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Updated: 30 मई, 2018 02:27 PM
श्रुति दीक्षित
श्रुति दीक्षित
  @shruti.dixit.31
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बोर्ड एग्जाम और उनका खौफ 90 के दशक के बच्चों के लिए कुछ नया था. ये वो दौर था जब सिर्फ फर्स्ट क्लास पास होना एवरेज बच्चों का काम हो गया था. सेकंड क्लास और थर्ड क्लास को पास कहने पर भी रिश्तेदार माता-पिता और बच्‍चे को दया की नजर से देखते थे. फेल बच्चे तो यकीनन बिगड़े हुए नाकारा बच्चे होते थे.

ये वो दौर था जब हमारे माता-पिता को हमसे उतनी उम्मीदें होती थीं जितनी ISRO को अपने रॉकेट और नासा को अपने स्पेस स्टेशन से होती हैं. यही वो दौर था जब मैं पैदा हुई थी. मेरे 10वीं तक आते-आते 2006 हो चुका था और यकीनन मेरे लिए वो दौर निकालना बहुत मुश्किल हो गया था. एक स्टेट बोर्ड के स्टूडेंट को बहुत सी अफवाहों से गुजरना पड़ता है, जैसे 9वीं और 11वीं में बहुत स्ट्रिक्ट चेकिंग होती है क्योंकि अगले साल बोर्ड होता है, ये क्लास बहुत ही मुश्किल होती है, बोर्ड के साथ में बहुत ध्यान देना होता है, जितनी ज्यादा सप्लिमेंट्री ली होती है उतने ज्यादा नंबर आते हैं, वगैराह-वगैराह. ज़ाहिर सी बात है ये सारे डर मेरे मन में भी थे.

बोर्ड एग्जाम नजदीक आते ही घर में एक अजीब सी खामोशी छा गई थी. घर का पीछे वाला कमरा सिर्फ पढ़ाई के लिए निर्धारित कर दिया गया. मेरे घर में तो ज्यादा परेशानी नहीं थी, मैं मां-पापा के साथ टीवी देखना, दोस्तों के साथ थोड़ा बहुत बातें कर लेना और बहन के साथ खेलना सब कुछ करती थी, लेकिन जैसे ही कोई रिश्तेदार या आस-पड़ोस वाला घर में आता था माहौल काफी खराब हो जाता था.

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पढ़ने में अच्छी थी तो यकीनन उम्मीदें बहुत ज्यादा ही लगाई गई थीं मुझसे. आस-पड़ोस वाले आकर मां-पापा को ये कहकर जाते कि रिजल्ट के बाद तो मेरा नाम पेपर में देखने की आस लगाए बैठे हैं वो लोग. 10वीं के समय माहौल कुछ ऐसा था कि मेरे माता-पिता अचानक रिश्तेदारों और मिलने आने-जाने वालों की बातों में आने लगे. उन्हें भी उनकी बेटी मेरिट होल्डर दिखने लगी.

ये वो समय था जनाब जब किसी शादी के फंक्शन में जाने पर भी लोग मुझे ये याद दिला देते थे कि 'इस साल बोर्ड है बेटा, तैयारी कैसी चल रही है?'. उस समय जो प्रेशर महसूस होता था वो बयां नहीं किया जा सकता. अचानक जलसे का माहौल किसी एग्जाम हॉल की तरह लगने लगता था.

परीक्षा की तारीख नजदीक आते-आते हालत कुछ ऐसी हो गई थी कि टीवी और खेलना को छोड़िए हाथ में खाना खाते वक्त भी किताब रखने की आदत हो गई थी. मां-पापा खुश तो थे कि मैं पढ़ाई में ध्यान लगा रही हूं, लेकिन शायद ये प्रेशर समझ गए थे और फिर ज्यादा उम्मीदों की बातें करनी बंद कर दी थीं. पर फिर भी जैसे-तैसे परीक्षा हुई.

रिजल्ट का वो दिन..

खुद रिजल्ट देखने के हिम्मत ही नहीं रह गई थी. लोगों के आश्वासन और मां की उम्मीदों ने इतना डरा दिया था मुझे कि लग रहा था अगर डिस्ट्रिक मेरिट लिस्ट भी चूक गई तो भी हालात ऐसे होंगे कि पाकिस्तान ने कश्मीर पर कब्जा कर लिया हो. लेकिन फिर वही हुआ जिसका डर था. मैं 6 नंबर से मेरिट लिस्ट से चूक गई. अब आपने अंदाज़ा लगा ही लिया होगा कि मैंने अपने मां-पापा को खुश करने लायक नंबर तो आसानी से पा ही लिए होंगे, लेकिन 10 बच्चों को मेरिट लिस्ट में जगह नहीं बना पाई थी.

उस समय जितना मैं रोई थी उतना शायद अपनी विदाई में भी न रोऊं. पापा और मां थोड़े नाखुश तो लगे थे कि मैं मेरिट में नहीं आई, लेकिन फिर भी इतने अच्छे नंबर की खुशी थी. पर रिश्तेदारों ने जीना दुश्वार कर दिया था. रिजल्ट जानकर बधाई देते-देते ये जरूर बोल जाते कि अगली बार मेरिट में आना है. लो जी, अभी के रिजल्ट की बधाई देने में भी एक कटाक्ष था कि मैं इससे बेहतर कर सकती थी. कि पेपर में मेरा नाम नहीं आया क्योंकि मैं मेरिट लिस्ट में नहीं थी. 12वीं में हालांकि, वो कसर भी पूरी हो गई, लेकिन यकीनन वो 10वीं का खौफ दिल में आज भी एक टीस छोड़ जाता है.

आखिर क्यों एक स्टूडेंट को इतना डराया जाता है. यकीनन आगे चलकर आप क्या करने वाले हैं इसका बोर्ड के नंबरों से उतना मतलब नहीं होता जितना डराया जाता है. क्लास 11वीं में जब मैंने कॉमर्स ली तो भी कई लोगों को लगा कि मैं किसी काबिल नहीं और किस्मत से सिर्फ 10वीं में अच्छे नंबर आ गए थे. मेरा करियर किसी ओर नहीं बढ़ेगा. पर आज मैं जो भी हूं वो अपनी मेहनत के कारण हूं. इन रिश्तेदारों को मार्क जकरबर्ग, स्टीव जॉब्स और बिल गेट्स जैसे उदाहरण समझ नहीं आते इन्हें बस मार्कशीट समझ आती है. अच्छे खासे रिजल्ट को भी बर्बाद कर देने का हुनर है समाज में.

मेरी बहन के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ क्योंकि वो सीबीएसई बोर्ड का हिस्सा थी. उसके रिजल्ट में ये बात कह दी गई कि ये बोर्ड तो होता ही कठिन है, ज्यादा मेहनत करनी चाहिए. देखो अब स्टेट बोर्ड वाली आसान पढ़ाई तो है नहीं तुम्हारी. ये वो समय था जब मेरी पढ़ाई को ही बर्बाद कह दिया गया था क्योंकि मैं स्टेट बोर्ड की स्टूडेंट थी.

माता-पिता चाहें न भी करें, लेकिन रिश्तेदार और आस-पड़ोस वाले कभी भी बच्चों पर प्रेशर डालना नहीं छोड़ेंगे. शायद यही वजह है कि अपनी नाकामियाबी बच्चे बर्दाश्त ही नहीं करते और आत्महत्या कर लेते हैं. जिंदगी किसी भी बोर्ड एग्जाम से ज्यादा जरूरी है. एक बार कोई फेल हो गया या नंबर कम आए तो जिंदगी कभी खत्म नहीं होगी. समाज की न सोचें वो कभी आपसे खुश नहीं होगा.

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श्रुति दीक्षित श्रुति दीक्षित @shruti.dixit.31

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं.

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