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Updated: 16 जुलाई, 2015 05:16 PM
श्वेता पुंज
श्वेता पुंज
  @shweta.punj.9
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गरीबी के खिलाफ लड़ाई 68 साल से जारी है, लेकिन अभी तक जीती नहीं जा सकी है. कांग्रेस को दशकों तक सत्ता की बागडोर दिलाने वाला नारा “गरीबी हटाओ” आज भी सुदूर देहातों में गूंज रहा है. लेकिन गरीबी पर हो रही बहसों में अब वह धार नहीं रह गई है. इसका एक सबूत हाल में जारी सामाजिक-आर्थिक जनगणना के नतीजे हैं, जो 1935 से दूसरी बार “अभावग्रस्तता के आंकड़े” की तरह रोशनी में लाए गए हैं.

अपने अंतरराष्ट्रीय ग्राहकों के लिए जनगणना के आंकड़ों का ब्योरा तैयार करने वाले मुंबई स्थित एक अर्थशास्त्री कहते हैं, “वे (सत्ता-तंत्र के लोग) गरीबी की बहस के इस पचड़े में पडऩा ही नहीं चाहते. गरीबी की व्याक्चया और साफ-सटीक शब्दों में की जानी चाहिए, लेकिन उन्होंने इसे अभावग्रस्तता में बदल दिया है. अब इस अभावग्रस्तता के कई मायने हो सकते हैं.”

यह जनगणना 2011-2012 में की गई थी जिसके आंकड़े 3 जुलाई को जारी किए गए हैं. ये आंकड़े कुछ दिलचस्प खुलासा करते हैं. इस जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक, करीब तीन-चौथाई लोग अभी भी गांवों में रहते हैं, करीब 75 फीसदी ग्रामीण परिवारों में सबसे अधिक कमाई करने वाले सदस्यों की आमदनी 5,000 रु. से कम है और सिर्फ 8 फीसदी ग्रामीण परिवारों का ही कोई सदस्य 10,000 रु. से अधिक कमाता है. ये आंकड़े यह भी बताते हैं कि करीब 51 फीसदी लोग अस्थायी दैनिक मजदूरी से गुजारा करते हैं और 30 फीसदी परिवारों की मुख्य आमदनी का स्रोत खेती है. जब देश में खैरात बनाम आर्थिक वृद्धि की बहस चल रही हो तो ये आंकड़े बहुत महत्वपूर्ण हो जाते हैं.

जाहिर है, पैसे लुटाकर इस समस्या का हल खोजने का तरीका भारत की गरीबी की समस्या पर तो लागू नहीं होता. इसका समग्र हल ही ढूंढना होगा, जिसमें नए रोजगार और नौकरियों का सृजन करना शामिल हो. साथ ही श्रम कानूनों में सुधार हो, ताकि लोगों को नौकरियों पर रखना आसान हो सके और तेजी से नई नौकरियां पैदा हों. इसी रास्ते से वृद्धि का एक बेहतर टिकाऊ चक्र बन सकेगा, जिसके फायदे निचले पायदान के व्यक्ति तक पहुंच सकेंगे.

शोध और विश्लेषण करने वाली संस्था क्रिसिल के वरिष्ठ निदेशक और मुख्य अर्थशास्त्री डी.के. जोशी कहते  हैं, “पहले रोजगार सृजन का मामला सिरे से गायब था. हमने आर्थिक वृद्धि हासिल की, लेकिन नई नौकरियों का सृजन नहीं हुआ. हमें अधिक से अधिक हाइवे और सड़कें बनाने की जरूरत है, जिससे रोजगार भी पैदा हो और संपत्ति भी खड़ी हो.” गरीबी दूर करने के लिए सरकार ने मार्च, 2015 में एक कार्य दल का गठन किया था. उसके सदस्य और अर्थशास्त्री सुरजीत भल्ला कहते हैं, “हमारी पुनर्वितरण की नीति यह रही है कि सब्सिडी दी जाए और सरकार सब्सिडी वितरण में सक्रिय भूमिका निभाए क्योंकि यह हर किसी (राजनैतिक वर्ग) को मुफीद लगती है.”

गरीबी हटाने के लिए बनाए गए इस कार्य दल का मानना है कि नकद हस्तांतरण योजना को गरीबी कम करने के किसी भी एजेंडे का अहम हिस्सा होना चाहिए. भल्ला कहते हैं, “रसोई गैस की मद में सब्सिडी के नकद हस्तांतरण से सरकार के 15,000 करोड़ रु. बच गए हैं.” प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण योजना (डीबीटी) या नकद हस्तांतरण को लेकर शुरू में बैंकों को शामिल करने, बिजनेस कॉरेस्पांडेंट्स का तंत्र खड़ा करने जैसे कई तरह के संदेह थे, लेकिन अब ये दूर हो रहे हैं, क्योंकि देश में सब्सिडी में कुल लीकेज 45-50 फीसदी तक हो सकता है. देश में कुल सब्सिडी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 4.2 फीसदी है. प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण योजना से करदाताओं का काफी पैसा बच सकता है, बशर्ते राज्य सरकारें बीपीएल कार्ड देने के राजनैतिक लाभ के लालच से कुछ ऊपर उठ जाएं.

सरकार अब सामाजिक-आर्थिक-जाति जनगणना के आंकड़ों का मिलान आधार कार्ड के जरिए करके यह पता लगा सकती है कि किसी लाभार्थी की आर्थिक स्थिति कैसे बदली. सरकार में अब यह एहसास भी घर कर रहा है कि गरीबी कोई एक-आयामी मामला नहीं है, जिसे सिर्फ आमदनी से ही नापा जा सकता है. यह थोड़ा और जटिल और बहुस्तरीय है. अब नई जनगणना के आंकड़ों से इसके फासले और कमियों को भरने वाली नीतियां बनाई जा सकती हैं.

इन आंकड़ों से भूमि अधिग्रहण की बहस में भी नया संदर्भ जुड़ गया है. इन आंकड़ों के मुताबिक, 56 फीसदी ग्रामीण परिवार भूमिहीन हैं और 51 फीसदी खेती से जुड़े हुए नहीं हैं. इसका अर्थ यह हुआ कि खेती-किसानी पर निर्भर लोगों के बारे में कुछ ज्यादा ही बढ़ा-चढ़ाकर बात की जाती है. स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री समीरन चक्रवर्ती कहते हैं, “शायद ग्रामीण भारत असल में औद्योगिक विकास से लाभान्वित होगा. कृषि में निवेश बढ़ाने की फौरी दरकार है, ताकि जमीन की मिल्कियत वाले परिवारों (44 फीसदी) और कृषि के मशीनी उपकरण रखने वाले परिवारों (4 फीसदी) के अनुपात की खाई को पाटा जा सके.” अन्स्ट्र ऐंड यंग इंडिया के मुख्य नीति सलाहकार डी.के. श्रीवास्तव का कहना है कि सरकार को बड़े पैमाने पर शहरीकरण की दिशा में बढऩे की जरूरत है.

ग्रामीण भारत में गैर-कृषि रोजगार या नौकरी के नए अवसर पैदा करना अपने आप में एक चुनौती भरा काम होगा. चाहे वह उत्पादन के क्षेत्र में हो या सेवा के क्षेत्र में. इसकी अपनी समस्याएं और चुनौतियां होंगी. मसलन, उत्पादन क्षेत्र उन्हीं इलाकों में फलता-फूलता है, जहां कच्चा माल या प्रतिभाएं उपलब्ध हों. इसी तरह सेवा क्षेत्र के लिए एक खास तरह का हुनर चाहिए, जो इतने कम समय में नहीं पैदा हो सकता.

लेकिन सरकार फौरन जो एक कदम उठा सकती है, वह है औपचारिक रोजगार से वंचित लोगों को सुरक्षा मुहैया कराना. वैतनिक नौकरियों वाले लोगों की संख्या बहुत कम है. ग्रामीण भारत में सिर्फ 5 फीसदी परिवार ही ऐसे हैं, जिसका कोई सदस्य वैतनिक सरकारी नौकरी में है. 1.1 फीसदी लोग सार्वजनिक उपक्रमों में काम कर रहे हैं और 3.57 फीसदी निजी क्षेत्र की नौकरी में हैं.

हाल ही में शुरू की गई सामाजिक क्षेत्र की तीन योजनाओं&प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना (दुर्घटना बीमा), प्रधानमंत्री जीवन ज्योति योजना (जीवन बीमा) और अटल पेंशन योजना&का मकसद यही है. यानी पहले से चल रही महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के ऊपर सामाजिक सुरक्षा का एक तंत्र मुहैया कराना.

कुछ अर्थशास्त्रियों की राय यह भी है कि ग्रामीण आमदनी कम करके बताई गई हो सकती है और गरीबी के आंकड़े इतने भयावह नहीं भी हो सकते. मसलन, इन आंकड़ों पर गौर कीजिए. 68 फीसदी परिवारों में एक मोबाइल फोन है, 11 फीसदी के पास रेफ्रिजरेटर और 21 फीसदी के पास दो-तीन या चार पहिया वाहन हैं. ये आंकड़े इससे मेल नहीं खाते कि महज 8 फीसदी लोगों के पास 10,000 रु. से अधिक की मासिक आमदनी है. इसके अलावा, जनगणना कर्मियों का यह भी दावा है कि उन्होंने 1.2 करोड़ परिवारों की इस शिकायत का भी निबटारा किया कि उनके आंकड़े सही नहीं हैं. साथ ही यह भी कहा गया कि ज्यादातर लोग अपनी आमदनी जाहिर नहीं करना चाहते.
आमदनी कम करके बताई गई हो या नहीं, लेकिन नई जनगणना से निकले ये आंकड़े ग्रामीण भारत की बेहद दयनीय दशा का वर्णन तो करते ही हैं. ये आंकड़े हमारी सरकार के लिए आर्थिक समृद्धि की ओर ले जाने वाली नई आर्थिक नीतियां बनाने, सब्सिडी को दुरुस्त करने और बड़े पैमाने पर शहरीकरण करने में मददगार होंगे.

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लेखक

श्वेता पुंज श्वेता पुंज @shweta.punj.9

लेखिका इंडिया टुडे में एसोसिएट एडिटर हैं.

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