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Updated: 09 सितम्बर, 2018 02:39 PM
अनुज मौर्या
अनुज मौर्या
  @anujkumarmaurya87
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देश में गाड़ियां चोरी होने की वारदातें लगातार बढ़ती जा रही हैं. देश की राजधानी दिल्ली भी इससे अछूती नहीं रही है. हर दिन पुलिस के पास गाड़ी चोरी होने की बहुत सारी शिकायतें पहुंचती हैं, लेकिन चोरी की गई गाड़ियों को ढूंढ़ना आसान नहीं है. इसे लेकर कुछ समय पहले दिल्ली के एलजी अनिल बैजल ने माइक्रोडॉट टेक्नोलॉजी को अपनाने का सुझाव दिया था, ताकि गाड़ियां चोरी होने की वारदातों पर लगाम लग सके. अब दिल्ली सरकार उस तकनीक पर विचार कर रही है और हो सकता है कि आने वाले समय में माइक्रोडॉट तकनीक को लागू भी कर दिया जाए. माइक्रोडॉट गाड़ियां चोरी होने जैसी बड़ी समस्या का एक छोटा और सफल समाधान है.

दिल्ली सरकार, तकनीक, गाड़ी, चोरी, पुलिसमाइक्रोडॉट गाड़ियां चोरी होने जैसी बड़ी समस्या का एक छोटा और सफल समाधान है.

टुकड़ों में बांटने के बावजूद मिल जाएगी गाड़ी

गाड़ियां चोरी होने की घटनाएं सिर्फ सड़क या पार्किंग से ही नहीं, बल्कि गार्ड से लैस सोसाएटी से भी हो जाती हैं. इन गाड़ियों को ढूंढ़ निकालना मुश्किल होता है क्योंकि चोरी करने वाले लोग गाड़ियों को किसी गैराज वगैरह में ले जाकर टुकड़ों में बांट देते हैं. इसके बाद अलग-अलग गाड़ियों को टुकड़ों को आपस में जोड़कर एक नई गाड़ी बना दी जाती है और उसे चोर बाजार में बेच दिया जाता है. लेकिन अगर माइक्रोडॉट तकनीक का इस्तेमाल किया जाएगा तो गाड़ी को टुकड़ों में बांटने के बावजूद ये पता चल जाएगा कि वह चोरी की है या नहीं और उसका असली मालिक कौन है. यानी देखा जाए तो इस तकनीक के लागू होने के बाद गाड़ी चोरी कर के बचना लगभग नामुमकिन हो जाएगा.

हर घंटे चोरी होती हैं 4 गाड़ियां

दिल्ली पुलिस के अनुसार राजधानी में हर घंटे करीब 4 गाड़ियां चोरी होती हैं. 15 अगस्त 2018 तक कुल 27,780 गाड़ियां चोरी होने के मामले सामने आ चुके हैं. चोरों की फेवरेट गाड़ी है मोटरसाइकिल. जून 2018 तक करीब 12,689 मोटरसाइकिलें चोरी हो चुकी हैं, जो कुल गाड़ियां को करीब 60 फीसदी है. पिछले साल यानी 2017 में कुल 40,972 गाड़ियां चोरी हुई थीं, जबकि 2016 में 38,644 गाड़ियां चोरी होने के मामले सामने आए थे.

कैसे काम करती है ये तकनीक

माइक्रोडॉट तकनीक में बहुत सारे छोटे-छोटे मेटल के बने पार्टिकल होते हैं, जिन पर गाड़ी का आइडेंटिफिकेशन नंबर लिखा होता है. इन माइक्रोडॉट को गाड़ी के लगभग हर हिस्से में लगा दिया जाता है, जिसके चलते गाड़ी के कितने भी टुकड़े कर दिए जाएं, लेकिन हर टुकड़े पर एक ना एक माइक्रोडॉट रहता ही है. इन माइक्रोडॉट को कंप्रेसर और ग्लू गन का इस्तेमाल किया जाता है. इनकी मदद से गाड़ी के ऊपर-नीचे, अंदर-बाहर और यहां तक कि इंजन और सीट आदि में भी स्प्रे कर दिया जाता है. ऐसे में अगर एक भी माइक्रोडॉट लगा रहा तो यह पता चल जाएगा कि गाड़ी का असली मालिक कौन है और चोरी करने वाला पुलिस की गिरफ्त में आ जाएगा.

कई देशों में है ये तकनीक

फिलहाल यह तकनीक दक्षिण अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, चिली, ताइवान, कनाडा अमेरिका और यूरोपियन यूनियन में इस्तेमाल की जा रही है. दक्षिण अफ्रीका में बेरोजगारी काफी अधिक है, जिसकी वजह से वहां पर गाड़ियां चोरी होने की घटनाएं काफी अधिक बढ़ गईं. इसकी वजह से बहुत से लोगों की जान भी चली गई. लोग गाड़ी के लिए लोगों को गोली तक मार देते थे. इसके बाद वहां पर इस तकनीक को लागू किया गया, जिसके बाद गाड़ियां चोरी होने की घटनाएं बहुत कम हो गई हैं.

कैसे हुई माइक्रोडॉट की शुरुआत?

1870 में Franco-Prussian War के दौरान पेरिस को घेर लिया गया था और वहां से संदेशों को बाहर पहुंचाने के लिए कबूतरों का इस्तेमाल होता था. तब पेरिस के एक फोटोग्राफर René Dagron ने तस्वीरों को बहुत छोटा करने की तकनीक इजात की, जिसके चलते बहुत ही कम जगह में बहुत सारी बातें कही जा सकती थीं. कबूतर के लिए अधिक वजन ले जाना मुश्किल होता था, इसलिए माइक्रोडॉट तकनीक ने जन्म लिया, जिसका इस्तेमाल अब गाड़ियां की चोरी पर लगाम लगाने के लिए किया जा रहा है.

दिल्ली सरकार, तकनीक, गाड़ी, चोरी, पुलिसपेरिस के एक फोटोग्राफर René Dagron ने 1870 में Franco-Prussian War के दौरान यह तकनीक इजात की थी.

दिल्ली सरकार ने तो माइक्रोडॉट तकनीक को लागू करने पर विचार करना शुरू कर दिया है, देखते हैं इससे कितना फायदा होगा. साथ ही, यह भी ध्यान देना होगा कि इससे गाड़ियों की कीमत पर तो अधिक असर नहीं पड़ेगा. हालांकि, यह सुझाव पहले ही दिया जा चुका है कि गाड़ियों के रजिस्ट्रेशन के समय ही यह सुनिश्चित किया जाए कि उसमें चोरी होने से बचाने के उपकरण लगे हों, ताकि गाड़ियां चोरी होने के मामले कम से कम सामने आएं. यह देखना दिलचस्प होगा कि माइक्रोडॉट की ये नई तकनीक कब तक लागू होती है और क्या कमाल दिखाती है.

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