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Updated: 08 अक्टूबर, 2015 07:16 AM
अभिषेक पाण्डेय
अभिषेक पाण्डेय
  @Abhishek.Journo
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2006 में एक चार साल के बच्चे ने पुरी से भुवनेश्वर तक 65 किलोमीटर लंबी दौड़ लगाकर तहलका मचा दिया था. ओडिशा के इस बच्चे का नाम था बुधिया सिंह, जिसे सबसे युवा मैराथन धावक होने का गौरव मिला और उसका नाम लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में दर्ज हुआ.

चार साल के बुधिया की इस प्रतिभा को देखते हुए उसे भविष्य का सुपर स्टार कहा गया और ओलंपिक विजेता के तौर पर देखा गया लेकिन 9 साल बाद अब कहानी बिल्कुल बदल चुकी है और बुधिया सितारा बनने की जगह उड़ीसा की गलियों में कहीं खो गया और एक सितारा चमकने से पहले ही बुझ गया. आखिर क्यों और कैसे देश ने एक बेहतरीन प्रतिभा को यूं ही जाया हो जाने दिया?

जब बुधिया ने पूरी दुनिया को चौंकाया थाः

बुधिया का जन्म 2002 में उड़ीसा में हुआ था. गरीबी से लाचार होकर उसकी मां ने बुधिया को महज 800 रुपये में बेच दिया था. उसका नाम चार साल बाद सुर्खियों में तब आया जब 2006 में उसने पुरी से भुवनेश्वर तक 65 किलोमीटर लंबी दौड़ लगाई. वह दुनिया का सबसे कम उम्र का मैराथन धावक बन गया. बुधिया की इस सफलता का श्रेय जूडो कोच बिरंची दास को जाता है. दास ने बेहद कम उम्र में ही लंबी दौड़ में बुधिया की प्रतिभा पहचान ली थी. खैर, इससे पहले की बिरंची और बुधिया की यह जोड़ी आगे कुछ और कमाल कर पाती. सरकार ने बुधिया को बिरंची के पास से हटाकर सरकारी स्पोर्ट्स हॉस्टल में डाल दिया. सरकार का यही कदम बुधिया के करियर को ले डूबा !

बिरंची से अलग होने से बिखर गया सपना ! चार साल के बुधिया की सफलता के पीछे जिस बिरंची दास का हाथ था उन्हें ही बुधिया से कम उम्र में कड़ी ट्रेनिंग कराने और उसका शोषण करने जैसे आरोपों के बाद उससे दूर कर दिया गया. मीडिया में इस बाबत का हो-हल्ला मचने के बाद सरकार ने बुधिया का सरंक्षण अपने हाथों में लेते हए उसे सरकारी स्पोर्ट्स हॉस्टल भेज दिया. 2008 में बिरंची दास की हत्या हो गई. हॉस्टल में आने के बाद बुधिया की कोचिंग सीमित हो गई और धीरे-धीरे वह बेहद खास प्रतिभा से आम बच्चों की भीड़ का हिस्सा बनकर रह गया.

सरकार और व्यवस्था ने एक प्रतिभा को खत्म कियाः बुधिया के करियर पर शुरू से नजर रखने वाले खेल विशेषज्ञों का मानना है कि अब उसमें खास जैसी कोई बात नहीं है. अब वह 13 साल का हो चुका है लेकिन अब तक उसने नेशनल तो छोड़िए किसी स्टेट लेवल प्रतियोगिता में भी हिस्सा नहीं लिया है. वह कलिंग स्पोर्ट्स हॉस्टल में 150 बच्चों के साथ रहता है. वह सुबह 6 बजे बिस्तर छोड़ देता है लेकिन महज दो घंटे की रूटीन ट्रेनिंग ही करता है. यहां उसे कड़ी ट्रेनिंग देने की जगह हल्की ट्रेनिंग ही दी जाती है. यही उसके असफल होने की वजह भी है. बुधिया खुद कहता है, 'मेरे कोच (बिरंची) ने मुझे मैराथन के लिए कोचिंग दी थी लेकिन यहां मुझे 100-200 मीटर दौड़ की ही ट्रेनिंग मिली.'

अब शायद ही कभी स्टार बन पाए बुधियाः विशेषज्ञों का मानना है कि बुधिया की प्रतिभा मैराथन जैसी लंबी दौड़ के लिए थी लेकिन हॉस्टल में आने के बाद कोचों ने उसकी ट्रेनिंग छोटी रेस के लिए सीमित कर दी और उसे लंबी रेस में कभी आजमाया ही नहीं. बिरंची ने उसकी जिस खास प्रतिभा से पूरी दुनिया को चौंकाया था और भविष्य के एक सितारे की उम्मीद जगाई थी उसी खास प्रतिभा को सरकारी कोचों ने तराशना ही बंद कर दिया और उसके दायरे को सीमित कर दिया. शायद यही वजह है कि धीरे-धीरे बुधिया की चमक फीकी पड़ती जा रही है और साथ ही उसके सफल एथलीट बनने की उम्मीदें भी धूमिल होती जा रही हैं. हालत ये है कि अब वह अपने स्कूल की प्रतियोगिता तक में भी नहीं जीत पा रहा है.

कभी जिस बुधिया सिंह से भविष्य में ओलंपिक मेडल जीतने की उम्मीद लगाई गई थी आज वही बुधिया सिंह गुमनामी के अंधेरों में खो गया है. एक अच्छी प्रतिभा को उचित देखरेख के अभाव में जाया हो जाने दिया गया. बुधिया के कोच बिरंची दास का सपना था कि वह ओलंपिक में देश के लिए मेडल जीते, चाहते तो हम सब भी यही हैं, काश, यह सपना सच हो जाए, आमीन !

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लेखक

अभिषेक पाण्डेय अभिषेक पाण्डेय @abhishek.journo

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं.

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