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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 29 अक्टूबर, 2015 12:39 PM
चिंकी सिन्हा
चिंकी सिन्हा
  @chinki.sinha
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उनकी सोच बिल्कुल साफ है. वे उन मर्दो को चूमना नहीं चाहतीं जिन्होंने सेक्स के लिए पैसे दिए हैं. उन्होंने यह भी बता दिया जिन मर्दों से बदबू आती है..या जो गालियां बकते और अपनी दुख भरी कहानियां सुनाती हैं. वे उनके साथ सेक्स करना नहीं चाहतीं. वे मर्द तो और भी उबाऊ हैं जो कहते हैं कि उन्हें अपनी बीवियों से नफरत है. वेश्यालयों की महिलाओं की जुबान खुली तो वहां आने वाले मर्दों के बारे में चौंकाने वाली जानकारियां सामने आने लगी. ऐसा लगा जैसे इन मसले पर उनकी सहमति नहीं है लेकिन उन्हें खरीद लिया गया हो. यहां कई अजीबोगरीब चीजें होती हैं लेकिन अब इन महिलाएं को उसकी परवाह नहीं.

मैं मानती रही हूं कि वेश्यालय केवल सेक्स की जगह नहीं हैं बल्कि कामोत्तेजनाएं मिटाने की जगह भी हैं. कोई उन्हें यातनाओं की जगह के रूप में भी देख सकता है जहां मर्द अपने मानसिक स्वास्थ्य को दुरुस्त रखने के लिए अपनी कल्पनाओं को शुद्ध करते हैं. एक बार, जब मैंने उनसे पूछा कि उन्हें क्या-क्या भोगना पड़ा, उन्होंने ऐसे मर्दों की कहानियां सुनाई जिन्हें वेश्याओं को दुल्हन के जोड़े पहनाना, और रोल प्ले कराना पसंद था. ये सब रोमांटिक था, और उन्हें ये सब बुरा भी नहीं लगा.

ऐसा आदमी जो उनके कपड़े उतारकर खुद पहन लेता हो, या दूसरा जो रजस्वला स्त्री के कपड़े धोने के लिए पूछे. वो ऐसी कल्पनाओं पर हंसा करती थीं, फिर भी वे पुरुषों को ऐसा करने देतीं क्योंकि इससे उन्हें पैसे मिलते थे. किसी ने बताया कि एक आदमी इतना कामुक था कि उसने एक वेश्या को पंखे से लटका दिया और उसे मारा. और वेश्या ने भी ये सब सहा क्योंकि उसे पैसा कमाना था और आगे बढ़ना था.

बहुत पहले की बात है, वेश्याएं पुरुषों के बारे में क्या सोचती हैं, मैंने इस बारे में एक लेख लिखा था. ये बहिष्कृत औरतें अपने ग्राहकों के बारे में क्या सोचती हैं ये उसकी कहानी थी. और वो हमेशा यही कहतीं कि वो आदमियों को 'चू**' समझती हैं. वे आदमी जो उनकी गंदी सीढि़यां चढ़कर आते हैं, या वो जो उन गलियों से औरतों को उठाकर बक्से जैसे कमरों में ले जाते हैं वो नैतिकता के सवालों से मुक्त हैं.

वो जानते थे कि उन्हें कोई नहीं आंकेगा, और एक वेश्या के आंकलन की कोई कीमत नहीं. इसलिए वे वेश्याओं के सामने उनमुक्त हो जाते थे और उन्हें पैसे देते थे जिससे कि वे उसे पीट सकें, और दूसरे तरीकों से उन पर हावी हो सकें. वेश्याएं बुद्धिमान होती हैं. वो जानती हैं कि आदमियों का मन बीमार होता है, और अगर उन्हें मौका मिले तो वे और खेलेंगे और अगर वे सावधान नहीं रहीं तो जाल में फंस जाएंगी. ऐसा भी नहीं है कि इस जाल में अभी तक कोई फंसी नहीं.

मैं उस युवा गर्भवती महिला से कमाठीपुरा की एक छोटी सी माइक्रोफाइनेंस यूनिट में मिली थी, जहां वो कुछ पैसे जमा कराने आई थी. पास के होटल में काम करने वाले आदमी के साथ उसकी शादी हुई थी, उसे आशा थी कि वो उसे प्यार करेगा, लेकिन उसने उसे अपना शरीर बेचने के लिए कहा जिससे कि वो और पैसे कमा सके, और उसने ऐसा ही किया. वो निराश थी. लेकिन उसे पता था कि आखिर में उसे प्यार के कुछ शब्द सुनने को मिलेंगे और वो उसके लिए काफी हैं. उसकी कहानी बहुत दुखद थी, लेकिन सभी कि कहानियां एक जैसी ही थी. इन महिलाओं ने पुरुषों को इस तरह से समझा जो हम कभी नहीं समझ सकते, और ये प्रेम और रोमांस के भ्रम के आधीन भी नहीं थीं.

हमने सिद्धांतों और साहित्य से सीखा है. हम अक्सर कुछ बुद्धिजीवी महिलाओं और पुरुषों से भरे कमरे में नारीवादी आंदोलन की बातें करते हैं और विर्जिनिया वूल्फ के लेख संग्रह 'ए रूम ऑफ वन्स ओन' का जिक्र भी करते हैं. यही नहीं, इन लेख को हम नारीवाद के बाइबल के तौर पर देखते हैं. हम कमरों में बहस करना पसंद करते हैं. हम खुद को उद्धारक के रूप में स्थापित करना चाहते हैं जिन्होंने सभी समस्याओं को समझ लिया है. और फिर भी हममें चीजों को उस तरह से देखने की क्षमता नहीं हैं. शायद, हम सोचते ज्यादा हैं, और देखते कम हैं, और अनुभव उससे भी कम करते हैं.

वूल्फ ने लिखा था, 'पैसा बताता है कि कोई काम अगर अवैतनिक हो वह तुच्छ है.'

और केवल यह सुनने के बाद कि वे महिलाएं कैसी परिस्थिति से गुजरी होंगी, कैसे अपने शरीर के लिए मिलने वाले पैसे का लेखा-जोखा किया होगा..मैं वूल्फ के शब्दों को ठीक से समझ सकी. वेश्याएं जानती हैं कि उन्हें पैसे के हिसाब से अपनी सेवा देनी है. यहां कुछ भी मुफ्त नहीं है और वे किसी नैतिकता से भी नहीं बंधी है कि इन बातों की खुल कर चर्चा न कर सकें. हर कोई यहां ये काम पैसे के लिए कर रहा है. इस धंधे के आगे उनके व्यक्तिगत चुनाव का कोई महत्व नहीं है. और इसलिए वे यहां जो भी करती हैं, हक के साथ करती हैं.

वेश्यालय इतने लंबे समय से चल रहे हैं. उनकी छवि अय्याशी के अड्डे के तौर पर रही है. लेकिन इन दिनों यहां भी उदार तरह की बातें जैसे महिलाओं को बचाने या उनकी तस्करी खत्म करने पर बहस हो रही है. लेकिन यह बातें अभी बस एक सुहाने सपने की तरह ही लग रही हैं. सभी की कहानी यहां एक है. दुत्कार दिए जाने वाली और दुख भरी कहानी सबके पास है. लेकिन यहां एक दूसरी कहानी भी है. दूसरा एंगल है. महिलाएं यहां एक-दूसरे को परख नहीं रही. सबका मकसद बस पैसा कमाना है और पैसे पर ही बात होती है.

दिल्ली में BDSM से जुड़ी एक कहानी पर रिसर्च करते हुए मैं 'किंकी कलेक्टिव' नाम के एक ग्रुप के कुछ सदस्यों से मिली. यह ग्रुप-2011 में बनाया गया. यह एक तरह से छिपा समाज है और खुल के सामने नहीं आता. कई शादी-शुदा हैं और BDSM से जुड़े नहीं हैं और अपनी फैंटेसी को जाहिर करने में हिचक महसूस करते हैं.

कई महीनों के मेल-जोल और बातचीत के बाद मैंने उनकी कहानी, उनके विचार को जाना. यह भी समझा कि उनके लिए अपने सेक्सुअलिटी को जाहिर कर पाना और इस पर बात करना कितना मुश्किल है. यहां मैं ऐसी महिलाओं और पुरुषों से मिली जो अच्छे पढ़े-लिखे हैं, उदारवादी हैं. उनमें कुछ तो एक्टिविस्ट हैं और अपनी महिलावादी पहचान प्रकट भी करते हैं. लेकिन फिर भी वे छिपे हुए हैं. उनका एक अपना समाज है, नेटवर्क है और वे पूरी कोशिश करते हैं कि उनकी पहचान जाहिर हो सके. वे अपनी इच्छा, अपनी फैंटसी, अपनी सोच पर बात करेंगे लेकिन हमेशा पहचान छिपाने की शर्त पर. क्योंकि उन्हें लगता है कि समाज में नैतिकता को लेकर जो बाते होती हैं...उनका मुकाबला करना शायद मुश्किल है.

ये पुरुष और महिलाएं दूसरी रूढि़वादी बातों पर अपनी बात रखती रही हैं. लेकिन अपने मामले पर वे अभी खुलकर आवाज नहीं उठा सके हैं. आप उनसे इस मुद्दे पर बहस करना शुरू करें इससे पहले ही वे हार स्वीकार कर लेते हैं. मैं यह नहीं कह रही कि मैं उनके भय को नहीं समझती. अभी लंबा समय लगेगा जब वे खुलकर बाहर आ सकेंगे और खुद की आलोचना के भय से जूझना सीखेंगे. फिर शादी, प्यार और कई दूसरी चीजें भी दांव पर लगी होंगी. अब भी कोई आजादी नहीं है. लेकिन वे खुद के व्यक्तित्व को स्वीकार कर रहे हैं और उनके पास अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए एक नेटवर्क भी है.

लेकिन जब मैं एक नोटबुक पर नजर डालती हूं जो इन किस्सों-कहानियों से भरा पड़ा है कि पुरुष कैसी-कैसी मांग रखते हैं, और रेड-लाइट क्षेत्र में महिलाओं जब यह कहती हैं कि वे ज्यादा पैसे के साथ और कुछ ज्यादा समय देंगी. मुझे लगता है कि इन महिलाओं से ज्यादा वे किन्नर नारीवादी हैं जो किसी प्रकार की शर्त नहीं रखते. भले ही कैसा भी पुरुष उनके पास आए.

वे ज्याद नियंत्रित हैं. कठोर हैं. पुरुषों द्वारा बार-बार उन्हें दुत्कारा और संक्रमित किया जाता है. लेकिन फिर भी उनके पास डरने के लिए कुछ नहीं है. और इस कड़वे सच के साथ उन्होंने अपनी आजादी हासिल कर ली है. जब वे किन्नर मुस्कुराते हैं तो वह दर्द झलकता भी है. उनके शरीर पर जलते सिगरेट दागे जाते हैं. उन्हें यातनाएं झेलनी पड़ती हैं. लेकिन चूकी यह उनका पेशा है, बच्चे हैं..जिनका उन्हें ख्याल रखना है...वे यह सब झेलते हैं.

उनमें से किसी ने बहुत पहले मुझसे यह कभी कहा भी था, 'हम प्यार का भ्रमजाल लेकर चलते हैं'

और फिर, उस महिला ने कहा कि वह नहीं जानती कि प्यार के साथ संभोग करने के क्या मायने होते हैं. वह कभी इसकी परवाह भी नहीं करती. सेक्स उसके लिए केवल सेक्स है. यह रोमांस, दर्द, खुशी, कंसेंट थ्योरी यह सब उन लोगों के लिए है जो 'आजाद' नहीं हैं और प्यार, सेक्स और उसको जाहिर किए जाने के बारे में बहुत ज्यादा सोचते हैं. किसी दूसरे ने कहा कि कोई फिजिक्स या केमिस्ट्री नहीं होती. यह केवल बॉयलोजी है और हमें इससे पैसे मिलते हैं.

उनके लिए ऐसे संबंधों के कोई मायने नहीं है. उनकी सहमति एक प्रकार से खरीद ली गई है. वे इसकी भी परवाह नहीं करते कि BDSM का मतलब क्या है या कोई अल्टरनेट सेक्सुअलिटी है. वे पुरुषों को जानती हैं और उन्होंने कहा कि अमानुषिक सेक्स उनके लिए अनुचित है. कुछ मामलों में वे सहभागी हैं लेकिन वे उसके लिए चार्ज करती हैं और जाहिर तौर पर वे उन्हें कभी खुद को किस नहीं करने देंगी.

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