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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 22 जून, 2015 01:58 PM
शेखर गुप्ता
शेखर गुप्ता
  @shekharguptaofficial
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“म्यांमार की सरहद में बागियों के शिविरों पर बदले की कार्रवाई जरूरी, प्रभावकारी और जायज थी. किसी भी हथियारबंद बागी गुट को यह मानने की छूट नहीं दी जा सकती कि वह भारतीय फौजियों का सफाया करके बच निकल जाएगा. सबसे उदार दिल वाले समाजों में भी यह बरदाश्त नहीं किया जा सकता, और हम तो वैसे हैं भी नहीं. समस्या सिर्फ छाती ठोकने की या सीधे कहें “56 इंच” की छाती ठोकने की थी.”

“पूर्वोत्तर के लोग अपने से किए जाने वाले भेदभाव को भूले नहीं हैं और अगर उग्रवाद के बाद के दौर में जन्मे युवा पीढ़ी के कुछ नए लोग इस बात को भूल भी रहे होंगे तो चंदेल हमले के बाद दिखाई गई संवेदनहीनता ने उन्हें “हमारे और उनके” बीच की भावनात्मक दूरी की दोबारा याद दिला दी होगी. उनके इलाके में पिछले कुछ वर्षों में काफी शांति कायम रही है लेकिन हमने उन्हें इसका कोई विशेष लाभ नहीं दिया है.”

भारत के पूर्वोत्तर की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि जैसे ही वहां लोगों की मौत बंद हो जाती है, खबर मर जाती है. या फिर इसे और सटीक तरीके से रखा जाए तो कह सकते हैं कि खबर तब मर जाती है जब हम 'भारतीय' नहीं मर रहे होते हैं.

इसे समझाने के लिए मैं तीन दशक से भी पहले एक खासी सरकारी कर्मचारी के साथ शिलांग में हुआ अपना संवाद याद करना चाहूंगा जब पूर्वोत्तर की खबरें लगातार तीन साल तक पहले पन्ने पर बनी रही थीं. यह वही दौर था जब मैं वहां नौकरी पर तैनात था (1981-83). उसने कहा था, “शेखर, आप भले यहीं पर रहते हैं, लेकिन ये बताइए कि हम मेघालय के लोगों को आप जैसे कितने इंडियंस की जान लेनी पड़ेगी कि आप हमारे बारे में एक खबर लिख सकें?” उसकी बात बहुत तल्ख थी. जिन तीन वर्षों के दौरान मैंने मेघालय की राजधानी शिलांग में रहकर उस इलाके को कवर किया, मैंने उस राज्य के बारे में एक भी गंभीर खबर लिखने की जरूरत नहीं समझी. यह वाकई गंभीर मामला है. सचाई यह है कि जब नगालैंड, मिजोरम और त्रिपुरा में आग भड़की हुई थी और असम में जनजीवन ऐसा ठहरा हुआ था कि वहां से 'इंडिया' में कच्चा तेल भेजने वाली पाइपलाइनें भी बंद पड़ी थीं, तब मेघालय बेहद शांत और सुकूनदेह था. वहां थल सेना, वायु सेना, असम राइफल्स, बीएसएफ और यहां तक कि उस क्षेत्र के आइबी और रॉ का मुख्यालय हुआ करता था और अधिकतर पत्रकार भी वहीं थे. वहां बम नहीं फटते थे, हत्याएं नहीं होती थीं और हमारा स्वागत बहुत प्रेम से किया जाता था, इसलिए हमें उसकी कोई चिंता नहीं थी.

वहां रहकर मैंने जो कुछ भी लिखा, उसमें पत्रिका के लिए तितली और ऑर्किड के व्यापार (जो अब प्रतिबंधित है) पर कुछ लेख और अन्य जनजातीय विशिष्टताओं पर कुछेक आलेख थे. हमारी राष्ट्रीय चेतना में पूर्वोत्तर बगावत और उग्रवाद की एक कहानी था, राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा था, एक नाजुक सरहद था, जैसा कि मरहूम लोकसेवक नारी रुस्तमजी ने अपनी सुंदर पुस्तक में कहा है. पूर्वोत्तर हमारे लिए एक ऐसा क्षेत्र था जिसकी रक्षा की जानी थी और कुछ मुट्ठी भर अनजान-सी विविध जनजातियां थीं जिनसे हमें खुद को बचाना था. बिल्कुल कश्मीर की ही तरह इस क्षेत्र के प्रति हमारी वचनबद्धता बस इतनी थी कि हमें इस इलाके के स्वामित्व को बचाना था. यहां के लोग हमारे लिए उतना मायने नहीं रखते थे, इसलिए हमने कभी उन्हें अपना मानकर गले नहीं लगाया. पूर्वोत्तर राष्ट्रीय सुरक्षा का एक आख्यान था और एक बार खतरा टलने पर खबर अपने आप मर जाती थी.

करीब चौथाई सदी गुजर गई और बाकी क्षेत्र भी मेघालय की तरह अब शांत हो गया है और इसीलिए वह हमारे राष्ट्रीय (इंडियन?) राडार पर नहीं आता है. इसीलिए जब अपेक्षाकृत हाशिए के एक बचे हुए समूह के उग्रवादियों ने हमारे फौजियों की एक खेप की हत्या कर दी तो हमें समझ में ही नहीं आया कि इसकी प्रतिक्रिया कैसे की जाए. फिर ऐसा लगा, गोया किसी किस्म का बदला ले लिया गया है और हम दोबारा सब कुछ भूल गए, खासकर इसलिए क्योंकि हम भारतीयों पर किसी और हमले की खबर नहीं आई.

लगातार बंटते ध्यान और 140 अक्षरों तक सिमट गए भव्य से भव्य विचारों के इस दौर में जब शोध प्रबंध भी इस आधार पर तय किए जा रहे हों कि क्या कुछ चलन में है, तब एक ऐसी खबर पर बात करना मूर्खतापूर्ण और आत्मतुष्टिपूर्ण होगा जो हफ्ते भर पहले ही देश की पूर्वी सरहद पर अपनी मौत मर चुकी है और जिस पर एक नए मोदी का साया पड़ चुका है. हमारे लिए हालांकि इस क्षेत्र के साथ, खासकर मणिपुर की सर्वाधिक सुदूर बाहरी सीमा के साथ ऐसा बरताव करना खतरनाक रूप से गैर-जिम्मेदाराना होगा. ऐसा इसलिए क्योंकि जब कठोर राजकीय सैन्यवाद जनतांत्रिक और भावनात्मक सत्ता की जगह ले लेता है, तब सबसे बुरी गलतियां होती हैं.

म्यांमार की सरहद में स्थित विद्रोहियों के शिविरों पर बदले की कार्रवाई किया जाना गलती नहीं थी. यह जरूरी था, प्रभावकारी था और पूरी तरह जायज भी है. किसी भी सशस्त्र बागी को यह नहीं मानने की छूट दी जा सकती कि वह भारतीय फौजियों का सफाया कर के बच निकल पाएगा. सबसे उदार दिल वाले समाजों में भी इस हरकत को बरदाश्त नहीं किया जा सकता, और हम तो वैसे हैं भी नहीं. समस्या छाती ठोकने की थी, या झिझक छोड़कर कहें तो '56 इंच' की छाती ठोकने की थी. इसकी अगुआई एक पूर्व फौजी और राष्ट्रीय खिलाड़ी तथा वर्तमान में सूचना और प्रसारण राज्यमंत्री ने की, जो एक शानदार इंसान हैं और जिनके पास मणिपुरी खिलाड़ियों का दल चुनने का लंबा अनुभव रहा है. इन्होंने अपने अति उत्साह में विजय की दुंदुभि बजा कर एक लहर खड़ी कर दी. उनका यह कहना कि ऐसी छापेमार सैन्य कार्रवाई पहली बार की गई है, तथ्यात्मक रूप से गलत था.

अक्सर हमें बताया जाता है कि भारत एक उदार राज्य है. यह बात कहीं से भी सच नहीं है. जहां तक खुद को बचाने की बात आती है तो भारत कहीं भी सर्वाधिक बर्बर हो सकता है और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि सत्ता किस दल की है. इंदिरा गांधी ने 1984 के ऑपरेशन ब्लूस्टार में अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में टैंक भेज दिए, राजीव गांधी ने 1988 में ऑपरेशन ब्लैक थंडर में स्नाइपर और कमांडो भेज दिए. वी.पी. सिंह की लचर सरकार में भी ऐसी बर्बर प्रतिक्रिया जारी रही और फिर पी.वी. नरसिंह राव की बारी आई. आपको अगर इसके बारे में जानना हो तो मौजूदा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल से ही बात करके देख लीजिए, जो इस सब के केंद्र में थे. नरसिंह राव के जमाने में खालिस्तानी उग्रवाद को खत्म करने वाला ऑपरेशन सर्वाधिक बर्बर था. और कश्मीरियों के साथ सबसे बुरा बरताव अगर किसी दौर में हुआ, जैसा कि हैदर फिल्म में दिखाया गया है और जिसने एक से एक कट्टरदिल शख्स को हिला डाला, तो यह भी 'अनिर्णायक' राव के दौर में ही हुआ. म्यांमार और भूटान में सीमापार अभियान वाजपेयी के दौर में चलाए गए&वास्तव में भूटान नरेश ने खुद उल्फा के खिलाफ एक अभियान का नेतृत्व किया, जिसे उनकी और भारतीय फौज ने संयुक्त रूप से अंजाम दिया था.

बुनियादी बात यह है कि इनमें से किसी ने भी इस पर अपनी छाती नहीं ठोकी. इंदिरा, राजीव, राव, वी.पी. सिंह, वाजपेयी और मनमोहन सिंह ने या इनकी सरकारों ने इन अभियानों के बारे में खुलकर बात तक नहीं की. इसकी दो वजहें थीं. पहली, इसमें कई संवेदनशील तत्व और गोपीयताएं निहित थीं. दूसरी बात, आप अपने ही देश के लोगों को मारकर अपनी छाती नहीं ठोका करते हैं, फिर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे इसके  लिए कितने भी जिम्मेदार क्यों न रहे हों और देश में उनके खिलाफ कैसा भी माहौल क्यों न रहा हो. ब्लूस्टार के बाद दुनिया के मीडिया को अपनी पहली ब्रीफिंग में जनरल सुंदरजी (तत्कालीन लेफ्टिनेंट जनरल और सेना की पश्चिमी कमान के कमांडर) और मेजर जनरल के.एस. बरार (जिन्होंने हमले का नेतृत्व किया) ने बस इतना कहा था, “हम भीतर गए थे तो हमारे होठों पर एक प्रार्थना थी और दिल में भक्ति थी.” इसमें कहीं भी यह भाव नहीं था कि जो हमसे टकराएगा, चूर-चूर हो जाएगा. इसे दूसरे तरीके से समझें. यह ठीक है कि कोई भी सशस्त्र समूह अगर हमारे फौजियों को निशाना बनाता है तो उसे सबक सिखाया जाना होगा. किसी भी कानूनबद्ध जनतांत्रिक राष्ट्र में सिर्फ राज्य को हथियार हाथ में लेने और जानलेवा हमले करने का कानूनी तरीके से अधिकार है. पिछले पखवाड़े मणिपुर के चंदेल में हमारे अठारह सैनिक मारे गए थे, लेकिन छत्तीसगढ़ के दंतेवाडा के ताड़मेटला में तो माओवादियों द्वारा घात लगाकर किए गए हमले में चार गुना सैनिक मारे गए थे (6 अप्रैल, 2010) और कई गुना बाद के छापों में मारे गए. अगर वे दोबारा ऐसा करने की हिम्मत करते हैं तो हम माओवादी शिविरों पर ऐसी ही प्रतिशोध की कारवाई क्यों नहीं कर देते?

मैंने ताड़मेटला की घटना के वक्त यही सवाल पूछा था जब थल सेना और वायु सेना के प्रमुखों ने अयाचित घोषणा की थी कि हमारी सशस्त्र सेनाएं 'अपने ही लोगों' के खिलाफ जंग में शामिल नहीं हो सकती हैं और माओवादी चुनौती का सर्वश्रेष्ठ जवाब पुलिस और केंद्रीय अर्धसैनिक बलों के जिम्मे ही है. मैं यह सवाल पूछकर यह नहीं कहना चाह रहा था कि हम मध्य भारत के निर्धनतम आदिवासियों के ऊपर सेना को छोड़ दें बल्कि मेरा सवाल एक सिद्धांत से जुड़ा थाः आखिर कश्मीरी और पूर्वोत्तर के विद्रोहियों के खिलाफ उसी सशस्त्र बल का इस्तेमाल करने में हमें कोई संदेह क्यों नहीं होता? क्या वे अपने भारतीय लोग नहीं हैं, या कि मुख्य भू-भाग में मौजूद उन माओवादियों से कुछ कम भारतीय हैं, जो आज किसी भी नगा समूह या पूर्वोत्तर के अन्य उग्रवादी गुटों से ज्यादा बड़ा खतरा हैं? मैं आपको आश्वस्त करता हूं कि ऐसा करने में कोई जश्न या छाती ठोकना नहीं होगा. राष्ट्रीय सुरक्षा का हमारा सारा विमर्श इसी बुनियादी पाखंड से भरा पड़ा है. हम व्याख्यानों में तो जातीयताओं और अल्पसंख्यकों का जिक्र करके एकता में अनेकता का जुमला उछालते हैं लेकिन उन्हें मुख्य भू-भाग के वासियों के मुकाबले कम नागरिक के बतौर बरतते हैं.

पूर्वोत्तर के लोग इस बात को भूले नहीं हैं और अगर उग्रवाद के बाद के दौर में जन्मे कुछ युवा पीढ़ी के नए लोग इस बात को भूल भी रहे होंगे तो चंदेल हमले के बाद दिखाई गई संवेदनहीनता ने उन्हें “हमारे और उनके” बीच की भावनात्मक दूरी की दोबारा याद दिला दी होगी. उनके इलाके में पिछले कुछ वर्षों में काफी शांति आई है लेकिन हमने उन्हें इसका कोई लाभ नहीं दिया है. यहां तक कि राष्ट्रीय मीडिया में भी अधिकतर संस्थानों ने वहां से अपने ब्यूरो हटा लिए हैं, क्योंकि वहां अमन-चैन है. त्रिपुरा ने सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम को अपने यहां से हटा लिया है और वहां इतनी शांति है कि अब ओएनजीसी वहां के पहाड़ों से गैस निकालकर राज्य में ही उससे बिजली बना पाएगा. अफसोस कि इस खबर का सिर्फ उड़ते-उड़ते जिक्र किया जाएगा जबकि मणिपुर की सिर्फ एक घटना को आने वाले वर्षों में सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम को जारी रखने का बहाना बनाया जाता रहेगा.

ठीक उसी वक्त अगर आपने माओवादी क्षेत्रों के लिए सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम लागू करने का प्रस्ताव रखा तो तुरंत मुख्यधारा में आक्रोश भड़क जाएगा. हमारे मुख्य भू-भाग के प्रतिष्ठान के इसी नजरिए ने पूर्वोत्तर को अलग-थलग कर डाला है और हमारी ताजा प्रतिक्रिया इस अलगाव को नई पीढ़ियों में भी पैदा कर देगी. इसीलिए यह खबर तब तक नहीं मरने दी जाएगी जब तक कि कोई और हमला और उसके प्रतिशोध की कार्रवाई संपन्न न हो जाए. हम अगर इस क्षेत्र को विशुद्ध राष्ट्रीय सुरक्षा के चश्मे से देखते रहे और हमने यहां के लोगों को, खासकर जनजातीय समुदायों को थोड़ा विविध लेकिन अपने ही जैसा भारतीय समझ कर गले नहीं लगाया, तो हमें इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी. और वह हमारे राष्ट्रीय अस्तित्व के लिए कतई भला नहीं होगा.

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लेखक

शेखर गुप्ता शेखर गुप्ता @shekharguptaofficial

वरिष्ठ पत्रकार

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