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Updated: 19 जनवरी, 2022 06:32 PM
आर.के.सिन्हा
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महान पर्वतारोही मेजर एचपीएस आहलूवालिया देश के 60 की उम्र पार कर गई पीढ़ी के लिए किसी नायक से कम नहीं थे. मेजर एचपीएस आहलूवालिया उस पर्वतारोही दल के सदस्य थे जिसने 20 मई 1965 को माउंट एवरेस्ट की चोटी को फतेह किया था. वह भारतीय सेना का पर्वतारोही दल था. यानी मेजर एचपीएस आहलूवालिया एवरेस्ट की चोटी पर चढ़ने वाले पहले भारतीयों में से एक थे. मतलब तेनजिंग नोर्गे और एडमंड हिलेरी के छह सालों के बाद भारतीय दल एवरेस्ट पर चढ़ा था. मेजर आहलूवालिया ने 1965 में पाकिस्तान के खिलाफ जंग में भी सक्रिय रूप से भाग भी लिया था. उन्होंने रणभूमि में दुश्मन सेना के दांत खट्टे कर दिए थे. उनका विगत शुक्रवार को निधन हो गया. वे 85 साल के थे. पाकिस्तान से जंग के दौरान उनके शरीर का एक हिस्सा पक्षाघात से ग्रस्त हो गया था. इससे वे विचलित नहीं हुए. वे आजीवन दिव्यांगजनों के पक्ष में काम करते रहे. उन्होंने राजधानी में इंडियन स्पाइनल इंजरी सेंटर की स्थापना है. यह देश का अपनी तरह सबसे शानदार अस्पताल है. इस अस्पताल में रीढ़ की बीमारियों से संबंधित रोगों का इलाज होता है.अब आप खुद देख लें कि कोई इंसान एक जीवन में कितने सार्थक काम कर सकता है. मेजर आहलूवालिया का जीवन बेहद प्रेरक रहा. वे सैनिक, पर्वतारोही, लेखक और अस्पताल के संस्थापक थे.

Major HPS Ahluwalia, Indian Army, Army, Mount Everest, Mountain, Mountaineer, Handicap, Prime Ministerअपने दल के साथ दिवंगत मेजर एचपीएस आहलूवालिया

उनकी बात करते हुए हमें अपने देश के दिव्यांग जनों के हितों के बारे में संवेदनहीनता की मानसिकता को छोड़ना होगा. दिव्यांगजनों को भी बाकी नागरिकों की तरह ही देखा जाना चाहिए. उन्हें अहसानों की जरूरत नहीं. भारत में मानसिक और शारीरिक तौर पर विकलांग लोगों को रोजाना किसी न किसी तरह के भेदभाव का सामना करना ही पड़ता है. क्या हमारे देश के विकलांगों के मन-माफिक घरों या कमर्शियल इमारतों का निर्माण हो रहा है?

इस सवाल का जवाब नकारात्मक ही मिलेगा. कारण यह है कि हमारे यहाँ दिव्यांग जनों के हितों को लेकर सरकार से लेकर समाज का रवैया ठंडा सा ही पड़ा रहता है. मेजर एचपीएस आहलूवालिया जैसे जागरूक नागरिक तो गिनती के हैं जो सरकार और समाज को जगाते रहते हैं. उन्हें बताते रहते हैं कि दिव्यांगजनों को उनकी हालत पर छोड़ा नहीं जा सकता. देश में 16 किस्म की विकलांगतायें है.

मेजर आहलूवालिया स्वयं भी व्हीलचेयर पर चलते थे. वे मानते थे कि व्हीलचेयर पर चलने वाली आबादी को अपने घर से बाहर लाने, कॉलेज या दफ्तर जाने के लिए बस पकड़ने, शापिंग कांप्लेक्स जाने या अन्य सार्वजनिक इमारतों में प्रवेश की वैसी ही सुविधा होनी चाहिए जैसी सामान्य लोगों के लिए होती है. लेकिन, स्थिति यह है कि अधिकतर स्थानों पर दिव्यांग व्यक्ति आसानी से कहीं आ जा ही नहीं सकता.

हमारे यहां इनके लिए हाई-राइज बिल्डिंगों और घरों में पर्याप्त जरूरी सुविधाएं उपलब्ध करवाने को लेकर गंभीरता से नहीं सोचा जा रहा. यही स्थिति बुजुर्गों की भी है. हमारे देश में बुजुर्गों और विकलांगों दोनों की अनदेखी हो रही है. अब कुछ दिनों के बाद केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण केन्द्रीय बजट पेश करेंगी. अगर वो अपने बजट प्रस्तावों में उन बिल्डरों को टैक्स में राहत दें जो दिव्यांगजनों को किसी तरह से मदद दे रहे हैं, तो यह एक तरह से मेजर एचपीएस आहलूवालिया जैसे विकलांगों और विकलांग सेवियों को सच्ची श्रधांजलि ही होगी.

भारत में रीयलएस्टेट सेक्टर ने बीते चंदेक दशकों के दौरान लंबी छलांग लगाई है, पर उन रीयल एस्टेट कंपनियों को उंगुलियों पर गिना जा सकता है जो विकलांगों तथा बुजुर्गों की सुविधा का ध्यान रखकर ही अपने प्रोजेक्टों का निर्माण कर रही हैं. अब भी आपको इस तरह की आवासीय और कमर्शियल इमारतें कम ही मिलेंगी जिनमें विकलांगों की व्हीलचेयर को लिफ्ट के अंदर लेकर जाया जा सकता है.

लिफ्ट में इतना कम स्पेस रहता है कि व्हीलचेयर को उसके अंदर लेकर जाना मुमकिन ही नहीं होता. बाथरूम और किचन में कैबिनेट इतनी ऊंचाई में होते हैं कि विकलांग इंसान के लिए उनका इस्तेमाल करना बेहद कठिन होता है. मेजर एचपीएस आहलूवालिया के बहाने यह भी कहना पड़ रहा है कि हमें अपने यहां पर्वतारोहियों को भी गति देनी होगी. उन पर्वातारोहियों को उनका हक देना होगा जिनकी खास उलब्धियां रही हैं.

जिन दो पर्वतारोहियों ने माउंट एवरेस्ट को पहली बार 29 मई 1953 को फतेह किया था उनके नाम पर राजधानी में सड़कों के नाम हैं. सर एडमंड हिलेरी के नाम पर दिल्ली के चाण्क्यपुरी एऱिया में सड़क है. वे 1985-1989 के बीच न्यूजीलैंड के भारत में हाई कमिश्नर थे. एडमंड हिलेरी के दफ्तर के दरवाजे पर्वतारोहियों, खिलाड़ियों,लेखकों वगैरह के लिए हमेशा खुले रहते थे.

वे बेहद लोकप्रिय डिप्लोमेट थे. चाण्क्यपुरी में ही तेनजिंह नोर्गे मार्ग भी है. उम्मीद की जाये कि अब राजधानी के किसी भाग में हम मेजर आहलूवालिया के नाम पर कोई सड़क या संस्थान को देखेंगे. सब जानते हैं कि बछेन्द्री पाल एवरेस्ट की ऊंचाई को छूने वाली पहली भारतीय महिला पर्वतारोही थीं . उससे प्रभावित होकर हरियाणा की बेटी अनीता कुंडू ने भी माउंट एवरेस्ट को फतह कर लिया है.

वह तिरंगे को तीन बार एवरेस्ट की चोटी पर और सातों महाद्वीपों के सबसे ऊंचे शिखरों पर भी लहरा चुकी है. अनीता के गृह राज्य के हरियाणा से भारतीय दंपत्ति बिकाश कौशिक और उनकी पत्नी सुषमा कौशिक एवरेस्ट पर चढ़ने वाले सबसे युवा दंपत्ति बन चुके हैं. 45 साल की उम्र में प्रेमलता अग्रवाल ने सबसे उम्रदराज एवरेस्ट पर्वतारोही का रिकॉर्ड बनाया था.

उन्होंने भी कौशिक दंपत्ति के साथ ही एवरेस्ट की चोटी को फतेह किया था. एक बात समझ लें कि पर्वतारोहण को गति तब ही मिलेगी जब इन पर्वतारोहियों की यात्राओं का खर्च सरकार, सार्वजनिक क्षेत्र और निजी क्षेत्र भी मिलकर वहन करे. पर्वातरोहण में बहुत पैसे खर्च होते हैं. ध्यान रहे कि भारत में 1960 से 1990 के दशकों तक सेना के पर्वतारोहियों की माउंट एवरेस्ट या दूसरी चोटियों को फतेह करने के लिए निकलते थे.

इनका सारा खर्चा सेना ही उठाती थी. सेना के पास अपने पर्वतारोहियों के लिए पर्याप्त बजट होता है. पर उन पर्वतारोहियों के संबंध में सोचने की जरूरत है जो सेना से नहीं है. उनके पुनर्वास के बारे में ध्यान देना होगा. जो अभियान के समय घायल हो जाते हैं. पर्वतारोहण एक मात्र ऐसा एडवेंचर गेम है इसमें पर्वतारोही को हर पल मृत्यु का सामना करना होता है. एक छोटी सी असावधानी से शरीर वर्फ की दरारों में सदियों के लिये जिन्दा दफ़न हो जाता है.

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लेखक

आर.के.सिन्हा आर.के.सिन्हा @rksinha.official

लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं.

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