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Updated: 03 फरवरी, 2017 04:32 PM
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यह आसान सवाल नहीं है. लड़कियों के लिए तो एकदम नहीं. यूं तो हर बच्चा बड़ा होने तक न जाने अपने लिए क्या-क्या चाहता है. अभी कुछ दिन पहले मेरी बेटी छम छम वाले गाने पर डांस करके अपना वीडियो अपलोड करवा रही थी. दिसंबर के अंत में वह मां की तरह कविताएं लिखने की कोशिश में थी. टीचर भी बनना ही चाहती है. दंगल देखने के बाद से, डोले बनाने के लिए वह जॉगिंग और कसरत कर रही है. अभी आने वाले 10-15 साल में जाने कितने करियर प्लान्स बदलेंगे.

सोचती हूं कि लड़कियों के लिए आस पास वे आदर्श होना कितना जरूरी है जिन्हें देखकर बच्चियां अपने लिए कम से कम 20-22 की उम्र तक ही यह तय कर पाएं कि उन्हें सिर्फ शादी नहीं चाहिए. जबकि शादी के अलावा औरत के जीवन में कुछ महत्वपूर्ण काम हैं, यह हमारी पिछली पीढी को तो नहीं ही मिला.

इंदिरा गांधी, मारग्रेट थैचर जैसे टोकनिज़्म का अपना महत्त्व है लेकिन उससे कुछ व्यापक बदलाव नहीं आता. एक साधारण से परिवार की लड़की को अपने आस पास ऐसे उदाहरण चाहिए होते हैं जो उसे अपनी पहुंच में दिखाई दें. नानी दादी पढी लिखी न भी हों, तो कम से कम मां, बुआ, पड़ोस की आंटी, अपनी खुद की टीचर, मां की सहेलियां, मोहल्ले की कोई स्त्री, कज़िन कोई भी आस-पास की महिला उसे दिखनी चाहिए जो अपने स्व के प्रति सचेत है. जिसने लिख पढ़ कर, घूम फिर कर, डॉक्टरी से, चित्रकारी से, कविता से, समाज सेवा से, थियेटर से, पॉलिटिक्स से, अपने प्रोफेशनलिज़्म से अपनी पहचान बनाई हो. सिर्फ करियर बनाकर शादी न की हो.

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आखिर 40 की उम्र में यह सोचना कि 20 में मैंने शादी न की होती तो यह खालीपन मेरे भीतर न भरा होता. या काश उस वक़्त मुझे मालूम होता कि मेरे भीतर जो टेलेंट है उसका शादी के अलावा भी अपना जीवन बनाने में कितना बड़ा महत्त्व है. अपनी पहचान क्यों ज़रूरी है इस सवाल की मुश्किल से बचने का सबसे आसान तरीका शादी है. आखिर हमारी पिछली सभी पीढ़ियों ने यही किया है और 100 साल से ज़्यादा हमारे पास घर से बाहर निकल कर पहचान बनाती आम औरतों का कोई इतिहास नहीं है. इसलिए यह सवाल कि मैं क्या चाहती हूं लड़कियों के लिए ज़्यादा मुश्किल सवाल है जिनकी माओं ने अपना जीवन घर परिवार को बनाते बांधते और गृहस्थन होने की ट्रेनिंग लेते देते गुज़ार दिया.

हमारी पिछली पीढियां 100 साल पहले तक न डॉकटर थीं, न वैद्य थीं, न टीचर थी, न स्कॉलर, घर के कामों से फुरसत पाकर भले खेत में हाथ बंटाती हों पर न किसान ही रहीं ढंग से, न मजदूर ही कहाईं.

कितना अच्छा हो कि कोई भी लड़की इस मुश्किल सवाल से कन्नी काटने की बजाय इससे भिड़ जाए पूरी ताकत से. और फिर इस मंथन से निकलें घुम्क्कड़ लड़कियां, पेंटर लड़कियां, आर्टिस्ट लड़कियां, बहस और विमर्श करती धाकड़ लड़कियां, मजबूत लड़कियां, जागरुक लड़कियां, अपने प्रकाश से दीप्त अपना सहारा, कभी बोर न होने वाली और नित नया सोचने वाली लड़कियां.

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लेखक

सुजाता सुजाता @sujata.chokherbali

लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी में लेक्चरर हैं

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