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Updated: 19 नवम्बर, 2022 08:08 PM
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19 नवम्बर 1828, काशी के कराड़े ब्राह्मण परिवार में जन्म हो रहा था एक ऐसी चिंगारी का जो भारत के स्वाधीनता संग्राम के उदय की निमित्त बनने वाली थी. कौन जानता था वह शौर्य और साहस की निधि बन क्रांति के लिए शस्त्र उठा कर स्वयं को बलिदान कर देने वाली वीरांगना इतिहास के पन्नों में सदा के लिए अमर हो जाएगी.

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,

बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी,

गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,

दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी.

यह वह दौर था जब ईस्ट इंडिया कंपनी भारतवर्ष के बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर चुकी थी और राजवंश एवं शाही घराने अपनी अस्मिता को बचाए रखने की जद्दोजहद में लगे थे. ब्रिटिश सरकार की दमनकारी और हड़प नीतियों के कारण भारतीय समाज में भारी असंतोष व्याप्त हो रहा था मगर अधिकतर राजवंशों के टुकड़ों में बंटे होने के कारण वे खुल कर विरोध नहीं कर पा रहे थे, जिसके कारण कई आर्थिक और राजनैतिक दबावों के चलते राजा और जमींदार मजबूरन एक-एक कर झुकते जा रहे थे. इस समय सबसे अधिक आवश्यकता थी विद्रोह के ऐसे संगठन की जो स्वाधीनता क्रांति की नींव बने.

Rani Laxmibai, Birth Anniversary, India, Jhansi, Rani Lakshmibai, Rani of Jhansiवाराणसी के काशी में एक मराठी ब्राह्मण परिवार में जन्मी मणिकर्णिका बचपन से ही शूरवीर बालिका के रूप में बड़ी हो रही थी

वाराणसी के काशी में एक मराठी ब्राह्मण परिवार में जन्मी मणिकर्णिका बचपन से ही शूरवीर बालिका के रूप में बड़ी हो रही थी, उनके पिता मोरोपंत ताम्बे मराठा पेशवा बाजीराव द्वितीय के दरबार में कार्यरत थे और मणिकर्णिका की माता भागीरथी बाई की मृत्यु के उपरान्त बालिका को साथ ही दरबार ले जाया करते थे, जिससे उसका अधिकतर बचपन राजनीति और सैनिक अभ्यासों वाले वातावरण में नाना साहेब और तात्या टोपे के साथ बीता.

मोरोपंत प्यार से उन्हें मनु बुलाया करते थे और स्वाभाव से चंचल और रम्य होने के करण पेशवा ने उन्हें छबीली नाम दिया था. पेशवा मनुबाई की वीरता और लगन से बहुत प्रभावित थे इसलिए उन्होंने उनकी शिक्षा और कार्यशाला के प्रबंध का कार्यभार अपने कंधों पर लिया. मनुबाई जिस विवेक से शास्त्र ज्ञान को अर्जित करती थी उतनी ही वीरता के साथ शास्त्र अभ्यास किया करती थी जिसके कारण उन्होंने उस समय की स्त्रियों से जुड़ी कई रूढ़ीबद्ध धारणाओं को तोड़ा और स्त्रियों में भी शस्त्र निपुणता की मनोवृत्ति को जगाया.

झाँसी के नेवालकर घराने में मराठा राजा गंगाधर राव नेवालकर के साथ हुआ था विवाह

सन् 1842 में उनका विवाह झाँसी के राजा गंगाधर राव नेवालकर के साथ हुआ और वे झाँसी की रानी बनीं. विवाह के बाद उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया. सितंबर 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसकी चार महीने की उम्र में ही मृत्यु हो गयी. गंगाधर राव पुत्र की मृत्यु का दंश न सह सके और स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी जिसके बाद उन्होंने अपने ही परिवार के वासुदेव राव नेवालकर के पुत्र आनंद राव को गोद ले लिया जिसका नाम बदलकर दामोदर राव रखा गया. पुत्र गोद लेने के पश्चात् राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गयी और रानी ने राज्य का कार्यभार संभाल लिया.

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,

राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,

फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,

लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया.

राज्य का खज़ाना जब्त हो जाने के कारण किला छोड़कर जाना पड़ा रानी महल

ब्रिटिश राज्य हड़प नीति के तहत दामोदर राव को दत्तक पुत्र होने के कारण कानूनी रूप से राज्य का वारिस मानने से इंकार कर दिया और राज्य का खज़ाना जब्त कर लिया गया जिसके बाद रानी को किला छोड़कर मजबूरन रानी महल में जाना पड़ा.

1857 की क्रांति का प्रथम उद्घोष किया था रानी लक्ष्मीबाई ने 

झाँसी 1857 के संग्राम का एक प्रमुख केन्द्र बन गया जहाँ हिंसा भड़क उठी. रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया और एक स्वयंसेवक सेना का गठन किया जिसमें कुल 14000 विद्रोहियों को इकट्ठा किया. इस सेना में महिलाएं भी शामिल थीं.

चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

बाजीराव प्रथम के पौत्र अली बहादुर और तात्या टोपे ने भी दिया था रानी का साथ

रानी ने तात्या टोपे के साथ संयुक्त सेना बना कर ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों की मदद से ग्वालियर के एक क़िले पर क़ब्ज़ा कर लिया एवं अली बहादुर को राखी भेजकर उनसे सहायता का आग्रह किया इसलिए अली बहादुर भी इस युद्ध में उनके साथ शामिल हुए.

स्वाधीनता के लिए शहीद हो गयी वीरांगना

केवल 29 वर्ष की उम्र में रानी अंग्रेज साम्राज्य की सेना से युद्ध करते हुए रणभूमि में सर पर तलवार के वार से वीरगति को प्राप्त हो गयीं. 18 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में कमर पर राइफल के वार और आँख के साथ सिर कट जाने के कारण रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु हो गयी. भारत के स्वाधीनता संग्राम की नींव रखने वाली यह वीरांगना इतिहास के पन्नों में सदा के लिए अमर है और सदियों तक अपने शौर्य और बलिदान के लिए जानी जाती रहेगी. 

दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

लेखक

Jyoti Verma @deepjyoti.verma

Writer & Makeup Artist

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