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Updated: 29 नवम्बर, 2016 09:02 PM
रीता गुप्ता
रीता गुप्ता
  @rita.gupta.7
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जो चल रहा है उसे चलते रहने देना ही ज्यादातर लोग जीवन समझते हैं. कोई नई चीज या नई तकनीक को अपनाने से पहले ही उसे खारिज करना एक आम मानव प्रवृत्ति है. जबकि बदलाव ही जीवन है, निरंतरता ही जीवन को गतिमान बनाती है. लोग अपने कम्फर्ट लेवल का एक खोल बना लेते हैं. फिर उसमें जरा सी भी छेड़-छाड़ से उन्हें तकलीफ होती है. वहीं बहुत से उत्साही लोग हमेशा बदलाव को अपनाने को तैयार रहते हैं. ये उत्साही लोग जानतें हैं कि बदलाव ही विकास और सुख का कारक है. यदि दुनिया में ऐसे सकारात्मक उत्साही लोग न होते तो मानव सभ्यता शायद आज भी लकड़ी के पहिये ही घूमा रही होती.

मां सुनाती थीं कि पहले लकड़ी के चूल्हों पर ही सभी खाना पकाते थे, फिर आया गैस का चूल्हा. कितनी भ्रांतियां थीं उसके लिए. मसलन गैस पर सिकी रोटियां खाने से पेट में गैस हो जाता है. विस्फोट होने का खतरा है. उस वक्त प्रचारित कर गैस का वितरण और विक्रय किया जाता था 'जब  चाहें खाना पकाएं, आधी रात को मेहमान आए तो भूखा न सोये'. धीरे-धीरे लोगों की समझ में आने लगा, फिर तो जो मारा मारी होने लगी गैस कनेक्शन लेने में कि क्या कहें. महीनों बाद नंबर आते थे और ऊपर से गैस एजेंसियां घूस लेकर ही सिलेंडर बदलते. चूंकि लोगों को लकड़ी के चूल्हे की तुलना में इसकी उपयोगिता समझ में आने लगी थी सो हर तकलीफ उठा कनेक्शन लेने को लाइन में लगे रहते थे. अब कम से कम शहरी क्षेत्रों में तो लोग लकड़ी के चूल्हे पर खाना नहीं ही बनाते हैं.

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 धीरे धीरे लोग अपनाने लगे हैं कैशलेस ट्रांसेक्शन

इसी तरह की अफवाहों का प्रसार प्रेशर कुकर के आने पर भी हुआ था. बड़े बुजुर्ग उसमें पके खाने को अच्छा नहीं समझते थे. लेकिन इसकी उपयोगिता, समय और ईंधन की बचत ने इसके दुष्प्रचार की हर कोशिश को नाकाम किया.

अस्सी के दशक में जब टीवी आया तो लोग कहते कि ये अंधत्व को बढ़ावा देगा. धीरे धीरे तकनीक अपना जाल फैलाती गयी, जिन्दगियां बदलने लगीं. संचार के क्षेत्र में तो बिलकुल क्रांति का ही युग रहा. पोस्ट ऑफिस में जा कर दूसरे शहर कॉल बुक कर टेलीफोन पर चिल्ला कर बातें करने वाली पीढ़ी अभी ज़िंदा है. हर घर टेलीफोन से हर हाथ मोबाइल की दिशा में कदम अब अग्रसर हो चुके हैं. ये एक आश्चर्यजनक सत्य है कि आज कल डिश टीवी की छतरी ऐसे घरों की छतों पर भी दिखती है जिनकी गिनती गरीबी की रेखा से बहुत नीचे की जाती है.

तार, चिठ्ठी जैसी कई चीजें धीरे धीरे नेपथ्य में चले गए जो एक वक़्त सर्वाधिक महतवपूर्ण थे. इसी से शायद विदा होती बेटी का रुदन उतना मर्मंतांक नहीं होता है या विदेश जाता अपना उतना नहीं रोता, क्योंकि अब तो जब चाहें उनसे फोन पर बातें कर लें या फिर आमने-सामने देख वीडियो कॉल कर लें.

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परिवर्तन तो जीवन का नियम है. यदि आज देश में कैशलेस मार्केटिंग की बातें की जा रही हैं तो इसे एकदम से खारिज नहीं किया जा सकता. जरुरत इसे समझने, सीखने, सिखाने और उपयोग करने की है.

कल मैंने अपनी गली के नुक्कड़ पर बैठे सब्जी वाले के पास, एक दफ्ती पर लिखा देखा ‘आप मोबाइल से पेमेंट कर सकतें हैं’. तुरंत वापस आ मैंने अपने 75+ पिताजी को सिखाया कि अगली बार जब आप फोटो कॉपी कराने या समोसे लेने जाएं तो बिना चिल्लर कैसे पेमेंट करें. आज सुबह से बिना काम की चीजें घर पर आ रही हैं क्योंकि उन्हें ये बहुत ही ज्यादा आसान लग रहा है और साथ ही साथ नई तकनीक का लुत्फ भी पापाजी को उठाना था.

यदि हमारे पास बेहिसाबी कमाई के पैसे नहीं हैं तो क्यों हम सियार की तरह हुवां हुवां कर उनके साथ सुर मिला रहे हैं? जिनकी काली कमाई में आग लगी है वो तो दम भर हर सुर में अलापेंगे ही. उन्हें उन की करनी का फल भोगने को छोड़ हम क्यों ना अपने वक़्त और सोच को नयी तकनीक को सीखने-सिखाने में लगाएं.

लेखक

रीता गुप्ता रीता गुप्ता @rita.gupta.7

स्वतंत्र लेखन

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