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Updated: 10 सितम्बर, 2015 05:14 PM
पारुल चंद्रा
पारुल चंद्रा
  @parulchandraa
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कितना आसान है न आत्महत्या करना. घर में रखा कोई कीटनाशक पी लो, या फिर पंखे में रस्सी डालकर लटक जाओ, इतना नहीं हो सकता तो फिर किसी ऊंची जगह से कूद जाओ, ऊंचाई से डर लगता है तो ट्रेन ट्रेक पर चले जाओ, चाकू से नस काट लो... और भी न जाने कितने तरीके हैं जीवनलीला ख़त्म करने के. अब तो इंटरनेट भी ऐसी सुविधाएं देने लगा है जिससे आपको नए-नए तरीके मिल जाएंगे आत्महत्या करने के. ये मज़ाक की बात नहीं हैं, यकीन कीजिए दुनिया में आत्महत्या करने वालों की संख्या बहुत ज़्यादा है. हर साल करीब 10 लाख लोग आत्महत्या करते हैं, यानी कि हर चालीस सैकण्ड में एक व्यक्ति अपनी जान खुद लेता है और पिछले 45 सालों में दुनिया भर में आत्महत्या की दर में 60% का इजाफा हुआ है.

वैसे तो हर रोज़ अखबारों और न्यूज चैनलों में ये खबरें आम होती हैं पर आज विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस है तो इस दिन देश में हो रही आत्महत्याओं के मामलों को ठीक से जान लेने का बिलकुल सही समय है. हमारे देश में हर साल करीब एक लाख लोग आत्महत्या करते हैं. 1994 में जहां 89195 आत्महत्याओं के मामले रिकार्ड किए गए, वो 2004 में 113697 हो गए और 10 साल बाद यानि 2014 में कुल 131666 मामले सामने आए. इनमें से कुछ खास हैं-

किसान आत्महत्या- राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो(NCRB) की रिपोर्ट के अनुसार साल 2014 में भारत में कुल 5,650 किसानों ने खुदकुशी, जो कुल मामलों का 4.3% था. इनमें 5,178 पुरुष और 472 महिलाएं शामिल थीं. आत्महत्या के मामलों में सबसे ऊपर महाराष्ट्र रहा, फिर तेलंगाना और छत्तीसगढ़ के मामले रहे. किसानों की खुदकुशी के पीछे मुख्य कारण रहे- दिवालिया होना, कर्ज न चुका पाना, फसल नष्ट होना.

घरेलू महिलाओं द्वारा आत्महत्या- 2014 में आत्महत्या के कुल मामलों में से 18% (20,412) सिर्फ घरेलू महिलाओं के थे. पिछले चार वर्षों में 43% आत्महत्याएं 15 से 29 वर्ष की शादीशुदा महिलाओं द्वारा की गईं. कारण बहुत से हैं- घरेलू हिंसा, दहेज, अवसाद, या फिर शादी से संतुष्ट न होना.

फेल होने पर की गईं आत्महत्याएं- 1994 में फेल हो जाने पर देश में 1895 लोगों ने आत्महत्याएं कीं जिसमें 1147 पुरुष और 748 महिलाएं थीं. बीस साल बाद 2014 में ये संख्या 2403 हो गई जिनमें 1358 पुरुष और 1045 महिलाएं थीं.

बेराज़गारी के कारण हुई आत्महत्याएं- 1994 में बेरोज़गारी से परेशान 1333 लोगों ने खुदकुशी की जिसमें 1126 पुरुष और 207 महिलाएं थीं. बीस साल बाद 2014 में ये संख्या बढ़कर 2207 हो गई जिनमें 1965 पुरुष और 242 महिलाएं थीं.   

प्रेम प्रसंगों के कारण हुई आत्महत्याएं- प्रेम में जान देना और जान लेना सदियों से चला आ रहा है. पर देश में प्रेम से हारे लोगों की संख्या 1994 में 5216 थी, जिसमें 2529 पुरुष और 2687 महिलाएं थीं. पर हैरानी की बात है कि बीस साल बाद इस संख्या में इजाफा नहीं हुआ बल्कि कमी आई है. 2014 में 4168 लोगों ने अपनी जान दी जिनमें 2441 पुरुष और 1727 महिलाएं थीं.

दहेज विवाद- जो लोग ये कहते हैं कि दहेज के मामलों में कमी आई है उनके लिए ये खबर जरा चौंकाने वाली है. 1994 में दहेज विवाद में 1687 आत्महत्याएं हुईं, जिसमें 74 पुरुष और 1613 महिलाएं थीं. बीस साल बाद ये संख्या 2261 हो गई जिसमें 2222 महिलाओं और 39 पुरुषों ने खुदकुशी की.

चौंकाने वाला सच- कहा जाता है कि कम पढ़े लिखे लोग बिना सोचे समझे खुदकुशी कर लेते हैं, आंकड़े भी यही बताते हैं. 2004 में आत्महत्या करने वालों लोगों में से 90% वो थे जो या तो बिलकुल अनपढ़ थे या फिर कम पढ़े लिखे थे(10वीं तक), और पढ़े लिखे पोस्टग्रेजुएट सिर्फ .6% थे. लेकिन ये बात कहीं न कहीं बहुत चौंकाने वाली है कि 2014 में जहां 75% कम पढ़े लिखे(दसवीं तक) लोग थे वहीं पढ़े लिखे पोस्टग्रेजुएट और प्रोफेशनल्स की संख्या 5% हो गई. यानि दस सालों में तनाव इतना बढ़ गया है कि सोच समझ कोई मायने नहीं रखती. हाल ही में हुआ एक मामला याद है.. ईशा हाण्डा जो पढ़ी लिखी समझदार लड़की थी उसने 48 घंटे गूगल पर आत्महत्या करने के तरीके ढ़ूंढ़े और एक इमारत से कूदकर अपनी जान दे दी.

ये बात बहुत हैरान करती है कि देश में आत्महत्या करने वाले लोगों में युवा ही सबसे आगे हैं. कारण अनगिनत हो सकते हैं. पर देश में आत्महत्या करने का कुछ कारण हैरान करने वाले हैं. हाल ही में एक बच्चे ने खुदकुशी की क्योंकि माता-पिता उसे समय नहीं देते. कल एक मां और बेटी ने आत्महत्या कर ली क्योंकि शहर के एक दबंग ने बेटी को उठाने की धमकी दी थी. और भी न जाने कितने ऐसे कारण जो हम सबके सामने एक सवाल छोड़ जाते हैं.

कैसे हो रोकथाम- आत्महत्या की रोकथाम के लिए विदेशों की तरह भारत में भी सुसाइड स्क्वॉड जैसी सेवाएं शुरू होनी चाहिए. काउंसलिंग हर स्तर पर होनी चाहिए. सरकार को कानून और नियमों में कुछ सख्त बदलाव करने की ज़रूरत है जिससे आत्महत्या की बढ़ती संख्या पर लगाम लग सके.

कहते हैं आत्महत्या करने वाले बेहद दुखी और लाचार होते हैं जिसका दर्द सिर्फ उसे करने वाला ही जानता है, पर क्या आत्महत्या उस दर्द को खत्म कर देती है..नहीं..वो दर्द किसी और को दे देती है. गुस्सा, मजबूरी, नासमझी या फिर सोच समझकर की गई आत्महत्या का हश्र सिर्फ दुख ही होता है जो मरने वालों के अपनों को हमेशा के लिए मिल जाता है.

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लेखक

पारुल चंद्रा पारुल चंद्रा @parulchandraa

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं

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