधारण कॉलेजों, विश्वविद्यालयों से पढ़ाई कर सके हैं.

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5. इसरो दुनिया के उन छह स्पेस एजेंसियों में शामिल है जो खुद अपने उपग्रह तैयार कर सकते हैं और उसकी लॉन्चिंग भी अपनी ही जमीन से सुनिश्चित कर सकते हैं.

6. एक मजेदार बात ये भी कि पाकिस्तान की स्पेस एजेंसी SUPARCO की स्थापना इसरो से बहुत पहले 1961 में ही हो गई थी. लेकिन आज दुनिया के स्पेस प्रोग्राम में उसका कहीं स्थान नहीं है. भारत जहां 100 से ऊपर उपग्रह अंतरिक्ष में भेज चुका है वहीं, पिछले साल तक पाकिस्तान केवल दो सेटेलाइट भेज पाया है, वो भी दूसरे देशों की मदद से. यही नहीं, इसरो दुनिया की पहली ऐसी स्पेस एजेंसी है जो पहली ही कोशिश में सफलतापूर्वक मंगल ग्रह की कक्षा में पहुंच सकी. वो भी केवल 450 करोड़ की लागत में, यानी लागत केवल 12 रुपये प्रति किलोमीटर के हिसाब से.

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