कोहली-शास्त्री की जुगलबंदी से अब डर लग रहा है
आज नहीं तो कल बीसीसीआई एक बार फिर उसी बहस में उलझी होगी जिससे अभी-अभी निकल कर आई है. इसलिए जरूरी है कि बोर्ड कोहली और शास्त्री के बीच की 'साझेदारी' पर अपना रूख साफ करे.
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बीसीसीआई से एन. श्रीनिवासन का पत्ता करीब-करीब साफ हो चुका है. महेंद्र सिंह धोनी अलग-थलग नजर आ रहे हैं. विराट कोहली और रवि शास्त्री की गाड़ी रफ्तार पकड़ चुकी है. डर है ये नई जोड़ी और उनकी रफ्तार इंडियन क्रिकेट की 'बस' को किसी और गर्त में न धकेल आए.
अभी कुछ दिनों पहले श्रीलंका दौरे पर इशांत शर्मा और श्रीलंकाई खिलाड़ियों के बीच मैदान पर जब तीखी झड़प हुई तो हर किसी ने हैरानी जताई थी. हैरानी इशांत के व्यवहार पर. क्योंकि अमूमन इशांत मैदान पर इतने आक्रामक नजर नहीं आते. ज्यादातर जानकारों ने उस घटना को नए कप्तान विराट कोहली और टीम डायरेक्टर रवि शास्त्री का प्रभाव माना. कोहली आक्रामक है, तो उनकी सेना क्यों न हो. लगा बात इतनी सी तो है. उस पर हाय-तौबा क्यों?
लेकिन अब कोहली-शास्त्री की जोड़ी जिस दिशा में बढ़ रही है, वह कान खड़े करने वाला है. कोहली ने इंडियन प्रीमियर टेनिस लीग (आईपीटीएल) की फ्रेंचाइजी यूएई रॉयल्स में हिस्सेदारी खरीदी है और टीम इंडिया के डायरेक्टर इसी फ्रेंचाइजी के एडवाइजर (सलाहकार) बनाए गए हैं. क्या यहां हितों के टकराव का मामला नहीं बनता. एन. श्रीनिवासन, आईपीएल में उनकी कंपनी की टीम चेन्नई सुपरकिंग्स, टीम के कप्तान महेंद्र सिहं धोनी....यह पूरा माजरा हितों के टकराव वाला ही तो था. जिसे लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कड़ा रूख अख्तियार किया और श्रीनिवासन को अपनी कुर्सी तक छोड़नी पड़ी. फिर आईपीएल में टीम के खेलने पर भी बैन लग गया.
कुछ लोग यह दलील दे सकते हैं कि कोहली और शास्त्री टेनिस से जुड़े हैं. क्रिकेट से इसका कोई लेना-देना नहीं है. फिर हितों का टकराव कैसे हो गया. सीधे तौर पर न सही लेकिन यह भी तो देखना चाहिए कि टीम इंडिया के दो बड़े चेहरे किसी बिजनेस में व्यवसायिक हिस्सेदार होंगे. इस 'साझेदारी' का असर क्या इंडियन टीम में खिलाड़ियों के चयन पर नहीं दिखेगा?
बिल्कुल दिखेगा. आज नहीं तो कल बीसीसीआई एक बार फिर उसी बहस में उलझी होगी जिससे अभी-अभी निकल कर आई है. कोहली टेस्ट कैप्टन है और संभवत: अगले कुछ महीनों में वनडे की कमान भी उनके ही हाथों में होगी. इसलिए क्या जरूरी नहीं कि बीसीसीआई कोहली और शास्त्री के रूख पर अपनी बात साफ-साफ रखे.
इस देश के क्रिकेट फैंस पहले ही कई मौकों पर खुद को ठगा हुआ महसूस करते रहे हैं. कुछ इतने निराश हुए कि क्रिकेट की ओर झांकना बंद कर दिया लेकिन बहुतेरे अब भी खुद को इस खेल के जुनून से अलग नहीं कर सके हैं. बेहतर होगा, कि बीसीसीआई कम से कम पुरानी बातों से ही सबक ले और बंद कमरों में फैसलों और रजामंदी की बात करना छोड़ खुल कर अपना स्टैंड रखे. तभी प्रशंसकों का विश्वास भी बहाल रहेगा.

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