मां तो सबके पास थी, बस नाम देने से बचते रहे
जब भी कभी मां की बात उठती है उसके सम्मान में फिल्म दीवार का ये डायलॉग यूं ही गूंजने लगता है. "मेरे पास मां है." मगर हकीकत, अब तक, बिलकुल अलग रही है.
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जब भी कभी मां की बात उठती है उसके सम्मान में फिल्म दीवार का ये डायलॉग यूं ही गूंजने लगता है. "मेरे पास मां है." मगर हकीकत, अब तक, बिलकुल अलग रही है. महज कुछ हिस्सों को छोड़ दें तो देश में ज्यादातर पितृ-सत्ता वाला समाज है. सिर्फ उत्तर-पूर्व, केरल और हिमालय के पर्वतीय इलाके ही ऐसे हैं जहां मातृ-सत्ता का प्रभुत्व देखा जा सकता है. हर जगह पिता का ही नाम चलता है. पर, अब सिर्फ वो बात नहीं रही.
चुनौतियों का वो अंबार
उस दिन तो हद ही हो गई. विदेश मंत्रालय की ओर से वकील ने कोर्ट को बताया कि बिन ब्याही मां को एफिडेविट देकर बताना होगा.
'वह मां कैसे बनी?'
'क्या उसके साथ रेप हुआ था?'
ये दलील सुन कर बॉम्बे हाई कोर्ट के जज भी हैरान रह गए थे. वकील ने बताया कि इसका विस्तृत ब्योरा पासपोर्ट मैन्यूअल में है जो क्लासीफाइड दस्तावेज है. हालांकि, अब पासपोर्ट आवेदन में पिता का नाम देने की बाध्यता खत्म कर दी गई है.
सिंगल मदर होने की चुनौतियां क्या होती हैं इसे दूसरा कोई शायद ही समझ पाए.
सेलीब्रिटी होने के बावजूद नीना गुप्ता और सुष्मिता सेन को भी ऐसी मुश्किलों से जूझना पड़ा. नीना और सुष्मिता दोनों सिंगल मदर हैं, हालांकि, दोनों के मामले बिलकुल अलग हैं. नीना ने जहां बिन ब्याहे बच्ची को जन्म दिया है, वहीं सुष्मिता ने शादी किए बगैर दो बेटियों को गोद ले रखा है. नीना ने बेटी मसाबा को ऐसी परवरिश दी कि आज वो एक फैशन डिजायनर हैं और मजबूती से अपने पैरों पर खड़ी हैं. सुष्मिता भी अपनी बेटियों को अच्छी परवरिश दे रही हैं.
वैसे अगर आम सिंगल मदर की चुनौतियों की बात करें तो वो ताजमहल की बाउंड्री भले न ढंक पाएं लेकिन उससे ज्यादा कम नहीं होंगी.
मां नाम ही काफी है
अब तक 'द गार्जियन एंड वॉर्ड्स ऐक्ट' और 'हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्जियनशिप ऐक्ट' के तहत बच्चे के लीगल गार्जियन का फैसला उसके पिता की सहमति के बगैर नहीं हो पाता था. लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया है कि इसके लिए पिता की इजाजत की कोई जरूरत नहीं है. इतना ही नहीं, कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि मां चाहे तो हलफनामा देकर बच्चे का बर्थ सर्टिफिकेट भी बनवा सकती है.
सुप्रीम कोर्ट की नजर में ऐसी महिलाओं की तादाद बढ़ रही है जो खुद बच्चे की परवरिश करना चाहती हैं. जहां तक संरक्षण की बात है तो उसमें बच्चे का वेलफेयर सर्वोपरि है. सुप्रीम कोर्ट पहुंचे इस मामले में महिला का तर्क था कि बच्चे की परवरिश से पिता का कोई लेना देना नहीं है और उसे पता भी नहीं है कि उसका कोई बच्चा भी है. अब तक तो यही व्यवस्था रही कि मां चाहे हर जिम्मेदारी निभाए लेकिन बात जब संरक्षण की आएगी तो अभिभावक पिता ही होगा. अब अदालत ने महिलाओं को ये अधिकार दे दिया है कि वो चाहें तो कानूनी तौर पर बच्चे की अभिभावक हो सकती हैं. यानी अगर एक बिन ब्याही मां भी चाहे तो कानूनी तौर पर बच्चे को पिता के नाम से भी दूर रख सकती है.
ऐसे में जबकि महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण देने को लेकर नेताओँ की बहस अब तक बेनतीजा रही है, सुप्रीम कोर्ट ने एक और अहम फैसला सुनाया है. सुप्रीम कोर्ट ने स्त्री के शरीर को उसका अपना मंदिर बताया है. "स्त्री की गरिमा उसकी आत्मा का अटूट हिस्सा होती है जिस पर दाग नहीं लगाया जा सकता." बलात्कार को समाज के खिलाफ अपराध बताते हुए कोर्ट ने कहा कि दो पक्षों के बीच का ये मामला नहीं है जो आपस में सुलह कर लें. अदालत ये नहीं जान सकती कि ऐसी सुलह वास्तविक है, क्योंकि पीड़ित दबाव में या जीवन भर के सदमे से बचने की कोशिश में सुलह को मजबूर हो सकती है.
हाल ही में मद्रास हाई कोर्ट ने बलात्कार के आरोपी से पीड़िता की शादी के लिए सुलह करने की हिदायत दी थी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी बातों को महिलाओं के सम्मान के खिलाफ माना है.
बदलते वक्त के साथ ये महिला सशक्तीकरण की ओर बढ़ता हुआ मजबूत कदम है. अब तक सिर्फ रिश्तों के मामले में मां के नाम की दुहाई देना काफी मान लिया जाता रहा. अब उस पर कानूनी मुहर लग गई है जिसमें पिता के स्टांप की जरूरत नहीं. अब वहां मां का नाम भी दर्ज हो गया है.
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