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Updated: 15 अगस्त, 2018 11:52 AM
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नेहा कश्यप- ये एक फौजी की पत्नी हैं. 'ह्यूमंस ऑफ बॉम्बे' नाम के फेसबुक पेज पर लिखा उनका एक पोस्ट इन दिनों वायरल है. कई लोग इसे पढ़ चुके हैं और अब तक 10 हजार से ज्यादा बार इसे शेयर किया जा चुका है. नेहा इस पोस्ट में अपने पति से पहली बार मिलने से लेकर उन तमाम अहसासों को जाहिर कर रहीं हैं जो किसी को भी भावुक कर देगा. पढ़िए.... 

'हम पहली बार तब मिले जब मैं सिंबॉयोसिस में लॉ की पढ़ाई कर रही थी और वो अकेडमी में कैडेट थे. सबकुछ बड़े मजेदार अंदाज में शुरू हुआ. मैं और मेरी दोस्त हर हफ्ते के अंत में 11 रुपये में एक बस पकड़ कर NDA की अकेडमी पहुंच जाया करते थे. केवल इसलिए कि वहां कैंटिन में खाना बहुत सस्ता होता था! इस तरह हम दोस्त बने लेकिन बहुत जल्द वे देहरादून के IMA चले गए और फिर एक ऑफिसर के तौर पूरे भारत में कई जगह उनका तबादला होता रहा.

आप विश्वास करें या नहीं, इस सबके दौरान हम केवल चिट्ठियों के जरिए एक-दूसरे के संपर्क में रहे. वो 2002 का साल था और मोबाइल फोन अभी भारत में बस आया ही था. इसलिए हम चिट्ठियों से ही एक-दूसरे से अपनी जिंदगी, अपनी रोजमर्रा के किस्से-कहानियों को साझा करते थे. वे चिट्ठियां बचकानी होती थीं, लेकिन शानदार भी. क्योंकि उन्हीं चिट्ठियों के जरिए मैं जान सकी कि एक व्यक्ति के तौर पर वे कितने सहज और सामान्य इंसान हैं.

छह साल ऐसे ही निकल गए. और आखिरकार एक दिन उन्होंने मुझे SMS किया- 'मेरे दिल में तुम्हारे लिए अहसास हैं और मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहना चाहता हूं.' इस संदेश के साथ ही सब तय हो गया. किसी प्रकार का कोई औपचारिक प्रोपोजल या दिखावा नहीं था. था तो बस प्यार और स्थायित्व.

शादी के बाद मैं उनके साथ भटिंडा चली गई. जहां मैं घर से वकालत का काम करती थी. हम तब करीब ढाई साल साथ रहे और वाकई वो दिन खास थे. लेकिन एक प्रोफेसनल होने के नाते में जानती थी कि हर दो साल पर मैं उनके साथ यहां से वहां नहीं जा सकती थी. कई जगहें जहां उनकी पोस्टिंग हुई, वो ऐसी थीं कि मैं वहां केवल पढ़ाने का काम कर सकती थी. लेकिन मैं टीचर तो नहीं हूं, वकील हूं.

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नेहा कश्यप (साभार- फेसबुक, ह्यूमंस ऑफ बॉम्बे)

बहरहाल, हम दोनों ने फैसला लिया कि मैं बॉम्बे चली जाउंगी ताकि अपना करियर आगे बढ़ा सकूं और वो अपनी पोस्टिंग के हिसाब से अपना काम जारी रखेंगे. ये काम मुश्किल था. ये सच में मुश्किल था लेकिन फिर कई चीजें योजनाबद्ध हो गईं. एक बदलाव ये भी हुआ कि हमारी लंबी चिट्ठियां अब लंबे व्हॉट्सअप चैट में बदल गईं!

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फिर हम कई बार चार-चार महीने बाद मिलते. लेकिन वो 15 दिन उनके साथ बिताना मेरे लिए जैसे सबकुछ होता था. और केवल मेरे लिए नहीं, हम दोनों के लिए- अब हमारी तीन साल की बेटी है. मुझे लगता है कि आर्मी के किसी जवान की नजर में उसके देश के लिए जो जज्बा है, उसे बताने के लिए कोई शब्द नहीं है. यहां हम बोनस और छुट्टियों की शिकायत करते रहते हैं, लेकिन सेना में प्रोमोशन से पहले कई बार आप उसी रैंक पर, उसी तन्खवाह पर दशकों तक रहते हैं.

वे फिलहाल विमानन में हैं. कई दिन ऐसे होते हैं जब मैं अचानक बेचैनी में जगती हूं और उनसे कहती हूं कि तुम आज उड़ान मत भरो. कई दिन ऐसे होते हैं जब मुझे उनकी बहुत कमी महसूस होती है और फिर मेरी बेटी मेरा ढांढस बढ़ाते हुए कहती है कि ये जो भी हो रहा है, हमारे देश के लिए है.

वे इतने अच्छे पिता हैं कि इतनी दूर होते हुए भी वे फोन पर अपनी बेटी से पूछते रहते हैं कि आज उसने स्कूल में क्या सीखा. हमारी आदत है कि हम अपने जवानों को खो देने के बाद उन्हें याद करते हैं, उन्हें शुक्रिया कहते हैं. लेकिन हमें तो उन्हें रोज शुक्रिया कहना चाहिए. रोज उनके लिए खुशियां मनानी चाहिए.

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मेरे पति अपने बैच के कई साथियों को लड़ाई या फिर किसी तकनीकि गड़बड़ी की वजह से खो चुके हैं. कई दिन ऐसे भी होते हैं जब हम दोनों के बीच कोई बात नहीं हो पाती. क्योंकि तब वो ऐसी जगहों पर होते हैं जहां नेटवर्क काम नहीं करता. फिर कुछ दिनों के बाद फोन करके बताते हैं कि वे ठीक हैं. ये सब हमारे लिए झेलना कितना मुश्किल होता है. लेकिन फिर भी मुझे याद नहीं आता कि किसी एक दिन भी उन्होंने कोई शिकायत की हो. वे हर दिन अपने चेहरे पर उसी मुस्कुराहट को लिए जगते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि वो अपने देश की सेवा कर रहे हैं.'

(ह्यूमंस ऑफ बॉम्बे पर लिखा नेहा का मूल लेख आप यहां पढ़ सकते हैं.)

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