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Updated: 17 मई, 2018 12:36 PM
वंदना सिंह
वंदना सिंह
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जामिया मिलिया इस्लामिया में हिंदू छात्रों से भेदभाव के आरोपों की खबर सुनकर मेरा गला रुंध गया. जिस संस्थान से आपने पढ़ाई की हो वहां से भावनात्मक जुड़ाव खुद ब खुद हो जाता है. ऐसे में ऐसी खबरों के सामने आने से परेशान न हों ऐसा तो संभव नहीं. लेकिन इन खबरों ने मुझे बैठकर ये सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर क्यों और कैसे ये स्थिति एक ऐसे शिक्षण संस्थान में आई होगी जो किसी केंद्रीय संस्थान से कहीं भी कम नहीं है.

जामिया और वहां चल रहे विवाद को समझने के लिए सबसे पहले विस्तार से ये जानना होगा कि विश्वविद्यालय कहां स्थित है. जामिया मिलिया इस्लामिया मुस्लिम बहुल क्षेत्र जामिया नगर में स्थित है. यहां इतनी संकीर्ण गलियां हैं कि एक रिक्शा और स्कूटर एक ही बार में गुजर नहीं सकते. ये वही जामिया नगर है जहां के बटाला हाउस में 2008 के कुख्यात मुठभेड़ की घटना हुई थी. सूरज डूबने के बाद आप एक ऑटो ड्राइवर से जामिया नगर चलने के लिए कहें तब आपको पता चलेगा कि मैं किस "डर" की बात कर रही हूं.

जामिया में पढ़ रहे अधिकांश छात्र जामिया नगर में रहते हैं.

2010 में मैंने मास्टर्स कोर्स के लिए जामिया मिलिया इस्लामिया में नेल्सन मंडेला सेंटर फॉर पीस एंड कॉन्फ्लिक्ट रिजॉल्यूशन में दाखिला लिया था. शैक्षणिक संस्थान आपको बहुत कुछ देते हैं. मेरे लिए कॉलेज और विश्वविद्यालय का हिस्सा होने का सबसे बड़ा कारण संगोष्ठियों, कार्यशालाओं, बहस और चर्चाओं में भाग लेने का मौका मिलना था. क्योंकि इस तरह के कार्यक्रमों में आपको अपने विषयों में विशेषज्ञों से भी मिलने का अवसर मिलता है. इस तरह के माहौल ने मुझे हर चीज का आंकलन करने, प्रश्न पूछने के लिए प्रेरित किया. साथ ही एक ऐसा एक अशांत दिमाग विकसित करने में मदद की जिसमें सैंकड़ों सवाल तैरते रहते. लेकिन उसी जिज्ञासु दिमाग ने ही एक दिन ये सवाल भी खड़ा कि आखिर विभिन्न बहस और चर्चाओं के लिए किसी खास विषय को ही क्यों चुना जाता है.

जामिया के छात्र के रूप में मुझे ये महसूस होने लगा था कि दुनिया में ध्यान देने वाले सिर्फ दो ही मुद्दे हैं. पहला- कश्मीर में संकट और दूसरा- इज़राइलियों द्वारा फिलिस्तीनियों पर किया जाना वाला अन्याय. ये दोनों बहुत ही संवेदनशील मुद्दें हैं, जिनपर बराबार बड़ी बहसें और जागरूकता की सख्त जरुरत है. लेकिन ऐसा भी नहीं है कि देश और दुनिया में सिर्फ यही दो मुद्दे हैं जिनके बारे में छात्रो को चिंतित होना चाहिए.

ऐसा कोई भी कार्यक्रम पर्याप्त संसाधनों के बिना आयोजित नहीं किया जा सकता है. और न ही इनमें से कोई भी प्रशासन की मंजूरी के बिना ही हो सकता है. इसके बाद ही मुझे एहसास हुआ कि विश्वविद्यालय प्रशासन की तरफ से जानबूझकर छात्रों को इन मुद्दों में उलझाकर रखा जाता है ताकि वो विश्वविद्यालय में शिक्षा के खराब स्तर जैसे गंभीर मुद्दों पर न तो ध्यान दे पाएं और न ही इनको मुद्दा बना सकें.

जामिया में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) की तरह ढाबा कल्चर नहीं है जहां छात्र से लेकर शिक्षक तक चाय पर लंबी बहसें करते. यहां पर छात्र अधिकतर समय कैंटीन में ज्यादा समय नहीं बिताते हैं.

विश्वविद्यालय में अटेंडेंस के नियम भी सख्ती से लागू होते हैं. तात्कालीन कुलपति नजीब जंग द्वारा ये संस्कृति लागू की गई थी. विश्वविद्यालय में उनके द्वारा सख्त नियमों और कानूनों ने कॉलेज लाइफ की सारी खुबसूरती को ही खत्म कर दिया. ये भी एक मुद्दा है जिसपर लंबी और गंभीर बहस हो सकती है. लेकिन उनके इन नियमों ने जामिया को जो सबसे बड़ा आघात लगाया वो था एक उन्मुक्त वातावरण और विचारों के आदान प्रदान की संस्कृति खत्म हो गई.

छात्रों के मुद्दों को उजागर करने लिए सुबह लगाए गए पोस्टर शाम से पहले ही गायब हो जाएंगे. लेकिन फिर भी कोई सवाल नहीं पूछता. और न ही कोई जवाब देता. छात्र संघों की अनुपस्थिति ने भी ये सुनिश्चित किया कि छात्रों से जुड़े किसी मुद्दे के समर्थन में आवाज न उठने पाए. जामिया ने 12 साल पहले 2006 में ही छात्र चुनावों पर प्रतिबंध लगा दिया था.

कश्मीर और फिलिस्तीन में मुसलमानों के उत्पीड़न पर केंद्रित अधिकांश चर्चाओं के कारण जामिया संकीर्णता और सांप्रदायिकता का बुरी तरह शिकार बन गया. छात्रों को बेकार के कारणों के आधार पर परीक्षा में बैठने से मना कर दिया जाता. मनमाने ढंग से फीस बढ़ा दी जाती. छात्रों के लिए पर्याप्त मात्रा में हॉस्टल की सुविधा नहीं है. छात्रों को इंटर्नशीप पूरी करने नहीं दी जाती. लेकिन जामिया के प्रशासन पर सवाल खड़ा करने वाली ये सारी बातें वहां कभी मुद्दा नहीं बनती. यहां मैं आपको ये भी बता दूं कि ये सारे मुद्दे चाहे हिंदु हों या मुसलमान, हर छात्र को जुड़े हैं और उन्हें प्रभावित करते हैं.

jamia milia islamia, hinduजामिया में हिंदू मुस्लमान दोनों हार गए

हाल ही में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में मोहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर को परिसर में रखने के अधिकार के मुद्दे पर जामिया के कई लोगों ने समर्थन में आवाज उठाई. यकीन मानिए तभी मुझे पहली बार एहसास हुआ कि जामिया के पास अपनी भी आवाज है. जामिया के लिए उन मुद्दों के खिलाफ आवाज उठाना उचित है जिसमें हमारे संविधान द्वारा दिए गए फ्री स्पीच के अस्तित्व को ही खतरा होने लगे. या फिर देश के अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न हो रहा हो. लेकिन जामिया के पास उन सभी मुद्दों पर अपनी आवाज बुलंद करने से पहले एक बड़ी लड़ाई सामने खड़ी है.

यह एक ऐसी लड़ाई है जो जामिया को खुद अपने लिए लड़ना है. जामिया एक अल्पसंख्यक संस्था है या नहीं इस बात पर अभी भी बहस जारी है. ये एक ऐसा मामला है जिसे निपटने में लंबा वक्त लगेगा. लेकिन इस दौरान विश्वविद्यालय को ये सुनिश्चित करना चाहिए कि इसके विचार और चिंताएं केंद्रीय विश्वविद्यालय की भावना और सार को दर्शाती हों. उसके छात्र बहुसंख्यक लोगों के उत्पीड़न के प्रति उतने ही संवेदनशील हों जितना अल्पसंख्यक पीड़ितों के मामले में होते हैं.

जामिया में कोई प्लेसमेंट सेल नहीं है. यह अपने छात्रों को नौकरियों के मुश्किल से ही प्रशिक्षित करता है. जामिया की स्थापना 1920 में हुई थी. 1988 में ये एक केंद्रीय विश्वविद्यालय बन गया. स्थापना के 98 साल बाद भी यहां छात्रों की प्रगति के लिए किसी तरह का संवेदनशील प्रयास दिखाई नहीं पड़ता.

और अब इस सवाल पर आते हैं कि- क्या मुझे विश्वविद्यालय में एक हिंदू होने के कारण भेदभाव का सामना करना पड़ा था? नहीं. कभी नहीं. एक सेकंड के लिए भी नहीं.

(DailyO से साभार)

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लेखक

वंदना सिंह वंदना सिंह @vandana.singh.9828

लेखक पत्रकार हैं और इंडिया टुडे ग्रुप के साथ जुड़ी हुई हैं.

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