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Updated: 22 अप्रिल, 2016 04:06 PM
अशोक प्रियदर्शी
अशोक प्रियदर्शी
  @ashok.priyadarshi.921
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घटना हाल की है. महाराष्ट्र के जल संसाधन मंत्री पंकजा मुंडे लातूर गई थीं. लातूर का इलाका भीषण जल संकट से गुजर रहा है. क्षेत्र का मुआयना करने मंत्री अपने अधिकारियों के साथ गईं थीं. वो प्रभावितों से मिलीं, उन्हें पानी का एक मामूली खाई मिली. मंत्री महोदया ने उस खाई के साथ खुद की सेल्फी उतार ली. फिर उसे सोशल मीडिया पर शेयर कर दिया. उनके प्रशंसक और लातूर की स्थिति से अंजान लोग मंत्री के पोस्ट को लाइक और कमेंट करने लगे.

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ये है पंकजा मुंडे की सेल्फी जिसपर विवाद हुआ

लेकिन जो लोग लातूर की स्थिति से वाकिफ थे. वे लोग मंत्री के इस पोस्ट पर सवाल उठाने लगे. सवाल इसलिए कि सेल्फी में मंत्री ने जो तस्वीर पोस्ट की थी वह लातूर की वास्तविक स्थिति नहीं थी. यह सूखाग्रस्त लोगों के साथ अपराध जैसी घटना थी. लिहाजा, लोगों ने विरोध जताना शुरू किया. तब मंत्री ने सफाई दी कि ये रेगिस्तान में पानी दिखने जैसा था. मंजरा नदी पर साईं बांध की एक खाई में पानी देखकर मैं खुश हो गई. इसलिए सेल्फी ले ली.  

मुंडे की घटना अकेला नहीं है. यह बात और है कि लोगों ने विरोध दर्ज कर मुंडे को अपराधबोध कराया. यह उदाहरण भर है. समाज में एक ऐसा तबका तेजी से उभर रहा है, जो सेल्फी यानि फोटोग्राफी को ही समाजसेवा का जरिया मानने लगा है. इसके लिए वह मौके की तलाश में होते हैं. यह किसी खास व्यक्ति और किसी खास दल की समस्या नहीं है. समाज में व्यापक पैमाने पर अपराध हो रहा है. विरोध का तरीका मौन रहा है, लिहाजा यह तादाद बढ़ती जा रही है.

आमतौर पर सियासत में इसका प्रचलन ज्यादा दिखता है. पंचायत से लोकसभा चुनाव में सेल्फीकरण की होड़ है. समाज में ऐसे अनगिनत उदाहरण मिलते रहे हैं जिनका समाज से कभी सरोकार नहीं रहा, लेकिन वह अपने मकसद के लिए जरूरतमंदों के बीच सेल्फी सेल्फी खेल रहे हैं. सोशल साइटस पर लाइक और कमेंटस पाकर गदगद हुए जा रहे हैं. इसे समाजसेवा का नया वर्जन भी कह सकते हैं. क्योंकि ऐसे लोगों को जल्दी होती है. लिहाजा, सेल्फी के जरिए समाज से सरोकारी बनने का स्वांग रचाते रहे हैं.

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सेल्फी वाले समाजसेवकों का नया वर्जन हर जगह मिल जाता है. इनके लिए गरीब की झोपड़ियां, लाचार बच्चे, मजबूर महिलाएं, बेरोजगार युवाओं और जरूरतमंद लोग पसंदीदा ठिकाना होता है. उनकी समाजसेवा स्मार्टफोन से होकर सोशल मीडिया की ओर जाती है. लाइक कमेंट के बाद वह कभी वापस नही आते हैं. ठीक उसी तरह जिस तरह सेल्फी लेनेवाले लोग उन सबों के दुख दर्द में नजर नहीं आते.

सेल्फीकरण का यह स्वरूप गरीबों और लाचार लोगों के साथ धोखा है. सेल्फी के वक्त हमदर्द होने का दिखावा करते हैं. उसके बाद फिर गायब होकर लंबे समय का दर्द दे जाते हैं. यह सेल्फी का अपराधीकरण है. किसी के निजी जीवन की गोपनीयता को सार्वजनिक करना सामाजिक अपराध है. यह ठीक उसी तरह से जिस तरह प्रतिबंधित क्षेत्र में तस्वीर उतारना. किसी संविधान में नहीं लिखा कि किसी की गरीबी और लाचारी को सार्वजनिक तौर पर उपहास का विषय बनाया जाए. यह सामाजिक अपराध है. हां, आप किसी का भला कर उसकी सेल्फी शेयर करें तो इससे समाज का भी भला है.

अपराधियों और भ्रष्ट्राचारियों में भी सेल्फीकरण की होड़ मची है. निर्दयी व्यक्ति भी अपने मकसद के लिए समाज के बीच सहज दिखने के लिए सेल्फी सेल्फी खेलते हैं. गैर सियासी क्षेत्रों में भी सेल्फीकरण की धूम है. गलत तरीके से रुपए अर्जित करनेवालों में सेल्फीवाला समाजसेवक बनने की होड़ मची है. इसके लिए वह चंद कंबल, पानी का प्याउं जैसे मामूली कामों से सेल्फी-सेल्फी खेलते हैं. इसमें भी जरूरतमंदों को लाभ के बजाय अपना चेहरा चमकाने की होड़ दिखती है. ऐसे लोग अपने प्रतिष्ठानों के जरिए उचित मजदूरी और कम मुनाफे पर समान उपलब्ध कराकर हजारों लाखों लोगों को लाभ पहुंचा सकते हैं. लेकिन वह सेल्फीवाला समाजसेवक बनना चाहते हैं.

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ज्ञान बांटनेवाले निजी संस्थान भी खूब सेल्फीवाले समाजसेवक बनते हैं. अभिभावकों का खून चूसकर कई मंजिला इमारत खड़ी कर लेते हैं. किताबों के कमीशन से मालामाल हो रहे होते हैं. लेकिन जब उस स्कूल के बच्चे टॉप करते हैं तब महज कॉपी और कलम देकर सेल्फी खिंचाकर मददगार दिखने का स्वांग रचते हैं. वह चाहें तो कम फीस पर अधिक बच्चों का भला कर सकते हैं. लेकिन सेल्फी के जरिए संस्था का बाजारीकरण करते हैं.

सेल्फी के दो पहलू हैं. एक यह कि जब कोई मामूली आदमी किसी ब्रांड और किसी बड़े शख्स के साथ सेल्फी खिंचवाते हैं. यह सेल्फी उस मामूली शख्स के लिए ऐतिहासिक पल होता है. उसे वह संजोकर रखता है. वह लोगों को दिखाता है. इससे उसे आत्मबल मिलता है. उस शख्स के साथ सेल्फी उस शख्स और समाज के लिए मिसाल होती है. दूसरा पहलू यह है कि जब कोई अपने मकसद के लिए सिर्फ गरीबों और जरूरतमंदों के साथ सेल्फी लेता है तब ये अपराध जैसा है.

देखा जाए तो सेल्फी अंग्रेजी का शब्द है. जब से स्मार्टफोन आया है तबसे सेल्फी का प्रचलन बढ़ा है. सेल्फी को लोग सेल्फिश से जोड़कर भी देखते हैं. सेल्फिश का अभिप्राय स्वार्थी से है. सवाल सेल्फी पर नहीं है. सेल्फीवालों की नियत पर है. सेल्फी के जरिए खुद की तस्वीर, परिवार की तस्वीर और दोस्त की तस्वीर साझा करें तो इसमें किसी को क्या परेशानी हो सकती है. क्योंकि वह खुद के लिए जीते हैं. खुद का स्मार्टफोन है. लेकिन जब उस सेल्फी में समाज को शामिल करते हैं तब समाज के दर्द और परेशानी में भी शामिल होना चाहिए.

वैसे समाज से गहरा सरोकार रखनेवाले लोग सेल्फी पर बहुत कम भरोसा रखते हैं. उन्हें समाज पर भरोसा होता है कि जितनी सुंदर और बढ़िया तस्वीर समाज उतार सकता है उतनी बढ़िया तस्वीर सेल्फी में नही उतर सकती. सेल्फी एक तस्वीर भर है. लेकिन एक दूसरा वर्ग है जिनके लिए सेल्फी ही समाजसेवा है. उन्हें समाज के चित्रण पर भरोसा नही होता. क्योंकि वह समाज के बीच नहीं रहते और न ही कोशिश करते हैं. समाज की मजबूरियों के बीच वह सिर्फ अपना चेहरा चमकाना चाहते हैं. हालांकि समाज उनसे परिचित नही होता. लिहाजा, उनके पास सेल्फी के सिवा कुछ नहीं होता!

लेखक

अशोक प्रियदर्शी अशोक प्रियदर्शी @ashok.priyadarshi.921

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं

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